Wednesday, April 29, 2020

रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है

 


कोरोना काल में सब कुछ ठप्प सा है। शहरों पर लाकडाउन का कब्जा है। लोग घरों पर रहने को मजबूर हैं। नौकरी शुदा लोगों को घर से काम करने को कहा गया है- 'वर्क फ्रॉम होम'। घर से काम करें , वेतन उनके खाते में जायेगा।

पक्की नौकरी वाले मजे में हैं। घर में अंगड़ाइयां लेते हुए नए-नए कौतुक दिखा रहे हैं। कोई गाना गा रहा है, कोई खाना बना रहा है। कोई बोरियत को सेलिब्रेट कर रहा है। कोई समाज सेवा की बात कहकर अंगड़ाइयां ले रहा है, पलक झपकाकर आंखे मूंद ले रहा है।
वर्क फ्रॉम होम के तहत साहित्य उत्पादन भी खूब हुआ। कोरोना से जुड़ी शब्दावली का उपयोग करते हुए अनगिनत कविताएं लिखी गईं, इठलाती हुई आवाजों में प्रस्तुतियां हुई, उनके संग्रह की घोषणाएं हुईं। लाकडाउन में घरों में बैठे निठल्ले लोगों ने साहित्य के नाम पर जो रचा उसमें से अधिकांश ने फूहड़ता के शिखर छुये ।कारण शायद यह रहा हो कि जिन्होंने उसे रचा उनमें से कोई कोरोना ग्रस्त नहीं था और न उनके यहां खाने की कमी थी। पेट भरा होने पर ही ऐसी बेशर्मियाँ होती हैं, जिसको लोग साहित्य का नाम दे देते हैं।
वर्क फ्रॉम होम की बात जब भी चली तब मुझे वो लोग याद आये जिनका घर ही फुटपाथ पर है, सड़क जिनका आंगन है। बन्द दुकानों के बाहर चबूतरे पर सोने वाले लोगों ने कौन सा 'वर्क फ्रॉम होम' किया होगा। रिक्शेवाले, ऑटो वाले , सड़क ही जिनका घर और घर चलाने का साधन है, वो कैसे वर्क फ्रॉम होम किये होंगें।
शहरों के तमाम चौराहों पर रोज सुबह काम की तलाश में इकट्ठा होने वाले दिहाड़ी मजदूरों, मिस्त्री, हेल्पर , रोजनदार कैसे वर्क फ्रॉम होम किये होंगे? इसका कोई जबाब नहीं सूझता। इसलिए भागकर मैं फिर अपनी दुनिया में लौट आता हूँ। 'संवेदना-शुतुरमुर्ग' हो जाता हूँ।
घास के मैदान पर धूप पसरी हुई है। अलमस्त। दीन- दुनिया, कोरोना-फोरोना से बेपरवाह। धूप का हर फोटॉन दूसरे से सटा हुआ। सामाजिक दूरी की खिल्ली उड़ाता हुआ घास में खिलखिला रहा है। धूप से चमकती घास पर एक गिलहरी फुदक रही है। घास कुतरते हुए मुंडी इधर-उधर ऐसे हिला रही है जैसे कोई साम्राज्ञी अपने इशारों से राजाज्ञाएँ जारी कर रही हो।
मन किया गिलहरी को टोंक दूं -'मास्क लगा ले, लान वाबरी, धूप-ललचही।' लेकिन उसके चेहरे पर पसरे आत्मविश्वास के हिम्मत नहीं पड़ी। बाद में ध्यान आया कि गिलहरियों के कोरोना-ग्रस्त होने की कोई खबर सुनाई नहीं दी।
मैदान के बाहर खड़े दो पेड़ बढ़ते हुए ठेढे हो गए हैं। लगता है उन पर सामाजिक दूरी बनाए रखने का दबाब उनकी पैदाइश के समय से है।
बाहर सुनसान पार्क में एक महिला सिपाही अकेली गस्त कर रही है। मोबाइल पर बात करते हुए। उसको देखते हुए ध्यान आता है कि हम मुंह पर मास्क नहीं पहने हुए हैं। फौरन ही जेब से रुमाल निकाल कर चेहरे पर कपड़े का लटकौवा त्रिभुज धारण कर लेते हैं।
पार्क में फूल खिले हुए हैं। कोरोना काल में उनको कोई नोचने वाला नहीं है। एक पेड़ जमीन की तरफ झुकते हुए जमीन चूमने की कोशिश करता दिखा लेकिन कुछ फुट की दूरी पर सामाजिक दूरी की बात याद करके ठहर गया। उसको देखकर ऐसा लग रहा था कि जमीन कि तरफ बढ़ते हुए देखकर उसको किसी ने स्टेच्यू बोल दिया हो जिसे सुनते ही वह थम गया।
पुलिया पर एक सिपाही जी हथेली पर तम्बाकू मलते हुए इधर - उधर देख रहे हैं। मोड़ पर दो मोटरसाइकिल सवार एक दूसरे की उल्टी तरफ बैठे बतिया रहे हैं। सड़क पर गुजरते हुए लोग काम पर जा रहे हैं।
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।

