पहली बरसात में धुला घर का लान |
आखिर पानी यहां भी बरसा। पूरे महीने तरसाने के बाद झमाझम हुई। किसी दफ्तर में होता बादल तो आते ही दौड़ा लिया जाता। कोई कड़क अफसर होता तो बिना अनुमति अवकाश लेने पर 'निलंबित' कर देता भले ही फिर ऊपर से दबाब आने पर कुछ ले देकर बहाल कर देता।
बादल की देरी से खफा लोगों ने उसके आते ही मुस्कराकर खुश होकर स्वागत किया। बादलों ने आते ही अनगिनत झोपड़ियां उजाड़ दीं। तमाम खुले घरों को और खोल दिया। तबाह हुए लोगों को और तबाह कर दिया। यह सब देखकर कोई ऊंचा लेखक होता तो शायद फूहड़ रूपक बांधता -'.... लोगों ने देर से आए आये आवारगी करते , उत्पाती बादलों का उसी तरह स्वागत किया जिस तरह माननीय लोग दंगाइयों का स्वागत करते हैं।'
लेकिन हम इन सब चोंचलों में क्यों पड़े। जिसकी जो मर्जी वो वो करे। लोकतंत्र में सब छूट है।
पहली खेप पड़ते ही कुत्तों ने भी बादलों का भौंक-भौंक कर स्वागत किया। धीमे-तेज आवाज में उतार-चढ़ाव के साथ भौंकते हुए कुत्ते सबका ध्यान अपनी तरफ खींचने पर पूरा जोर लगाए थे। जो कुत्ते दमे के कारण जोर से भौंक नहीं पा रहे थे वे भौं का ही आलाप ले रहे थे। एक जगह चार-पांच कुत्ते गोल घेरे में खड़े भौंक रहे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोल रहे थे लेकिन एक दूसरे पर, बिना काटे, जिस तरह भौंक रहे थे उससे एक बारगी मुझे लगा कि मैं सड़क पर चलने के बजाय किसी चैनल पर प्राइम टाइम बहस देख रहा हूँ। लेकिन अगल-बगल की हार्नबाजी ने मुझे कुछ देर में कुत्तों के चुप हो जाने से कन्फर्म हुआ कि यह कभी न खत्म होने वाली प्राइमटाइम बहस नहीं है।
सड़क पर लोग भीगते हुये और भागते हुए चले जा रहे थे। कम भीगे लोग तेजी से चल रहे थे। पूरा भीगने से बचने की मंशा से। लेकिन जैसे ही वे पूरा भीग जाते आराम से चलने लगते। पूरा भीगा हुआ आदमी सब कुछ लुट चुके आदमी जैसा हो जाता है। कुछ बचा ही नहीं भीगने से तो काहे को डरना बादल से और बरसात से।
एक आदमी साइकिल पर चला रहा था। कमीज के नीचे बनियाइन नहीं पहने थे। कमीज पानी में भीगकर पीठ पर चिपक गयी थी। कोई हीरोइन इस तरह बिना बनियाइन के सड़क पर चिपकी हुई कमीज की शूटिंग के लाखों करोड़ों ऐंठ लेती। फोटो, वीडियो वायरल होता सो अलग। लेकिन उस आम आदमी की पीठ पर चिपकी हुई कमीज का सीन हमारे अलावा किसी ने नोटिस भी नही किया।
उसकी कमीज भीग कर पीठ से चिपक गयी थी। लेकिन कुछ हिस्सा अभी भी पीठ पर गूमड़ की तरह उठा था। उस हिस्से में फंसी हुई हवा कमीज को उठाये हुए थी। झंडे की तरह फहराते हुए। पीठ से चिपकी हुई आधी से अधिक कमीज का चौथाई से भी कम हिस्सा अपने अंदर मौजूद हवा के बल पर तेजी से बरसते पानी का मुकाबला कर रही थी। बहादुरी का परचम लहरा रही थी। दूसरी तरफ बादल 'बूंद-बार्डिंग' करते हुए कमीज में छिपी हवा को नेस्तनाबूद करने की कोशिश कर रहे थे। साइकिल वाले के आंखों से ओझल होने तक दोनों में मुकाबला जारी था।
सड़क किनारे आम की ठेलिया पर लदे आम बरसते पानी में भीगते हुए बारिश के मजे ले रहे थे। चमकते हुए मुस्करा से रहे थे। उनको कपड़े भीगने की कोई चिंता नहीं थी। बारिश की बूंदे उन पर गिरकर उनके साथ ही घुलमिलकर आराम फरमा रहीं थीं।
नालियों के किनारे जमा कूड़ा बारिश के पानी के सहारे वापस नालियों में पहुँच रहा था। बहुत दिन तक नाली के बाहर बैठा कूड़ा बारिश की राह देख रहा था जैसे तिकडमी नौकरशाह मन माफिक अवसर देखते हैं। अवसर मिलते ही खुश होकर फिर लूट में जुट जाते हैं वैसे पानी के गले मिलते ही कूड़ा फिर खुश हो गया। कीचड़ में बदल गया। कूड़े की मात्रा थोड़ी ज्यादा थी, पानी का दम घुटने लगा। उसने बारिश के पानी से गठबन्धन किया। कीचड़ थोड़ा पतला हुआ। दोनों मिलकर तेजी से आगे बढ़े। प्रगति पथ पर अग्रसर हुए।
पुल पर तीन बच्चियां भीगती हुई चली जा रहीं थीं। आराम से। सबने एक दूसरे के हाथ पकड़े हुए थे। खुले में भीगते हुए भी सुरक्षा की सहज चिंता। हमारा भी मन भीगते हुए सड़क पर चलने का हुआ। लेकिन दफ्तर और उससे ज्यादा मोबाइल के भीगने की चिंता में हमने मन कि बात अनसुनी कर दी।मन कुनमुना कर चुप हो गया।
चौराहे पर खड़ा होमगार्ड का सिपाही फुटपाथ पर आ गया था । आड़ में खड़ा हुआ वह ट्रैफिक और बारिश को एक जैसी मोहब्बत से निहार रहा था। ट्रैफिक अपने आप आगे रुक-बढ़ रहा था।
हीर पैलेस के सामने एक आदमी छाता लिए हुए जा रहा। छाते के बावजूद वह भीग रहा था। हमको अपना ही शेर याद आ गया :
तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
भीग तो पूरा गए पर हौसला बना रहा।
भीग तो पूरा गए पर हौसला बना रहा।
साल की पहली बरसात का नजारा था यह। बाकी अगली बार बरसने पर।
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