कल एक मित्र से बात हो रही थी। उन्होंने पूछा –’ तुम्हारे उधर का मौसम कैसा है?’
हमने कहा – आशिकाना।
यह कल की ही बात नहीं। हमसे कोई भी मौसम के बारे में पूछता है हमारा जबाब हमेशा एक ही रहता है- आशिकाना। मौसम बदलता रहे उसकी बला से। भीषण गर्मी पड़ रही हो। भयंकर लू चल रही हो। भद्दर जाड़ा पड़ रहा हो। दांत के साथ शरीर भी किटकिटा रहा हो। लेकिन हमसे मौसम की जब भी किसी ने बात की हमारा जबाब हमेशा एक सा ही रहा - आशिकाना।
यह कुछ ऐसा ही है कि भले ही अमेरिका कहीं भी बम बरसा रहा हो। किसी देश को तबाह कर रहा हो। आतंकवादियों को हथियार मुहैया करा रहा हो लेकिन जब भी उसकी नीतियों की बात चलेगी वह बयान जारी करेगा-’अमेरिका शांतिप्रिय देश है।’
एक तरह से सही ही कहता है अमेरिका भी। जब सब लोग मर खप जायेंगे तो हल्ला कौन मचायेगा। परसाई जी भी लिखते थे- “अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं। बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है, सभ्यता बरस रही है।“
हमने एकाध बार सोचा भी कि हमको हर मौसम ’आशिकाना’ ही क्यों लगता है। कारण समझ में नहीं आया। एक मित्र ने अपनी राय बताई –’ जिसको जो सुविधा हासिल नहीं होती वह उसका हल्ला मचाता रहता है। तुम शायद आशिकी से महरूम रहे इसलिये उसका नाम लेकर काम चलाते हो। सींकिया लोग ही अपनी पहलवानी के किस्से सुनाते हैं। साहब के चैम्बर में डांट खाकर निकले लोग बाहर सबको बताते हैं-’ आज हमने साहब को कस के हड़का दिया।’
हम मित्र की बात का क्या जबाब देते? कहते खूब आशिकी किये हैं तो फ़र्जी किस्से सुनाने पडते। उसमें भी दोहरा नुकसान। पहले तो हमारा ’शराफ़त इंडेक्स’ फ़ौरन कम होता। इश्क करना खराब माना जाता है न अपने यहां। इसके बाद जब किस्सों का झूठ सामने आता तो और बवाल होता।
लेकिन बात बदलते मौसम की हो रही है। आजकल मौसम इतनी तेजी से बदलने लगा है कि बेईमान से भी ज्यादा बेईमान हो गया है। बरसात का मौसम निकल जाता है पानी नहीं बरसता नहीं लेकिन अचानक जाड़े में धुंआधार हो जाता है। इसके अलावा पहले मौसम समाजवादी टाइप होता है। पूरे शहर में एक सा मौसम। अगर भन्नानापुरवा में धूप खिली है तो बांसमंडी में भी कपड़े सुखाने के डाल दिये जाते थे। अगर अफ़ीमकोठी में बारिश हो रही है तो ये नहीं हो सकता था कि गन्देनाले में छतरियां न खुलीं हो। मतलब सब जगह एक सा मौसम होता था।
लेकिन आजकल अक्सर ऐसा नहीं होता है। पता चलता है चेन्नई में झमाझम हो रहा होता है उधर कश्मीर में बर्फ़ गिर रही होती है। एक ही शहर तक में भी यही नजारा दिखता है। अक्सर होता है कि आर्मापुर में पानी बरस रहा है उधर कैंट में धूप खिली होती है। मौसम का यह बदलता अंदाज खाते में सीधे सब्सिडी जाने जैसा है। आर्मापुर का आधारकार्ड बारिश के लिये रजिस्टर है तो पानी बरसा दिया कैंट का नंबर धूप के लिये जुड़ा है तो वहां किरणें खिल गईं। यह भी हो सकता है कि मौसम के पास भी पानी और धूप का स्टाक सीमित हो या सर्विस एजेंट कम हो जाते हों इसलिये एक-एक करके सप्लाई करता हो। लोग कहते हैं आदमी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करता रहता है इसलिये कुदरत भी डर-डरकर निकलती है बाहर! टुकडों-टुकड़ों में सहमते हुये। इसीलिये कहीं धूप दिखती है, कहीं बारिश।
यह तो कुदरत के नजारे हैं। मौसम कैसा भी रहे उसका असर मन पर परिस्थिति के हिसाब होता है। इस लिहाज से इधर देश-दुनिया का मौसम बड़ी तेजी से बदल रहा है। कुछ लोग बहुत तेजी से अमीर हो रहे हैं, बहुत ताकतवर हो रहे हैं, सारी खुशियां कुछ लोगों तक सिमटकर रह गयीं हैं। संतुलन बनाये रखने के लिये तमाम लोग बहुत तेजी से गरीब, कमजोर और बेहाल हो रहे हैं।
पहले अपराध, धतकरम और तमाम बुराईयां डरी-सहमी सी रहती थीं। सबके सामने आने में उनको उसी तरह डर लगता था जिस तरह आज एक लड़की को अकेले बाहर निकलने में लगता होगा। लेकिन आज बदलते समय में अपराध, धतकरम और तमाम बुराईयों ने सत्ता और पूंजी के साथ गठबंधन सरकार बना ली है। गुंडे, बाहुबली जो पहले पर्दे के पीछे से सत्ता की सहायता करते थे वे अब खुद सरकार बनाने लगे हैं। माफ़िया मसीहा बनकर सामने आ रहे हैं। दुर्बुद्धि, गुंडई , अराजकता अपनी तेजी से बढती ताकत के साथ न्यायबुद्धि, भलमनसाहत और सज्जनता को पटकनी दे रही हैं। सच्चाई मुंह छिपाये कहीं कोने में खड़ी है। झूठ लिपा-पुता मंच पर अट्ठहास करते हुये सम्मानित हो रहा है। जनता भौंचक्की सी इस बदलाव को देखती है। उसको झटका तब लगता है जब उसको बताया जाता है कि इस सब की जिम्मेदार वही है! उसी ने झांसे में आकर अपनी बदहाली का इंतजाम किया है!
इधर मौसम बहुत तेजी से बदल रहा है।
लेकिन मौसम का बदलना भी एक शाश्वत सच है। मौसम हमेशा एक सा कहीं नहीं रहता। यह समय भी बदलेगा। पर बदलाव के लिये मौसम की मेहरबानी से ज्यादा मन की मजबूती चाहिये। रमानाथ अवस्थी के शब्दों में- ’कुछ कर गुजरने के लिये, मौसम नहीं मन चाहिये।’ या फ़िर परसाई जी के कहे के अनुसार –’ मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।’
यह तो हुई हमारे इधर के मौसम की बात ! अब आप बताइये आपके इधर कैसा मौसम है।
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