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Tuesday, April 28, 2020

कोशिशें अक्सर कामयाब हो जाती हैं

 


आजकल देश में कोरोना से लड़ाई के लिए पीपीई किट की बड़ी मांग है। पीपीई किट मतलब कवर आल, मास्क और फेसशील्ड। कवर आल मतलब सर पर कैप, शरीर पर गाउन और जूते के लिए शू कवर। इनमें से कोई भी हमारा नियमित उत्पाद नहीं है। लेकिन देश की जरूरत को देखते हुए हमारी निर्माणियों ने इनका उत्पादन शुरू किया। सप्लाई भी।
अब तक हमारी निर्माणियों से करीब 4 लाख मास्क और करीब 10000 कवरआल भारत सरकार के अधिकृत संस्थान HLL को सप्लाई हो चुका है। इसके अलावा लगभग एक लाख लीटर सैनिटाइजर भी भेज चुके हैं। फेस शील्ड का उत्पादन भी दमदम फैक्ट्री में शुरू हो चुका है।
कवरआल बनने के पहले जांच कपड़े और उसकी सिलाई की जांच होती है कि दोनों ठीक है कि नहीं। इसके लिए 'ब्लड पेनेट्रेशन टेस्ट' होता है। असल में कोरोना के लिए कोई अलग से पीपीई किट नहीं बनी है। इसमें भी वही किट इस्तेमाल हो रही है जो सर्जरी में इस्तेमाल होती है। इस किट में जांच होती है कि सर्जरी के समय अगर खून निकला तो सर्जरी किट ऐसी होनीं चाहिए ताकि खून आदि ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर की ड्रेस के अंदर न जाए।
इसके लिए ड्रेस का कपड़ा ऐसा होना चाहिए कि खून अगर निकले भी तो अंदर न जा पाए। कपड़े तो इस तरह के बन जाते हैं। लेकिन किस जगह से सिलाई होती है वहां से खून अंदर जा सकता है। इसके लिए सिलाई पर टेप लगाया जाता है। कपड़ा, सिलाई मशीन तो देश में बहुतायत में हैं। असल कमी सीम पर टेप लगाने वाली मशीन की हैं। ज्यादातर मशीन चीन से आती हैं या कोरिया से। सब बन्द है। इसीलिए पीपीई किट बनने में देरी होती है। सिलाई होती है 1000 किट की तो उस पर सीम लग पाती है 100 किट पर। किसी पर वह भी नहीं।
इसका उपाय निकालने के लिए हाथ से लगाने वाले टेप बनाये गए हैं देश में। लेकिन एक तो अधिक सफल नहीं हुए टेप और सफल भी हुए तो समय काफी लगता है इसमें। जितनी कुल कवरआल की कीमत उतना तो लेबर कास्ट हो जाती है।
बनाने की समस्या से पार पाने के बाद इनको टेस्ट कराना होता है। कपड़ा और सीम दोनों पास होने चाहिए टेस्ट में। दबाब में कृत्तिम खून छोड़ा सप्लाई किया जाता है टेस्ट पीस में। पहले कपड़े को पास होना होता है, फिर सीम को। दोनों में सफल होने पर ही सैम्पल पास होता है। एक कोड मिलता है जिसमें कपड़े और सीम का उल्लेख होता है। उसी के अनुसार बनानी होती है ड्रेस। उल्लेख करना होता है कोड का। कपड़ा या सीम में से कुछ भी बदलने पर नया टेस्ट कराना होता है, नया कोड लेना होता है -तब सप्लाई कर सकते हैं।
हमने ग्वालियर की लैब से आठ तरह के सैम्पल पास कराए थे। जब जो जिस तरह का सामान मांगता है, बना के सप्लाई कर देते हैं।
दो हफ्ते पहले तक पूरे देश में मात्र दो जगह पीपीई किट की टेस्टिंग होती थी। एक कोयम्बटूर और दूसरी ग्वालियर में। भयंकर भीड़ दोनों जगह। घण्टे भर की जांच के लिए कई दिन लग जाते।
देश की जरूरत देखते हुये हमारे संस्थान के महानिदेशक हरिमोहन जी ने अपने यहां ही टेस्टिंग उपकरण बनाने की योजना बनाई। रातों रात उपकरण बना आयुध निर्माणी कानपुर में। टेस्टिंग हुई। मान्यता मिली आयुध निर्माणियों की लैब को। इसका परिणाम यह हुआ कि महीने की शुरुआत में जहां पूरे देश में केवल दो जगह टेस्टिंग होती थी पीपीई किट की वह अब 12 जगह हो सकती है। इनमें से 10 लैब आयुध निर्माणियों की है।
