आज (कल) सुबह उतर गए अमरीका। दो घण्टे देरी से चले दिल्ली से। दो घण्टे लेट पहुंचे अमरीका।
उतरते हुए एयरपोर्ट भारतीय एयरपोर्ट जैसा ही दिखा। वैसी ही सड़कें, वैसी ही घास। कुछ बहुत नहीं दिखा खास।
हम टर्मिनल 4 पर उतरे। पता चला इस तरह के आठ टरमिनल हैं न्यूयार्क में। एयरइंडिया की उड़ान ज्यादातर इसी टर्मिनल पर आती है।
उतरे तो पहुँचे इम्मीग्रेशन के लिए। अमरीका आ तो गए लेकिन अंदर घुसने की अनुमति के लिए इम्मीग्रेशन से निकलना जरूरी। कितने तो किस्से सुने थे कि शाहरुख खान को रोक लिया, कलाम साहब के जूते उतरवा लिए। किसी को रोक लिया, किसी को एयरपोर्ट से लौटा दिया। हमको भी लगा कहीं हमारे साथ भी ऐसा न हो जाये। अमेरिका घूमने की बजाय कहीं हम भी प्रमुख समाचार न होकर रह जाएं।
पहुंचकर पासपोर्ट मशीन में घुसाकर इन्ट्री कराई। कुछ सवाल पूछे कम्प्यूटर ने। हमने टाइप करके जबाब भरे। फ़ोटो खिंचाने के लिए कहा तो हम बैठ गए मशीन के सामने। फोटो आई तो थोबड़ा आधा कट गया था। लेकिन जो भरा उसका प्रिंट आउट ठीक आया था।
हमारे बाद श्रीमती जी का भी भरा पर्चा हमने। कहीं अटके तो वहां मौजूद कर्मचारी ने भरकर निकाल दी पर्ची।
पर्ची निकालने के बाद लाइन में लग गए। हर वीजा के यात्री का पांच मिनट करीब इंटरव्यू हो रहा था। हमसे पहले दो लोगों को कुछ और पूछताछ के लिए दूसरा अधिकारी ले गया।
हमारा नम्बर आया तो हमसे भी पूछताछ हुई। हमने बताया। किसलिए आये, कहां जाना आदि बताया। बेटों के बारे में बताया तो ख़ुशी जाहिर की पुलिस अधिकारी ने कि बढ़िया जगह काम करते हैं। फिर अपनी बिटिया के बारे में बताया कि वह छह साल की है और कहती है कि उसको डाक्टर, इंजीनियर, वकील नहीं बनना है। उसको तो केवल एक्टर बनना है।
हमने भी खुशी जाहिर कर दी बिटिया के लिए कि बढ़िया है बिटिया अपनी मर्जी से सफल हो। खुशी जाहिर करने और तारीफ में न देरी ठीक न उधारी।
इम्मीग्रेशन में न कोई सामान चेक किया गया, न कोई जूते ,कपड़े देखे गए। अमेरिकन इम्मीग्रेशन के बारे में फालतू का हल्ला दिमाग में भरा था, वह वहां से निकलते ही निकाल दिया।
5 नवम्बर को पहुंचे अमेरिका। पासपोर्ट में लिखा गया आये 5 नवम्बर, 2019 को। रहने की मियाद 4 मई, 2020 तक। लेकिन हमको तो पहले ही निकल जाना है।
बाहर निकल कर सामान समेटा। ट्राली लेने के लिये बढ़े आगे तो देखा कि सामान लादने के लिए ट्राली का का किराया 6 डॉलर। 6 डॉलर मतलब 430 रुपये करीब। हमने कहा अरे छोड़ो। ट्राली के 6 डॉलर देने लगे तो हो चुकी घुमाई। हमने बैग लादा पीठ पर। दो बैग थामे श्रीमती जी ने। इसके बाद दोनों बड़ी अटैची रोलर पर लुढ़काते हुए बाहर आ गए।
बचाया हुआ पैसा कमाए हुए पैसे के बराबर होता है अगर इस कहावत को सही माना जाए तो अमेरिका में घुसते ही हमने 6 डॉलर कमा लिए।
वैसे अगर इस लिहाज से देखा जाए तो अपन ने 25 डॉलर भी बचाये। वह इस लिहाज से कि वहां सामान बाहर तक पहुंचाने के लिए कुली की भी व्यवस्था थी। 25 डॉलर में। लेकिन हमारे सामने उस सुविधा का उपयोग करते कोई दिखा नहीं। वहां कुली भी एक ही मौजूद था।
बाहर सौरभ Saurabh हमारा इंतजार कर रहे थे। हम उनकी गाड़ी में बैठकर चल दिए न्यूजर्सी की ओर।
(पोस्ट लिखी गयी न्यूजर्सी के समय के हिसाब से 6 नवम्बर को सुबह 0052 बजे। भारतीय समय के हिसाब से सुबह के 11बजकर 22 मिनट पर)
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