कल मंडी हाउस में चाय पी गयी। पहुंचते ही एक सर्वेरत बालक ने पकड़ लिया। किसी कंपनी में काम करता है। कंपनी की तरफ़ से सर्वे का काम मिला है। वही कर रहा है। चार-पांच सवाल थे। दस साल पहले (2007) और आज (2017) के दूध, पेट्रोल , चीनी, गैस के दाम बताये गये थे। एक आम आदमी के अनुसार हमको बताना था कि इन चीजों के दस साल बाद क्या दाम होंगे। हमने अपनी समझ के हिसाब से बताये।
अब हमसे कोई बालक मुफ़्त में कुछ पूछ जाये ये कैसे हो सकता है। हमने भी पूछना शुरु किया बालक के बारे में। पता चला बालक बनारसी है। जौनपुर से ग्रेजुएशन किया है। पिता व्यापार करते हैं बनारस में। बालक भी करना चाहता है। पिता ने कहा - ’पहले अनुभव कर लो कि व्यापार कैसे किया जाता है। क्या परेशानियां होती हैं। इसके बाद करायेंगे व्यापार।’ इसी सिलसिले में अंकुर वर्मा नामराशि बालक दिल्ली में आ गया है। पिछले चार माह से सर्वे कम्पनी में काम करता हुआ व्यापार के लिये खुद को तैयार कर रहा है।
पूछने पर बालक अपने बारे में बताता है। खाना बहुत अच्छा बनाता है। घर से आने के बाद मम्मी को परेशानी हो गयी है कि खाना बनाने वाला बालक दिल्ली चला गया। यहां दोस्तों के साथ साझे में रहता है। खाना साथ बनाता है। कंपनी करीब पंद्रह हजार देती है महीने के। ट्रान्सपोर्ट एलाउन्स मिलाकर। दिन में करीब 25 सर्वे करने होते हैं। दोपहर तक 12-13 कर चुका था।
बातचीत के दौरान खूब बाते हुईं। हमने पूछा - ’दिल्ली में कोई सहेली बनी कि नहीं?’ बालक ने बताया - ’नहीं ।’ हमने पूछा - ’क्यों ? सर्वे कम्पनी में तो कई बालिकायें भी होंगी।’
बालक ने बताया -’ हमको लड़कियों से बात करने में संकोच होता है। इसलिये अभी तक कोई बालिका-सहेली नहीं बनी।’
हमने कहा -’ संकोच कैसा? जैसे हमसे पर्चा भरवाया वैसे किसी बालिका से भरवाओ फ़िर बात करो। संकोच कम होगा।’
’लेकिन पर्चा भरवाने और बात करने में अन्तर है’- बालक ने अपनी समस्या जाहिर करते हुये कहा।
बालक से बतियाते हुये हमने आलोक पुराणिक को फ़ोन किया। फ़ोन करते ही बगल से ही गुजरते हुये आलोक पुराणिक पलटकर मिले। मल्लब फ़ोन न करते तो आगे निकल जाते।
आलोक पुराणिक ने भी अंकुर का सर्वे पर्चा भरा। बालक को बालिकाओं से बतियाने के टिप्स दिये। बालक दूसरे सर्वे करने चला गया। हम लोग मंडी हाउस टहलने लगे। थोड़ी देर बाद ही वहां कमलेश पाण्डेय आ गये। फ़िर दो घंटे गप्पाष्टक हुआ। चाय-साय पी गयी। मजे-मजे में बतियाते हुये व्यंग्य और व्यंग्यकारों पर बात-चीत हुई।
एक बात मठाधीशी पर भी हुई। आलोक पुराणिक ने हमको नवोदित मठाधीश बताते हुये फ़ोटो वायरल कर दी। हमने मना नहीं किया। कर दो।
मठाधीशी पर बात करते हुये एक मजेदार बात निकलकर सामने आयी कि हर तीसरे दिन कोई न कोई व्यंग्यकार मठाधीशी की खिल्ली उड़ाते हुये कोई पोस्ट लिखता है। ऐसी पोस्ट्स को लगभग सभी लोग पसंद करते हैं और मठाधीश/मठाधीशी की निन्दा करते हैं। तो सवाल यह उठता है कि जब सब लोग मठाधीशी के खिलाफ़ हैं, मठाधीश की निन्दा करते हैं तो यह ससुरा मठाधीश है कौन? क्या मठाधीश एलियन है?
इस पर आलोक पुराणिक ने अपना नजरिया पेश करते हुये करता हुआ कि जहां एक से अधिक व्यक्ति जुट जाते हैं वहीं मठ बन जाता है और उनमें से हर व्यक्ति कोें मठाधीश कहा जा सकता है। अपनी बात की पुष्टि करते हुये उन्होंने बताया - ’जैसे हम तीन लोग यहां चबूतरे पर चाय पीते हुये बैठे हैं तो यह अपने आप में एक मठ है।’
इस लिहाज से देखा जाये तो हर व्यक्ति अपने में मठाधीश है और अपने हिसाब से अपनी विधा की रेढ मार रहा है। इसका विस्तार किया जाये तो कहा जा सकता है कि जब भी मठाधीशी के खिलाफ़ कोई कुछ लिखता है तो वस्तुत: वह अपने खिलाफ़ लिखता है।
इस बीच कई लोगों ने हम फ़ुटपाथिया लोगों से मंडी हाउस, एनएसडी आदि के पते पूछे। हमने तुरन्त बता दिया। कुछ छिपाया नहीं। हम छिपाने में नहीं, बताने में यकीन रखते हैं।
और बहुत सी बातें हुईं। लेकिन वह फ़िर कभी। अभी तो दफ़्तर निकलना है अपन को। इसलिये फ़िलहाल इतना ही। बुराई-भलाई के बारे में जानना हो तो अलग से संपर्क किया जाये।
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