पिछले हफ्ते हमारी निर्माणी को भी प्रयोगशालाओं को मान्यता देने वाली संस्था एन ए बी एल द्वारा इस टेस्ट को मान्यता मिली। इसके पीछे हमारे साथियों की अनथक मेहनत रही। लाकडाउन पीरियड में कानपुर, ग्वालियर, लखनऊ जाकर टेस्ट कराना, दुकानें खुलवाकर रसायन लाना, उनके सर्टिफिकेट हासिल करना। इसके बाद वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग करते हुये ऑडिट करवाना और ऑडिट टीम से यह सुनना -" आपकी मेहनत और तैयारी को हम सलाम करते हैं। 10 दिन की तैयारी में बिना किसी कमी के सफ़ल होने के लिए आप लोग
बधाई
के पात्र हैं।" अपने में खुशनुमा अनुभव है। खुशनुमा के साथ यह विश्वास भी मजबूत है कि सच्चे मन से की गई मेहनत कभी बेकार नहीं जाती।
इस काम में हमारी टीम ने बहुत मेहनत की। टीम के समूह अधिकारी अनिल यादव लगातार हर तरह से 'जो है सो' अपनी टीम की तैयारियों का जायजा लेते रहे, सुमित पटले बराबर सहयोग और मार्गदर्शन करते रहे, अरुण वर्मा सम्भावित कमियों की तरफ इशारा करते रहे, योगेंद्र और उनके साथी जो जरूरत हो वह सामान मंगाते रहे। इस सबसे अलग और मुख्य रूप से पूरे दिल और जान से मेहनत की ऋषि बाबू ने। लैब को प्रमाणपत्र दिलवाना उनके लिए जीवन का सबसे अहम काम हो गया था। इसमें सफल होने के बाद उनकी जो खुशी छलकी उसको बयान करते जो मेसेज ऋषि ने मुझे किया उसको पढ़कर हमारी आंखे भी छलक आईं। हम यह भी कहने की स्थिति में नहीं थे -'बस कर , रुलाएगा क्या?'
इस सफ़लता का महत्व इस मायने में और बढ़ जाता है कि दस दिन पहले ही टेस्टिंग उपकरण पर आपत्ति जताते हुए हमारा दावा खारिज हो गया था। उस दिन भी ऋषि ने सारी कमी को अपने ऊपर अफसोस जाहिर करते हुए सुबह जो मेसेज किया उससे पता चला बाबू रात भर सो नहीं पाए। न केवल नींद से वंचित रहे, उससे आगे भी बढ़कर शुरुआती असफलता का सारा ठीकरा अपने सर पर फोड़ लिया और बताया कि उनको इसके लिए अफसोस है।
मेसेज पढ़कर हमको लगा कि जिस बात को हम पिछले दिन ही सिर्फ -'कोई बात नहीं। अच्छा ही हुआ। इसी बहाने नया उपकरण आयेगा। फिर लैब को प्रमाणपत्र मिल जाएगा।' कहकर भूल चुके थे वही बात उससे सीधे जुड़े अधिकारी को इतना बेचैन रखे कि अगले की नींद उड़ जाए। वह निराश टाइप हो जाये।
ऋषि बाबू के सन्देश को देखते ही हमने लिखा :
'पागल हो। निराश क्यों? अफसोस क्यों? कोई हमारी गलती थोड़ी थी। यह तो शुरुआत है। हो जाएगा। इसमें हमारी कोई गलती भी नहीं।'
इसके बाद का किस्सा हम बता ही चुके। सफलता मिली और फिर अपने दोस्त के माध्यम से सुनी बात याद आ गयी:
किसी समस्या के हल हो जाने के बाद उसकी ( समस्या की) सरलता देखकर ताज्जुब होता है। Simplicity of the problem when solved is amazing.
अब दनादन पीपीई बन रहे हैं। दिन में कई बार लैब टेस्ट करते हैं। उत्पादन बढ़ाने के तरीके सोचे जाते हैं। कल ही 2100 कवरआल और 60000 मास्क और भेज दिए। इस तरह कुल 3100 कवरआल और 85000 मास्क कुल हो गए जो हमने एच एल एल को भेजे। इसके अलावा जो भेजे उसकी तो कोई गिनती ही नहीं।
कोरोना युध्द में हमारा सहयोग जारी है।

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Thursday, April 23, 2020

समय होत बलवान

 


