धूप में 'हर हर गंगे' करता परिवार। हाथ में कैथा लिए बच्ची। |
शुक्लागंज पुल पर पहुंचकर देखा कि गंगा जी तसल्ली से बह रही थीं। एकदम वीकेन्ड मूड में। एक तरफ़ कुछ लोग नहा रहे थे। नावें खरामा-खराना चल रहीं थी। पुल पर सवारियां आ-जा रहीं थीं। एक आदमी साइकिल के हैंडल पर अपने बच्चे को लिये चला जा रहा था। जब तक कैमरा सटायें , वह सर्र से निकल गया बगल से।
गंगा के तट पर जाने के लिये नीचे उतरने की सोचते रहे कुछ देर। फ़िर इरादा पक्का बनाया। सड़क से उतरकर नीचे आये। उसके बाद और नीचे जाने के लिये कुछ दूरी तक पक्की सीढियां थीं। उसके आगे कच्चा रास्ता। आसपास के लोगों ने उन सीढियों पर मूत्रदान करके रास्ते को अगम्य बना दिया था।
हम बगल के बने घरों के साथ के रास्ते आगे बढे। एक घर के बाहर एक आदमी चारपाई पर बैठा चिल्ला रहा था-’माचिस लाओ।’ एक बच्ची ने हल्ला तेज किया- ’पापा के लिये माचिस लाओ।’ एक और बच्ची लपकती हुई आई और माचिस थमाकर धूप में खड़ी हो गयी। आदमी ने इत्मिनान से सिगरेट सुलगाई। मोबाइल में गाना सुनते हुये सिगरेट-सुट्टा लगाने लगा। उसके चेहरे पर हर फ़िक्र को धुंये में उडाने का इश्तहार चस्पा था। मोबाइल पर गाना बज रहा था - ’हवा में उड़ता जाये, मेरा लाल टुपट्टा मलमल का।’ गाना सुनकर गंगा की लहरें हल्का-हल्का थिरकते हुये बह रहीं थीं।
पापा और उनके बच्चे धूप में ’हर हर गंगे’ कर रहे थे। एक बच्ची कैथा लिये खड़ी थी। कैथा ऊपर से दो फ़ांक हुआ था। जवान कैथे के अंदर से सफ़ेद गूदा बाहर झांक रहा था। गोले के आकार के कैथे देखकर स्कूल के दिनों में गोले के हिस्सों के आयतन और पृष्ठ क्षेत्रफ़ल निकालने के दिन याद आ गये। लेकिन फ़ार्मूला अचानक याद नहीं आया। इस्तेमाल न करने पर चीजें बिसराने लगती हैं।
एक बच्ची वहीं दूसरे बच्चे को चारपाई पर लेटाये हुये कपड़े पहना रही थी। संयुक्त परिवारों में बच्चे बचपन से ही बड़े होना सीखने लगते हैं। एक दूसरी बच्ची कटोरी में गाजर का हलवा निपटा रही थी। पता चला कि बच्चों के पापा हलवाई का काम करते हैं। काम का ठेका लेते हैं। जो बनाते हैं बच्चों के लिये ले आते हैं।
बात करने पर पता चला कि भाई जी मधुबनी के रहने वाले हैं। यहां आकर रह गये। गंगा किनारे की कुठरियां खाली मिली टिक गये। हमने मधुबनी पेंटिंग की बात करते हुये आगे बतियाना चाहा तब तक वे फ़ोनियाने लगे। हम पेंटिंग और उनको वहीं छोड़कर आगे बढे।
पगडंडी से नीचे उतरते हुये देखा एक बुढिया धूप में कंघी से अपने बाल काढ रही थी। बाल उलझे हुये थे शायद इसलिये झटक-झटककर सुलझा रही थी। वहीं दो बच्चे झाड़ियों में अपनी खोई हुई गुल्ली खोज रहे थे। डंडा बगल में धरा था। बताया कि जोर से मारा तो यहां कहीं आकर गिरी। खुद बनाई थी। कुछ देर तक हम भी खोजने में मौखिक सहायता करते रहे। फ़िर निकल लिये।
रेल की पटरी किनारे जिंदगी |
गंगा किनारे लोगों के खुले में निपटने की निशानियां जगह-जगह छितराई हुई थीं। मीडिया में खुले में निपटने के खिलाफ़ रोज विज्ञापन के बावजूद नदियों के किनारे के लोग नदी किनारे ही निपट रहे हैं। क्या पता कल कोई ’निपटान घोटाला’ सामने आये और अलग-अलग दल बयान देते हुये हल्ला मचायेंं -’ये हमारे समय का नहीं है।’ क्या पता कोई ’कार्बन डेटिंग’ तकनीक निपटान की उमर तय करे। हो तो यह भी सकता है कि कोई निपटान को संबंधित आदमी से लिंक करने की कोई तकनीक निकाल ले और निपटने वाले पर जुर्माना ठोंकने की सिफ़ारिश कर दे। फ़िर कोई दल ’निपटान जुर्माना’ माफ़ करने का वादा करते हुये चुनाव लड़े और बड़ी बात नहीं कि जीत भी जाये।
