सुबह अभी हुई ही थी। सड़क के दोनों तरफ पेड़ कोहरे को कम्बल की तरह ओढ़े ऊंघ रहे थे। गाड़ी पेड़ों को गुस्से से देखती हुई बड़बड़ाती जा रही थी -' इन आलसियों को सोने से ही फुर्सत नहीं। ये नहीं कि उठकर जरा हिलें-डुलें। हवा बहाएं। '
गाड़ी के नथुनों से गुस्से का धुंआ निकल रहा था। जिस तरह राजनीतिक पार्टिंयां जेल से छूटे किसी बाहुबली को लपक कर अपनी पार्टी में शामिल करके जनता की सेवा के लिए चुनाव का टिकट दे देतीं हैं उसी तरह आसपास की हवा ने गाड़ी से निकले धुंए को लपककर अपने में मिला लिया।धुंआ ठंडा हो गया। हवा गरम हो गयी। दोनों को सुकून मिला।
सड़क के किनारे के ढाबे बन्द थे। शायद देर से खुलेंगे। अमेरिका के ढाबों की तरह। केवल ढाबों के खुलने के समय की तुलना करके अमेरिका के बराबर हो जाना कित्त्ता आसान और कम खर्चीला है। कुछ ऐसा ही है यह जैसे बहुत लोग महापुरुषों की केवल खराब आदतों की फूहड़ नकल करके उन जैसा होने का एहसास पालते हैं।
चाय पीने की मंशा पूरी हुई सड़क किनारे एक खुले रेस्टोरेंट में। रेस्टोरेंट का नाम 3 K फेमिली रेस्टोरेंट। 3 K के बारे में जिज्ञासा हुई। यह क्या। पता चला कि 3 के का मतलब है - 'कूल कृपाल कार्नर।' हो सकता है कुल कृपालु कॉटेज हो। हमको ढाबे वाले न कूल कृपाल ही बताया। एक ट्रस्ट चलाता है यह रेस्टोरेंट। ट्रस्ट में गुरु जी हैं, ढेर जमीन है, 8 ब्लॉक वाले 1600 कमरों में ठहरने की व्यवस्था है। शायद स्कूल कालेज भी। मतलब जलवेदार ट्रस्ट है।
रेस्टोरेंट पर चाय बन रही थी। पूछकर तुलसी की पत्ती भी डाल दी बालक ने। चाय खौलने लगी। कुल्हड़ खत्म हो गए तो कागज में ग्लास में थमा दी चाय। ऊपर तक भरी ग्लास को पकड़ना मुश्किल। हमने पानी मांगा। कागज के बड़े ग्लास में पानी पीकर चाय उसी में उलट ली। ग्लास में काफी जगह बची थी अभी। उसमें और चाय डलवा ली। दस रुपए के ख़र्च में 18 रुपये की चाय हथिया ली। जुगाड़ बुध्दि से 8 रुपये का फायदा लूट लिया।
चाय पीते हुए ढाबे वाले से बातचीत में पता चला कि रेस्टोरेंट बहुत चलता था। लाइन लगती थी अंदर आने के लिए। गुरु जी के न रहने के बाद व्यवस्था चौपट हो गयी। अब अधिकार और नियंत्रण के झगड़े निपट गए हैं। व्यवस्था फिर सुधर रही है।
भट्टी के पास ही एक लड़का गीले आलू काट रहा है। छोटे-छोटे चौकोर टुकड़े। समोसे के लिए। हमने पूछा -'ये छिलके सहित क्यों काट रहे आलू?' हमको लगा कि शायद वह कहे कि छिलके में विटामिन होता है। लेकिन उसने हमको निराश किया। बोला -' समोसे के आलू ऐसे ही कटते हैं।' उसका आत्मविश्वास देखकर लगा कि अगर उससे कोई पूछता -'आजकल राजनीति में अपराधी क्यों आते हैं ?' तो उसका तुरंता जबाब होता -'राजनीति में ऐसे ही चलती हैं।'
राजनीति की बात से हमको रामेंद्र त्रिपाठी जी के गीत की पंक्तियां याद आ गईं:
'राजनीति की मंडी बड़ी नशीली है
इस मंडी ने सारी मदिरा पी ली है।'
समय बिताने के लिए करना है कुछ काम की तर्ज पर हमने ढाबे वाले से पूछा -'संडीले के लड्डू किसलिए प्रसिद्ध हैं? '
'अलग तरह से बनते हैं लड्डू यहां। गोंद और तमाम चीजें डालकर। ' --ढाबे वाले ने अपनी पूरी जानकारी हमारे सामने उड़ेल दी।
उसकी दी हुई जानकारी गूंगे के गुड़ समान थी। हम उसी को समेटकर आगे बढ़ गए। नखलऊ पहुंचे। जहाज पकड़ा। कोलकता आ गए।
अभी कलकत्ता सुबह की नींद ले रहा है। कोई हलचल नहीं। कोई कुनमुनाहट नहीं। सड़क अलबत्ता जग गयी है। उस पर इक्का-दुक्का गाड़ियां आती-जाती दिख रही हैं। इमारतों के ऊपर से सूरज भाई झांक रहे हैं। लेकिन इमारतें उनसे बेखबर निठल्ली नींद में सोई हई हैं। सूरज भाई भी बेचारे बने उनके जगने का इंतजार कर रहे हैं।
अब उठ ही लिया जाए। सुबह हो रही है भाई।
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