कल Sushil Siddharth जी ने ’ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान’ की घोषणा की। सुशील जी पहले भी कई बार कई इनाम घोषित कर चुके हैं। वलेश सम्मान की घोषणा 'गोपाल चतुर्वेदी' जी को देने के लिये की। गोपाल जी ने फ़ौरन मना किया तो सुशील जी फ़ौरन उसे निरस्त कर चुके हैं। गोपालजी के साथ Indrajeet Kaur के लिये भी घोषित किया था उन्होंने मना नहीं किया लेकिन गोपाल जी के मना करने के साथ उनका स्वत: ही निरस्त हो गया। गेंहूं के साथ घुन पिसना इसे ही कहते हैं शायद।
अब इस बार ’ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान’ की घोषणा हुई। ज्ञानजी बिना शक हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ रचनाकार हैं। आज के सबसे अग्रणी व्यंग्यकारों में हैं। लेकिन उनके नाम से इनाम की घोषणा सुनकर कुछ अटपटा लगा।
अटपटा इसलिये कि किसी के नाम पर सम्मान उसके स्मृतिशेष होने पर दिये जाने का चलन है। जबकि ’हम न मरब’ के रचनाकार ज्ञान जी को अभी कई कृतियां देनी हैं हिन्दी साहित्य को।
मध्यप्रदेश में 'लता मंगेशकर सम्मान' दिया जाता है। लता जी उनमें से आज तक कभी गयीं
पता नहीं इस इनाम में ज्ञान जी की सहमति है कि नहीं? अगर है तो यह उनकी पुरस्कारों के मामले में फ़िर एक गलती की तरह सामने आयेगी। उन्होंने अपने मित्र समर्थ लेखक अंजनी चौहान को कोई इनाम दिलाने की मंशा से लालित्य ललित के लिये सम्मान देने की स्वीकृति की थी। जिसे बाद में हल्ला मचने पर उन्होंने उसे अपनी गलती माना और अपने को मैला ढोने वाला लेखक बताया।
सुशील जी ने अगर यह इनाम अपनी तरफ़ से घोषित किया है तब मुझे कोई एतराज नहीं है। वे ज्ञान जी को ’व्यंग्य का देवता’ मानते हैं। देवता को खुश करने के लिये किये गये तमाम प्रयासों में से यह एक प्रयास है तब भी कोई एतराज नहीं। वैसे देवताओं के नाम पर मंदिर बनाये जाने की परंपरा है अपने यहां। इनाम वाली परंपरा नई शुरुआत है। व्यंग्य का नया तेवर है यह। इसमें करुणा की घनघोर अन्तर्धारा धारा बह रही है।
अगर सुशील जी ने ज्ञान जी को अपना गुरु मानते हुये इस इनाम की घोषणा की है तो उनका ’श्रीलाल शुक्ल जी स्मृति सम्मान’ देने का पहला कर्तव्य बनता है। 15 हजार रुपये इनाम भी बहुत कम हैं भाई। लेकिन अगर देना ही है तो इनाम के पैसे कुछ ज्यादा करो भाई। हिन्दी व्यंग्य संसार इतना भी दरिद्र नहीं कि ज्ञान जी के सम्मान के नाम पर सहयोग न कर सके।
बातें बहुत हैं। वह फ़िर कभी लेकिन यह व्यंग्य का मजेदार पहलू है। ज्ञान जी की इस पर प्रतिक्रिया क्या है यह पता नहीं चली। वैसे भी ज्ञान जी आम तौर पर अपने पत्ते देर से खोलते हैं। तसल्ली से तौलकर प्रतिक्रिया देते हैं।
मेरा कोई विरोध तो नहीं ’ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान’ से। लेकिन इसके पीछे मंशा सस्ते में मठाधीश बनने की लगती है। देवता को मंदिर से निकालकर उसको झंडे की तरह फ़हराने की लगती है। एक समकालीन श्रेष्ठ व्यंग्यकार पर कब्जा करने की कोशिश की लगती है। एक बहुत बड़े लेखक को 15000 रुपये की बाउंड्री बनाकर उसमें कैद करके बैठा देने की लगती है।
ज्ञान जी का वास्तविक सम्मान करने के लिये मेरी समझ में उनके लिखे पर खूब सारी बातें होनी चाहिये। उनके लेखन के विविध आयामों पर चर्चा होनी चाहिय।
यह बातें इसलिये लिखी क्योंकि ज्ञान जी मेरे प्रिय लेखकों में से एक हैं। हालांकि दुनिया उन्होंने मुझसे ज्यादा देखी है लेकिन फ़िर भी मुझे लगता है कि जिस बात से उनका सम्मान कम होने की बात लगे उसको मुझे साफ़ बताना चाहिये। वे मेरे प्रिय हैं, आदरणीय हैं । देवता नहीं।
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