पूरी दुनिया कोरोना आपदा के चपेटे में है। न जाने किस भेष में नारायण मिल जाएं की तर्ज पर पता नहीं किधर से 'वायरस बाबू' आपको ज्वाइनिंग दे दें। कोरोना ग्रस्त लोगों की मौत का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। भारत में अब तक 700 के करीब लोग विदा हुए।
अमेरिका के कोरोना आंकड़े 47750 तक पहुंच गए हैं। कुछ कर नहीं पा रहे महाबली देश सिवाय गिनती गिनने, परेशान होने और आने वाले में और भयावह स्थिति के लिए तैयार रहने के लिए आह्वान करने के।
47750 की कोरोना गिनती के मुकाबले पिछले दिनों अमेरिका की हाल की प्रमुख लड़ाइयों में जो अमेरिकी लोग मारे गए उनकी संख्या इस तरह है:
9/11 -2977
इराक युध्द- 4424
अफगान युध्द -2440
9841 कुल जमा जोड़ बैठता है हाल के समय की इन आपदाओं में मारे जाने वाले लोगों का। पूरी दुनिया का नक्शा बिगाड़ दिया था इनमें अमेरिकया ने। 9/11 में कहा -जो हमारे साथ नहीं वो हमारे खिलाफ है। इराक और अफगान युध्द में उन देशों में घुस कर मारा अपने विरोधियों को और दुनिया भर को जता दिया कि देख लो हमारी ताकत।
वही ताकतवर देश अब एक वायरस के सामने असहाय हैं। तकनीक की ताकत अभी बैकफुट पर है। दवाओं से कम दुआओं पर ज्यादा भरोसा हैं।
इसी के लिए शायद कहा गया :
पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान।
अपने यहां अभी संख्या कम है। लेकिन जिस तरह की घनी आबादी और कम सुविधाएं हैं अपने यहां उससे इस स्थिति के विकट और भयावह होते देर नहीं लगेगी अगर सावधान न रहे। अगर लापरवाह रहे तो ' सावधानी हटी, दुर्घटना घटी ' कहने के लिए भी लोग न बचेंगे।
सावधान रहना है , डर से बचना है। मस्त रहना है, काम करते हुए , घर में रहते हुए भी। समस्या बड़ी है, लेकिन उससे ज्यादा बड़ा उसका डर है :
माना जीवन में बहुत बहुत तम है
लेकिन तम से ज्यादा तम का मातम है।
कोरोना से लोग मर रहे हैं लेकिन जितने मर रहे हैं उससे ज्यादा लोग बच भी रहे हैं। बहुमत बचने वालों का है। सरकार बहुमत की बनती है। बहुमत के साथ रहें , जीवन के साथ रहें।
इतना समझाने के बाद भी आप सिर्फ डर के ही दामन में दुबके हैं तो गब्बर डायलॉग (जो डर गया, समझो मर गया) के दायरे में आ जाएंगे। कोई आपको देखकर कहेगा:
मौत के डर से नाहक परेशान है
आप ज़िंदा कहाँ है जो मर जायेंगे
इसलिए जो भी करें पूरे मजे से करें। मौका है खुद को समझने का। साथ के लोगों को जानने का। सबसे खूब प्यार करने का। खुद को खूब प्यार करने का। कोरोना प्यार के माहौल में पनप नहीं सकता। फूट लेगा पतली गली से जब वो देखेगा कि यहां सब लोग सुरक्षित आदतें अपना रहे हैं, मस्त हैं।

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Wednesday, April 22, 2020

मेहनती , समर्पित कामगार ही किसी संस्थान की ताकत होते हैं

 


कल जरा जल्दी निकल्लिये। पैदल ही। सूरज भाई पूरी मुस्तैदी से अपनी पूरी कुमक के साथ अपना रोशनी का कारखाना चला रहे थे। बिना मास्क, बिना सैनिटाइजर धड़ल्ले से उजाले की सप्लाई कर रहे थे। उनको कौन किसी से परमिशन लेना। अपने इलाके के वही डीएम, वही सीएम, वही पीएम। उनको तो किसी से कुछ पूछना भी नहीं। बस उठे और बैठ गये रथ पर। निकल लिये दुनिया भर में रोशनी फैलाने।

