’कड़ी निंदा’ टाइप करते ही परसाई जी का ’निंदा रस’ याद आ गया। ’निंदा रस’ को जमाकर कड़ा कर दिया जाये तो ’कड़ी निंदा’ हो जायेगा। लेकिन ’निंदा रस’ से ’कड़ी निंदा’ तक की यात्रा में लिंग परिवर्तन टाइप हो गया। अब इसे उपलब्धि कहें या बवाल। यह अलग से एक सवाल।
कोई पूछे कि ’निंदा’ और 'कड़ी निंदा' में क्या फ़र्क होता है तो हम तो न बता पायेंगे। ज्यादा हुआ तो गूगल करके खोजेंगे लेकिन हमको अगर नेट कनेक्शन न मिला तो गूगल भी क्या घुंइया बतायेगा ? इसलिये खुद से सोचना चाहिये। हर बात के लिये गूगल पर भरोसा करना ठीक नहीं। कोई हमको घर में घुस के पीटने लगे तो क्या हम गूगल करके पता करेंगे कि पिटते रहें या अपन भी लगायें दो-चार हाथ?
'निंदा' के साथ लफ़ड़ा यह है कि यह दिखती नहीं है। अमूर्त टाइप होती है। दिखती तो छूकर/दबाकर पता कर लेते कि मुलायम है कि कड़ी। कम कड़ी होती तो थोड़ा कड़ापन और बढा देते। भट्टी में पकाकर जैसे लोहे की हार्डनेस बढाई जाती है वैसे ही निंदा की भी बढा लेते।
हमारी समझ में 'निंदा' और 'कड़ी निंदा' में अंतर कड़ेपन का ही होता होगा। पानी और बर्फ़ के अंतर की तरह। किसी ग्लास में रखा हुआ पानी चार हाथ दूर तक फ़ेंककर मारा जा सकता है लेकिन उसी की जमी हुई बर्फ़ फ़ेंककर चालीस हाथ दूर तक चोट पहुंचा सकती है। इससे लगता है कि जो 'निंदा' दूर तक मार करती है वह ’कड़ी निंदा’ होती है।
वैसे भी 'निंदा' और 'कड़ापन' महसूस करने वाले पर है। सूरज जो इत्ता डम्प्लाट है कि उसमें साठ हजार धरती समा जायें और जो दुनिया भर को सुलगाने में लग रहते हैं उसको हनुमान जी ने मधुर फ़ल जानकर लील लिया था। हम अपने पडोसी दुश्मन की हरकतों की ’कड़ी निंदा’ करते रहते हैं लेकिन वह हमारे लिये और ’कड़ी निंदा’ करने का इंतजाम करता रहता है। क्या फ़ायदा ऐसी ’कड़ी निंदा’ का।
लेकिन अपन की भी मजबूरी है कि जो स्टॉक में होगा वही तो सप्लाई किया जायेगा। अब हम कहां से लायें अमेरिका वाली धमकी मिली 'कड़ी निंदा' कि कह सकें कि - ’जो हमारे साथ नहीं है वह दुश्मन के साथ है।’ बल्कि यह कहने में एक डर यह भी है कि जहां हम कहें - ’जो हमारे साथ नहीं है वह हमारे दुश्मन के साथ है’ तो दुनिया के तमाम मुल्क भाभी जी की तरह कहने लगें - ’सही पकड़े हैं।’
सरल शब्दों में कहा जाये तो लाउडस्पीकर पर की गयी 'निंदा' , 'कड़ी निंदा' कहलाती है। कोई हमको मारकर भाग गया तो उसको कहां तक दौड़ाया-पकड़ा जाये। लगाकर माइक कर दी 'कड़ी निंदा'। सस्ते में काम बन गया। मारपीट में कहीं अगला फ़िर मारने-पीटने लगा तो चोट-चपेट का डर अलग से। इसलिये 'कड़ी निंदा' दुश्मन को निपटाने का सस्ता और सुलभ उपाय है।
’निंदा’ और ’कड़ी निंदा’ हिंसा के अहिंसात्मक विकल्प हैं। ’कड़ी निंदा’ से लड़ाई बचती है। लड़ाई में एक दिन में हजारों करोड़ रुपये रोज फ़ुंक जायेंगे। ’कड़ी निंदा’ में माइक के खर्चे में काम बन जायेगा। चाय-पानी का खर्चा निकाल कर हजार रुपये में मामला निपट जायेगा। बचे हुये पैसों से देश का विकास होगा। भाई-भतीजों के खाने-पीने के काम आयेंगे। सबका साथ होगा। सबका विकास ’एट्टोमेटिकली’ होगा।