धूप में एक आदमी बैठा हुआ कुछ मंत्र बुदबुदा रहा था। बुदबुदाते हुये बालू में ’कटटम-कट्टा’ के निशान बनाता जा रहा था।
आगे घाट पर एक मछुआरा जाल से मछली निकालते हुये नाव में डालता जा रहा था। कुछ मछलियां जिन्दा थीं। नाव में डाले जाने पर फ़ड़फ़ड़ाते हुये कुछ देर में शांत हो जातीं। एक मछली पानी में शांत थी लेकिन नाव में रखते हुये कुछ हिली-डुली। उसने पानी में डालकर जांचा कि जिन्दा है क्या? लेकिन वह पानी में हिली नहीं। उसने उसको ’मर गई’ कहकर निस्पंद भाव से उसको नाव में डाल दिया।
नदी में पानी कम हो गया था। एक बोला - ’पैदल पार जाते आदमी को देखा हमने अभी। ’ नाव वाले ने बताया गंगा बैराज में रोक लिया गया है पानी। वहां गेट खोल दें तो अभी भर जाये यहां। दुष्यंत कुमार ऐसे ही थोड़े कहें हैं:
"यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा।"
हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा।"
घाट किनारे चबूतरों/तख्तों पर बैठे हुये लोग ताश खेल रहे थे। कोटपीश टाइप का खेल। साथ में बाजी भी लगाते जा रहे थे। छोटा जुंआ चल रहा था। बगल में एक आदमी गत्ते का टुकड़ा लिये हिसाब नोट करता जा रहा था किसने कित्ते की बाजी लगाई। कोई तुरुप का पत्ता फ़ेंककर किसी के पत्ते को काटते हुये ऐसे तेज पटकता पत्ते को कि लगता अब गया तख्त।
लौटते हुये एक तख्त पर दो कुर्सियां बंधी देखीं। लगा ये अपने लड़ाई-भिड़ाई करके जीतकर आने वालों के इंतजार में बुढी गईं हैं। गांव-घरों में कमाई-धमाई के लिये परदेश जाने वालों के घरों की स्त्रियों अपने पतियों के इंतजार दिन बिताती महिलाओं सरीखी कुर्सियां। बचपन में शादी होकर बुढापे तक उन पतियों का इंतजार करती महिलाओं जैसी भी जिनके पति शहर में पढलिखकर अपने हिसाब से दूसरा घर बसा लेते हैं।
लौटते हुये एक दुकान में चाय पिये। एक औरत दूसरी से गुस्साते हुये कह रही थी- ’ हमारा आदमी मर गया और उसने हमको खबर तक नहीं दी। हम उसके दरवज्जे मूतने तक न जायेंगे। हमारे बच्चे अनाथ हो गये।’ गुस्साते-गुस्साते वह महिला रोने लगी। उसके साथ शायद उसका बच्चा उसके कन्धे सहलाता हुआ उसको चुप कराने की कोशिश करा रहा था। अनाथ हुए बच्चे अचानक बड़े हो जाते हैं।
कुछ बच्चे खेलने के लिये बीच सड़क पर स्टंप लगाने का जुगाड़ देख रहे थे। पप्पू चाय वाले के पास से गुजरे तो उसने बताया कि दिन पर दिन धंधा मंदा होता जाता रहा है। अंदर कैंटीन खुल गयी है इसलिये लोग यहां कम आते हैं।
हमको लगा कि ऊर्जा संरक्षण के नियम की तरह ’रोजगार संरक्षण’ का भी नियम होता होगा। दुनिया में कुल रोजगार की मात्रा नियत है। एक जगह रोजगार मिलता है तो दूसरी जगह छिनता भी होगा।
कहां-कहां की बातें करने लगे हम भी सुबह-सुबह। यह बात तो इतवार की है। अब तो मंगलवार हो गया। बोल बजरंगबली की जय।
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