सूरज भाई घड़ी की सुई के साथ टेम्परेचर बढाते जा रहे थे। बल्कि सच तो यह कि सुई ही उनके हिसाब से आगे बढ़ती जा रही थी। वह शेर है न :
"जिसे दिन बताए दुनिया वह तो आग का सफर है,
चलता है सिर्फ सूरज कोई दूसरा नहीं है।"
हमने सूरज भाई से गुडमार्निंग करते हुए पूछा -'भाई जी आपके उधर लाकडाउन नहीं चल रहा ?'
सूरज भाई मुस्कराने लगे। हमने उनकी तरफ देखकर आंखें मिचमिचाई तो वो हंसते हुए बोले -'बाबूजी, जिस दिन हमारा लाकडाउन होगा उस दिन तुम्हारी पूरी कायनात के निपटारे का काउंटडाउन शुरू हो जाएगा।'
हम समझ नहीं पाए कि सूरज भाई हमको धमका रहे हैं कि मजे ले रहे हैं लेकिन यह हम जरूर समझ गए हमारी बात बेवकूफी की है।
हम अपनी बेवकूफी पर खिसिया के आगे बढ़ गए। पूरे पार्क पर वीरानगी का कब्जा था। झूलों पर चिड़िया भी नहीं झूल रहीं थीं। लगता है उनके घर में भी सावधान किया गया है -'ऐसी किसी चीज पर न बैठो जिसको इंसानी नस्ल ने छुआ हो।'
मोड़ पर पुलिस की जीप खड़ी थी। एक महिला सिपाही केला छीलकर खा रही थी। केले का छिलका गूदे से अलग होकर थोड़ा मुंह लटकाए हुए उदास सा होगा। महीनों साथ रहने के बाद बिछुड़ रहा था। उदासी स्वाभाविक बात।
मन किया महिला सिपाही से पूछें कि खाने के पहले केले को सैनिटाइज किया था ? लेकिन पूछने से पहले ही दिमाग ने चिल्लाकर बताया कि सवाल बेवकूफी का है। मत पूछो। हमने दिमाग से ज्यादा खुद को तसल्ली देते हुई कहा -'अरे, चिंता मत करो। हम इत्ते बेवकूफ थोड़ी हैं कि पुलिस से कोई सवाल पूछें। पिटना थोड़ी है कोई।'
जीप पर बैठा दूसरा सिपाही स्टेरियरिंग पर सर झुकाए सो रहा था। सामने पुलिया पर एक बुजुर्ग सिपाही अपनी मुंडी मोबाइल में घुसाए बैठा था। शायद कोई समाचार देख रहा हो। बाकी तीन सिपाही के बारे में हम कुछ न बताएंगे।
आगे मोड़ पर एक टहलुआ बहुत तेजी हांफता हुआ चला आ रहा था। अपने अंदर की चर्बी से सख्त नाराज। उसको निकाल बाहर फेंकने के लिए आतुर। लेकिन चर्बी उसके तन से ऐसे चिपकी हुई थी जैसे व्यवस्था से अपराध, भ्रष्टाचार सटे रहते हैं - 'हम बने तुम बने, एक दूजे के लिए' का बेसुरा राग अलापते हुए।
सड़क किनारे एक आदमीं पालीथिन से चींटियों को आटा डाल रहा था। पता नहीं चींटियों के शहर में कोरोना कहर का क्या हाल है? उनके यहां लाकडाउन है कि नहीं? चींटियां मास्क पहन के निकल रही हैं कि ऐसे ही? वो कौन सा सैनिटाइजर प्रयोग करती हैं? उनके इधर कवराइन्टैन चल रहा कि नहीं? कुछ पता नहीं चला। चींटियों की भाषा न जानने का अफसोस हुआ। जानते तो यह भी पूछते कि तुम्हारे यहां भी साधु चींटियों की 'भीड़ हत्या' होती है क्या? तुम्हारे यहां भी हिन्दू चींटी, मुस्लिम चीटीं , ईसाई चींटी होती है क्या ? और भी कुछ पूछते लेकिन भाषा आड़े आ गयी।
वैसे भी चींटियों की भाषा , मेहनत की भाषा होती है, समर्पण का व्याकरण होता है। सीखना मुश्किल।
मैदान पर कामगार इकट्ठा थे। ठेकेदार का कारिंदा उनमें से कुछ लोगों को हाजिरी दे रहा है। 100 लोगों की जरूरत के लिए 150 लोग हाजिर हैं। टिफिन लिए लोग हाजिरी न मिलने से वापस लौट रहे हैं। हम कारिंदे से कहते हैं कि उतने ही लोगों को बुलाओ जितनी जरूरत है। पहले से बता दो किनको आना है , उनको ही बुलाओ। वह मुंडी हिलाता है। हम सन्तुष्ट। लेकिन हमको पता है कि करेगा वह अपने मन की ही।