इसके बाद भी अगर कहीं गरीबी, भुखमरी या पिछड़ापन दिख गया तो ऐसी ’कड़ी निंदा’ करेंगे उसकी कि सर पर पांव रखकर भागेंगे सब कड़बड़-कड़बड़। हम उसको देखकर कहेंगे देखो कैसे डरकर भाग रहीं हैं गरीबी और भुखमरी। जो डर गया सो मर गया। हमने ’कड़ी निंदा’ से गरीबी, भुखमरी और पिछड़ेपन का खात्मा कर दिया।
जो लोग कड़ी निंदा की ताकत को कम करके आंकते हैं उनको वीर रस के कवियों को सुनना चाहिये। जिस तरह से वीर रस के कवि माइक पर पाकिस्तान को हड़काते हैं उससे लगता है कि अगर माइक लगाकर सीमा रेखा पर रस का कवि सम्मेलन करवा दिया जाये तो पाकिस्तान अपने फ़ौज-फ़ाटे समेत रोज सौ मीटर पीछे खिसकता चला जाये।
यह व्यवस्था हो जाने पर मीडिया की खबरों की शीर्षक बनेंगे-’ पाकिस्तान ने सीमा रेखा पर फ़ायरिंग की। उसको सबक सिखाने के लिये वीर रस के कवियों का दल सीमा रेखा की तरफ़ रवाना। पाकिस्तान में दहशत। पाक सेना सरेंडर की तैयारी में जुटी।
हमको कड़ी निंदा का सार्थक उपयोग करने के लिये उसमें थोड़ा वीर रस भी मिलाना चाहिये। किसी वीर रस के कवि को अपना प्रवक्ता बना देना चाहिये। तोप का एक पिद्दी सा गोला बनाने तक में महीना खिंच जाता है लेकिन ’कड़ी निंदा’ का ’आशु बम’ कवि के मुंह खोलते ही निकल पड़ेगा। प्रवक्ता माइक संभालते ही पूछेगा - ’पाकिस्तान को निपटाऊं कि निपटाऊं चीन के लाल को।’
लेकिन ऊपर वाले उपाय में लफ़ड़ा यही है कि माइक को संभालने के दौरान ही उसको कहीं माइक पर ही ’मेड इन चाइना’ दिख गया तो वह दहल जायेगा। चीन से तो निपटने के उपाय हो सकते हैं लेकिन चीनी माल को कैसे निपटाया जा सकता है। उसके लिये सारे देश को एक साथ मिलकर मेहनत करनी पड़ेगी। लेकिन अपने देश के लोग तो अभी मंदिर-मस्जिद, रोमियो ब्रिगेड, गो रक्षा आदि जरूरी मुद्दों से निपटने में लगे हैं इसलिये उधर ध्यान ही नहीं दे पाते।
’कड़ी निंदा’ अभी शुरुआती दौर में है। एक बार चलन में आ जाने पर देश में सब समस्याओं के हल कड़ी निंदा में खोजे जायेंगे। भ्रष्टाचारी अपने बचे हुये समय में भ्रष्टाचार की ’कड़ी निंदा’ करेंगे, दंगाई लोग दंगा-फ़साद करने के बाद सांप्रदायिकता की ’कड़ी निंदा’ करेंगे, बलात्कारी लोग मां-बहनों की इज्जत न करने वालों की ’कड़ी निंदा’ करेंगे, दिन रात गुटबाजी करने वाले कवि-लेखक गुटबाजी की कड़ी निंदा करेंगे। मतलब जो जिस काम में लगा है वह उसकी ’कड़ी निंदा’ करने लगेगा। कालिदास बनने की ललक में जो जिस डाल पर बैठा है वह उसको ही काटने की कोशिश करेगा। अब यह बात अलग है कि उसके हाथ में कुल्हाड़ी की जगह फ़ूल झाडू सरीखी कोई चीज होगी जिससे डाल को कोई खतरा नहीं है।
भविष्य में लागू होने वाले चलन की तर्ज पर मैं अपने लिखे इस लेख ’कड़ी निंदा’ करता हूं।
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