Monday, July 17, 2017

चूल्हे में जलती आग सबसे खूबसूरत लगती है


कल गंगा दर्शन से वापस लौटते हुये कुछ चूल्हे जलते देखे। एक पतनासन्न इमारत की दीवार के पास ईंटो के चूल्हे पर खाना बना रहे थे लोग। तमाम तरह की आगों में से चूल्हे में जलती आग सबसे खूबसूरत लगती है मुझे। जब तक चूल्हों में आग का अस्तित्व है, दुनिया में बेहतरी की गुंजाइश बनी रहेगी।
कानपुर में आसपास के गांवों-जिलों से आकर तमाम लोग जीविका कमाते हैं। तमाम तरह के काम करते हैं। कुछ रिक्शा चलाते हैं। जिनसे बात हुई उनका नाम महेश है। सीतापुर के महोली कस्बे के एक गांव में घर है। 2-3 बीघा खेती है। परिवार गांव में है। कुछ दिन शहर में रहकर रिक्शा चलाते हैं। कमाते हैं। फ़िर गांव लौट जाते हैं। परिवार गांव में ही है।
चूल्हे में लौकी उबल रही थी। बताया कोफ़्ता बनायेंगे। स्टील के ग्लास में चाय बनी धरी थी। चाय से निकलती भाप उसके गरम होने की गवाही दे रही थी।
बताया कि चूल्हे जलाने के लिये लकड़ी दस रुपये किलो मिलती है। पास ही घाट पर। दो किलो लकड़ी में खाना बन जाता है। रिक्शा किराये पर लेते हैं।
आजकल 50-60 रुपये प्रतिदिन किराया है। कई ’रिक्शा-मठ’ हैं। मुन्ना, पांडेय और एक कोई और नाम बताया जो रिक्शा किराये पर देते हैं। हरेक के पास 20-25 रिक्शे हैं।
सोने की जगह आसपास ही कहीं मिल जाती है। नहीं तो रिक्शा किराये पर देने वाला भी सहायता करता है। मठाधीश अपने चेले बनाये रखने के लिये उनकी सुविधा का इंतजाम करता है। कुछ लोग पंचायत की छत पर भी सो जाते हैं।
आगे कुछ लोग अपना रिक्शा हैंडपम्प के पानी से धो रहे थे। चमका रहे थे। हमको खड़े देखा तो स्टूल सरकाकर बोला- ’बईठि लेव।’ लेकिन हम ’बईठे’ नहीं। चल दिये आगे। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे थे।
गंगाघाट के तल से ऊपर सड़क से जुड़ते हुये एक दुकान पड़ी। बाहर मिट्टी के कुछ बरतन थे। अंदर दो सिलाई मशीनें धरी थीं। दो महिलायें ’इतवारी विमर्श’ में मशगूल थीं। बात की तो बताया - ’सिलाई का काम करती हैं। मिट्ठी के बर्तन के बारे में बताया तमाम काम के लिये लोग ले जाते हैं। कुछ लोग फ़ूल ले जाते हैं। कुछ अस्थियां चुनने के बाद उनको रखने के काम के लिये भी इनको इस्तेमाल करते हैं।
आगे एक चाय की दुकान पर अड्डेबाजी हो रही थी। हमको खड़ा देखकर चाय वाले ने एक बेंच अंदर से बाहर लगाई। हम भी बेंचायमान हो गये। चाय बनते हुये अन्दर गप्पाष्टक हो रही थी।
गप्पाष्टक सुनते हुये हमें लगा कि चाय-कॉफ़ी की दुकानें, पान के अड्डे अपने समाज के सहज सामाजिकता के अड्डे हैं।
एक भाईजी अपने विद्यार्थी जीवन के किस्से सुना रहे थे। अपने गुरु जी की याद करते हुये बता रहे थे कि किस तरह उनके गुरु ’ कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढे वन माहिं’ का दादा कोंडकी करण करते हुये सुनाते थे। बाद में उनके किसी साथी ने गुरु जी को ’त्वदीयं वस्तु गोविन्दम तुभ्यमेव समर्पयामि’ का अनुसरण करते हुये इसका और अश्लीलीकरण करते हुये इस तरह गुरु जी को सुनाया कि इसके बाद गुरुजी ’कस्तूरी-दोहा’ सुनाना भूल गये।
चाय वाला के हाथ चाय छानते हुये हिल रहे थे। कांपते हाथों से छनती चाय बाहर छलकने को बेताब थी लेकिन छन्नी इतनी चौड़ी थी कि चाय बाहर नहीं गिरी। कुछ इसी तरह से जैसे किसी समूह में कुछ सदस्य छिटककर भागने को हमेशा बेताब रहते हैं लेकिन दल के बड़े दिल वाले लोग उनको थामे रहते हैं। छिटकने नहीं देते।
चाय पीने के बाद पैदल पुल से बाहर लौटे। 150 साल पुराने पर गुजरते हुये सोचा, जब से बना होगा तब से अरबों-खरबों लोग इस पर से गुजर चुके होंगे। हम भी उनमें से एक बने आज।
पुल के मुहाने पर ही एक महिला पान मसाला बेंच रही थी। आगे कुछ लोग सोते भी दिखे। एक आदमी एकदम रेलिंग से सटा सो रहा था। फ़ोटो खींचने पर कुनमुनाते हुये जगा लेकिन बोला कुछ नहीं। बताया दिन में घंटाघर निकल जाते हैं। रात को वहीं सो जाते हैं या कभी इधर आ जाते हैं। इसके बाद करवट बदलकर फ़िर सो गया।
बगल के पुल से रेलगाड़ी गुजरती जा रही थी।
सामने देखा सूरज भाई आसमान पर एकदम चमकायमान थे। नीचे देखा पूरी गंगा नदी में सूरज भाई की किरणें छप्प-छैंया करते हुये खिलंदड़ी कर रहीं थीं। पानी में रगड़-रगड़ कर नहा रहीं थीं। शायद पानी को गुदगुदा रहीं हों क्योंकि पानी बार-बार हिलडुल रहा था। एक जगह तो पूरी नदी की चौडाई पर किरणों का जमावड़ा दिखा। दोनों एक-दूसरे की संगत में खिलखिल कर रहे थे। खिलखिला रहे थे।
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