गेट पर लोग आ रहे हैं। अंदर जा रहे हैं। 'थर्मल कट्टे' को मत्थे पर सटाकर टेम्परेचर देखकर अंदर जाने का इशारा होता है। आगे सैनिटाइजर पंखा चल रहा है। उसके आगे पानी का फव्वारा। धूप में नहाया फव्वारा इठलाते हुए पानी का पैराबोला बना रहा था।
गेट पर एक आदमी कान में बताता है कि उसका पड़ोसी आगरा से आया है। ड्यूटी पर आने से रोका जाए उसे। फोन नम्बर भी बताता है। हम उसको फोन करते हैं। पता चला कि वह खुद निर्माणी नहीं आया। 'सेल्फ कवराइन्टैन' मतलब 'आत्म निर्वासन'।
गेट के सामने ही एक मोटरसाइकिल और एक स्कूटी गिरी। बगल से कार तेजी से निकल गयी। सबने सोचा कि पक्का कार उनको ठोंककर गयी। रुकती तो ड्रॉइवर पिट भी जाता शायद। लेकिन पता चला कि मोटरसाइकल और स्कूटी आपस में खुद भिड़ी हैं। स्पीड ब्रेकर से बगलिया के निकलने के चक्कर में । भिड़ने वालों में दो होमगार्ड के लोग। रात ड्यूटी करके घर जा रहे थे। एक का पैर कुछ चोटहिल हो गया। डिस्पेंसरी में पट्टी कराकर उनको रवाना कर दिया गया।
गेट पर शर्मा जी दिखे। टेलीफोन एक्सचेंज में हैं। ' दृष्टि दिव्यांग'। आवाज से ही पहचानकर वर्षो से बात करते- कराते रहे। ऑटो से उतरकर अंदर जाने लगे। लोग सहारा देकर सहयोग भी करते दिखे। हम वहीं थे। हमको लगा कि ऑटो गेट तक आकर छोड़ने के बजाय बीस कदम अंदर क्यों नहीं जा सकता। हमने 'सुओ मोटो' इसका संज्ञान लेते हुए गेट को निर्देश दिया कि उनका ऑटो रोज अंदर उनके एक्सचेंज तक जाने दिया जाय। बाद में लिखित आदेश भी।
शर्मा जी से पूछा बाद में कि आपने इसके लिए पहले खुद अनुमति क्यों नहीं मांगी? उन्होंने कहा -'लोग सहायता कर देते थे , इसलिए कभी जरूरत महसूस नहीं हुई।'
अंदर फिर फव्वारे को देखा। पानी इठलाते हुए उछल रहा था। पानी के अंदर इन्द्रधनुष खिला था। इंद्रधनुष के सातों रंग सात सहेलियों की तरह सटे हुए थे मानो me too at 20 के लिए फोटो जमा कर रहे हों। हमने उनको सोशल दूरी बनाकर खिलने को कहा। वो और सटकर हंसने लगे।
अंदर काम चालू था। कवरआल की सीम सीलिंग चल रही थी। सिलाई भी। रास्ते में दयाराम जी मिले। सीम सीलिंग किये हुए कपड़ों को बच्चों की तरह सहेजे हुए। मालूम हुआ कि जबसे कवरआल बनना शुरू हुआ तबसे लगातार जूटे हुये हैं। घर से काम करने के दिनों में भी यहां काम करते रहे। यह कहते हुए कि यह भी हमारा घर है।
पता चला कि जिस दिन 1000 कवरआल जाने थे उस दिन 100 से ऊपर कवरआल दयाराम जी ने ठीक किये। सुनकर, जानकर ताज्जुब हुआ कि ऐसे समर्पित कामगार के बारे में हमको पता ही नहीं। पहले मिले ही नहीं। लेकिन सुकून भी हुआ कि देर से ही सही, मिल तो लिए।
वहां से टहलते हुए कामगारों के पास टहलते हुए बतियाये। एक ने कहा -'आप जो कहेंगे, जैसा कहेंगे हम करेंगें।'
हमने उनसे कहा -'ठीक है हम काम तो बताएंगे। पहले जरा अंगौछा मुंह से हटाकर मुस्कराइए।'
वो मुस्कराने लगे। बगल के लोग हंसने लगे। इसके बाद एक जन ने दूसरे के बारे में बताया कि ये शायरी बहुत उम्दा करते हैं। हमने कहा सुनाया जाय कुछ।
कुछ सुनाया गया। हमने और लोगों ने भी दाद दी। माहौल खुशनुमा टाइप हो गया।
इसके बाद फिर क्या। दिन गुजर गया। शानदार। आज फिर नया दिन आ गया। यह भी गुजरेगा चकाचक।

