कानपुर से चले थे तो फिलाडेल्फिया आने का कोई प्लान नहीं था। लेकिन न्यूजर्सी पहुंचते ही घनश्याम गुप्ता जी Ghanshyam C. Gupta से बात हुई तो उनके अपनापे भरे आग्रह के चलते फिलाडेल्फिया भी जुड़ गया घुमक्कड़ी के प्लान में। यह कुछ ऐसे ही हुआ कि जैसे जेड स्क्वायर तक आएं तो माल रोड भी होते चले।
रास्ते में बादल देखे। एकदम साफ। आसमान चमकीला नीला , उस पर सफेद बादल किसी खूबसूरत पेंटिग सरीखे टँगे हुए थे।
स्टेशन पर उतरने वाले कुछ और लोग भी थे। लेकिन दो मिनट बाद हम अकेले हो गए। न कोई टिकट देने वाला , न कोई चेक करने वाला। पूरा रामराज्य। और तो और स्टेशन पर घुसने का न कोई गेट न कोई बाउंड्री। सड़क से लगा स्टेशन। मतलब बिना प्लेटफार्म टिकट लिए प्लेटफार्म पर टहल सकते। आफिस में टाइमिंग लिखी थी, उसके हिसाब से ऑफिस शुक्र से इतवार बन्द रहता है। बाकी के दिनों में भी लिमिटेड समय खुलता है। यह नहीं कि अपने यहां की तरह चौबीस घण्टे खुला रहे स्टेशन।
बाहर निकलकर देखा। गाड़ियों के पार्किंग के रेट लिखे थे $2 प्रतिदिन। मतलब 60 डॉलर महीने का। बाहर गाड़ियां तेजी से आ-जा रही थी। हमको लगा हमको देखते ही गाड़ियां तेज हो गयी इस डर से कि कहीं उनसे लिफ्ट न मांग लूं।
जब तक घनश्याम जी आएं तब तक स्टेशन का वीडियो बना लिया। दस मिनट बाद करीब घनश्याम जी आये। उनके साथ उनके घर की तरफ चले।
घर पहुंचते ही घनश्याम जी ने खाना गर्म किया और हम लोगों ने उसे खाया। इसके बाद उनकी श्रीमती जी से मिले। श्रीमती घनश्याम जी गणित की प्रोफेसर रहीं हैं। घनश्याम जी अर्थशास्त्र की आधी पीएचडी छोड़कर अंततः इंजीनियरिंग की तरफ आये। शायद उनका ही असर होगा कि उनके बेटे ने भी आधी पीएचडी छोड़कर नए सिरे से लाइन बदलकर मेडिकल की पढ़ाई की । अब डॉक्टर है।
बेटी पास ही रहती है।
श्रीमती गुप्ता जी को पिछले कुछ सालों से भूलने की बीमारी हो गयी है। हर छोटी से छोटी बात भी याद दिलानी होती है तब याद आती है। यहां तक कि बच्चों तक के नाम भी उनके नाम के पहले अक्षर बताने पर याद आते हैं। हाल यह है कि कभी गणित की प्रोफेसर रही श्रीमती गुप्ता बहुत साधारण जोड़ घटाने तक में असमर्थ हो गई हैं।
अपनी श्रीमती जी की देखभाल में पूरी तरह समर्पित गुप्ता जी का कहीं भी आना -जाना बाधित हो गया है। पत्नी की सेवा और उनका सुख ही घनश्याम जी के जीवन का मूल ध्येय बन गया है।
चाय पीते हुए गुप्ता जी ने किचन में रेडियो और रवींद्र संगीत का अपनी पसंद का एक गीत सुनवाया।
बाद में चाय पीते हुए घनश्याम जी ने अमेरिका की साहित्यिक गतिविधियों की चर्चा की। ई-कविता, ई-चिंतन से जुड़े रहे हैं गुप्ता जी। राकेश खण्डेलवाल जी, अनूप भार्गव जी Anoop Bhargavaऔर अभिनव शुक्ल Abhinav Shukla आदि से जुड़ी यादें साझा की।
इसके बाद घनश्याम जी ने अपनी एक कविता सुनाई -'जो होना था वह होना ही था।' कविता का वीडियो यहां लगाया है।
देखते-देखते चार बजे गए। हमने चलने की अनुमति और फिलाडेल्फिया जाने की राय जाहिर की। घनश्याम जी ने कहा-' अभी तो बहुत बातें करनी हैं। थोड़ी देर और रुको।' फिलाडेल्फिया के बारे में उनकी राय थी कि समय कम है इसलिए जाना ठीक नहीं होगा। रात हो जायेगी। पूरा दिन चाहिए फिलाडेल्फिया घूमने के लिए।
लेकिन हमको लगा कि फिर पता नहीं कब आना हो अमेरिका। इसलिए घूम ही लिया जाए फिलाडेल्फिया। इसके बाद हमने टैक्सी बुक कर ली। पांच मिनट के बाद टैक्सी आ गई। करीब चालीस मिनट की यात्रा के $ 18 करीब। साझे की टैक्सी थी यह। अकेले जाते तो करीब $ लगते । साझे में यात्रा करके अपन ने करीब $10 बचा लिये।
निकलते समय शाम हो गयी थी। अंधेरा होने लगा था। कुछ देर में दूसरी सवारी जुड़ गई। एक बच्ची थी। शायद कहीं से पढ़कर लौट रही थी। हमने उनसे बात करने की कोशिश की। लेकिन उसने हर बात का जबाब एक या दो शब्दों में देखकर बातचीत की संभावनाएं खत्म कर दीं। अपने को 'दैट्स नाइस' 'ओके' 'थैंक्यू' आदि शब्दों तक सीमित रखा।
तीन दिन के प्रवास में मैंने देखा कि आम अमेरिकी अजनबी लोगों से मिलना-जुलना पसन्द नहीं करता। अपने को औपचारिक व्यवहार तक सीमित रखता है। काम की बात के बाद 'सी यू बाय।'मांगने पर सहायता देगा। लेकिन उसके बाद जय राम जी की। बिना किसी मतलब केज्यादा घुलने-मिलने में रुचि नहीं दिखती आम अमेरिकी की।
सड़क पर गाड़ियों की भीड़ थी। बच्ची ने राय जाहिर की अगर ड्रॉइवर शहर में गाड़ी चला रहा होता तो उसको ज्यादा कमाई होती। इस पर ड्रॉइवर ने कहा कि वह शहर में ज्यादा कमाई के बजाय लम्बी दूरी की सवारियां लेना ज्यादा पसंद करता है।
शाम को सवा छह बजे के करीब हम वहां पहुंच गए जहां हमें पहुंचना था।
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