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Monday, April 20, 2020

कोरोना से मुकाबले में सहयोग के लिए पीपीई की रवानगी

 


कल इतवार था। छुट्टी का दिन। लेकिन हमारी निर्माणियां कोरोना आपदा से मुकाबले में सहयोग के लिए सतत संलग्न होने के संकल्प के अनुसार चालू थीं। कवरआल और सर्जिकल मास्क का उत्पादन लगातार हो रहा था। लक्ष्य था कि शाम तक 1000 कवरआल और 25000 सर्जिकल मास्क भेजने हैं।

साथ ही पैराशूट फैक्ट्री , कानपुर के एक लाख सर्जिकल मास्क भी भेजना तय हुआ। वहां के सामान की फिनिशिंग यहां शाहजहांपुर में ही होनीं थी इसलिए सोचा गया कि सामान कानपुर जाकर वहां से भेजने की बजाय यहीं से निकाल दिया जाए।
हमारा सामान लग रहा था कि तैयार होने में देर होगी। रात तक तैयार होगा। लेकिन सब लोग जुट गए। सब लोगों के 'साथी हाथ बढाना' वाले भाव से हुए काम का नतीजा यह हुआ कि तय समय तक सब सामान तैयार हो गया।
पैराशूट का भी सामान (सर्जिकल मास्क) लग रहा था एक लाख तक हो नहीं पायेगा। सोचा गया कि जितना होगा उतना भेज देंगे या फिर कल सुबह भेजेंगे। लेकिन हमारे मुंह से निकल गया -'सामान आज ही जायेगा और पूरा एक लाख जाएगा। जरूरत होगी तो हम अपने सामान से पूरा कर देंगे।'
अपने सामान से पूरा करने की बात अपन ने तब कही जब हमारा खुद का उत्पादन होना बाकी था। खुद का पूरा नहीं, दूसरी फैक्ट्री का कराएंगे। क्या बात है। लेकिन उत्साह के पहाड़ पर चढ़ा इंसान जमीनी हकीकत कहां देखता है। उसके तो उत्साह के साथ दिमाग भी आसमान पर भले न चढ़े लेकिन पहाड़ पर तो रहता ही है।
पैराशूट फैक्ट्री हमारी पुरानी फैक्ट्री है। कई महीने हुए उसको छोड़े लेकिन हम तो उसको आज भी अपना ही समझते हैं। आयुध निर्माणी संगठन में निर्माणियों को 'सिस्टर फैक्ट्री' कहा जाता है। हम इसको इसी भाव से, लेते हैं। बहनों के लिए तो कुछ भी किया जा सकता है। इसी भाव से सहयोग का मन रहता है।
दोपहर को महानिदेशक एवं चेयरमैन आयुध निर्माणी बोर्ड कोलकता अपनी मैराथन वीडियो कांफ्रेंसिंग खत्म करके आराम करने चले गए तब मेरे मन में आया कि शाम को सामान की रवानगी साहब से करवाई जाए। इतने दिन वीडियो कांफ्रेंसिंग करते हुए अब सब इतना सुगम लगने लगा कि कोलकता में बैठकर शाहजहांपुर, कानपुर से जुड़ सकें। फ्लैग आफ किया जा सके।
वैसे भी यह खास मौका था। पिछले दिनों कोरोना संकट से मुकाबले करने में हमारे महानिदेशक ने अपने अनथक प्रयासों से सभी निर्माणियों में उत्साह का संचार करते हुए ऐसे-ऐसे काम करने में सूत्रधार और निर्देशक की भूमिका निभाई है जो अन्यथा निर्माणियों में होने के बारे में सोचे ही नहीं जाते। दो हफ्ते पहले तक पूरे देश में मात्र दो जगह यह सुविधा थी जहां मेडिकल जरूरतों के लिए कपड़े और सीम टेस्टिंग की सुविधा है। महानिदेशक के आह्वान पर आज हमारी पाँच निर्माणियों में यह टेस्टिंग होने की सुविधा हो गयी। टेस्टिंग के लिए इक्विपमेंट्स डिजाइन करने, बनाने और उसकी मान्यता दिलाने का काम हफ्ते भर में। यह सब सामान्य समय में केवल कल्पना में ही सम्भव समझा जा सकता था।
बहरहाल जब तय हुआ कि सामान शाम को निकलेगा तो हमने सोचा कि इसका फ्लैगऑफ भी महानिदेशक से करवाया जाए। हमने सन्देश भेजा शाम को पैराशूट और शाहजहांपुर के सामान को फ्लैग ऑफ करना है। अनुरोध है कि शाम को तैयार रहें। विवरण दोपहर के बाद भेजेंगे।
जैसे ही हमारा सन्देश देखा साहब का फोन आया। हंसते हुए बोले -'तुम लोग रोज एक नया सरप्राइज देते हो।'
कार्यक्रम तय हुआ तो सबको सूचित किया गया। हमारे वरिष्ठ उप महानिदेशक श्री ए के अग्रवाल जी, महाप्रबन्धक पैराशूट फैक्ट्री श्री बंगोत्रा जी, बोर्ड के उप महानिदेशक श्री प्रकाश अग्रवाल जी को बताया गया। हमारे सुशील सिन्हा उपमहानिदेशक छूट रहे थे तो उनको मीटिंग के दौरान ही बिना कोई समय दिए जोड़ लिया गया उसी तरह जैसे उनको बिना कोई समय दिए सूचनाएं मांग ली जाती हैं।
शाम तय समय और कार्यक्रम शुरू हुआ। उधर कोलकता में अपने निवास से महानिदेशक एवं चेयरमैन हरिमोहन जी ने सम्बोधित किया जिसको निर्माणी के तमाम अधिकारियों, कर्मचारियों लोगों ने सुना। महानिदेशक ने कहा -'जब मैं जनवरी में शाहजहांपुर में आया था तो मैंने आप लोगों से कहा था कि अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए हमको ऐसे काम करना है जो दूसरे नहीं कर पाते। अपने को बदलना है। आप लोगों ने बहुत कम समय में बहुत शानदार काम किया है। निर्माणी के महाप्रबन्धक अनूप शुक्ल के नेतृत्व में आप लोग दिन रात मेहनत कर रहे हैं। मुझे चप्पे-चप्पे की खबर है। आप लोग ऐसे ही काम करते रहिए। देश की जरूरतें पूरी करना हमारी निर्माणियो का कर्तव्य है।'
इसके बाद महानिदेशक जी ने पैराशूट फैक्ट्री की सराहना करते हुए कहा -' पैराशूट फैक्ट्री देश के लिए पैराशूट बनाती है। लेकिन आज देश की जरूरत के लिए महाप्रबंधक बंगोत्रा जी के नेतृत्व में पीपीई आईटम बना रही है। बहुत कम समय में एक लाख सर्जिकल मास्क बनाकर बहुत सराहनीय काम किया है। मैं इसके लिए पैराशूट निर्माणी के सभी कामगारों, अधिकारियों की सराहना करता हूँ।
अपने आत्मीय और उत्साह वर्धक सम्बोधन के बाद महानिदेशक जी ने फ्लैग ऑफ करके सामान की रवानगी की। पहले पैराशूट का ट्रक निकला, फिर शाहजहांपुर का।निर्माणी के तमाम कर्मचारी इस ऐतिहासिक घटना के गवाह बने। किसी ने कहा -'हमारे बनाये 30 कवरआल भी इसमें जा रहे हैं।
पैराशूट निर्माणी के महाप्रबन्धक बंगोत्रा जी अपने साथियों के साथ अपने सामान को विदा होते देख रहे थे। अपने सम्बोधन में उन्होंने महानिदेशक को उनके नेतृत्व की सराहना करते हुए कहा -'आपकी गाइडेंस औऱ सहयोग से यह सब सम्भव हुआ।'
बीच के खाली समय का उपयोग करते हुए बंगोत्रा जी ने मजे लेते हुए कहा -'आज के कार्यक्रम के दूल्हा तो अनूप शुक्ल हैं जो इस कार्यक्रम के सूत्रधार हैं।'
अनूप शुक्ल शर्माते हुए यह सोच रहे थे कि क्या जबाब दिया जाए तब तक महानिदेशक जी आ गए और बात उनसे शूरु हुई। अनूप शुक्ल ने महानिदेशक का स्वागत करते हुए कहा -'हम लोग निर्माणी के बाहर उस लान के एकदम पास हैं जहां आपने जनवरी में हमारी निर्माणी के लोगों को सम्बोधित किया था। सभी आपको सुनने के लिए आतुर हैं।'
इसके बाद महानिदेशक ने अपना सम्बोधन दिया। सामान को विदा किया। सभी लोगों ने उत्साह और गर्व के साथ इस कार्यक्रम को देखा।
हमारा भेजा हुआ सामान अब दिल्ली पहुंचने वाला है। जल्द ही यह उन लोगों तक पहुंचेगा जिनको इसकी आवश्यकता है। इसके बाद और सामान भी जाएगा।
आयुध निर्माणियां देश के सैनिकों की आवश्यकता के लिए सामान बनाती हैं। आज देश की मेडिकल सेवाओं से जुड़े लोग हमारे सैनिक हैं। हम कोरोना से युद्ध में जुटे सैनिकों के लिए सामान बना रहे हैं।

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Wednesday, April 15, 2020

कोई काम नहीं है मुश्किल

 

कोरोना काल में काम करना कठिन है। बाजार बंद, सड़कें सूनी। कोई सामान चाहिए तो मिलना मुश्किल। काम के लिए औजार नदारद। सब लस्टम-पस्टम। लेकिन यही तो समय है जब इम्तहान होता है। इम्तहान देना है और पास भी होना है। साधन के अभाव का रोना नहीं रोना है।

हम लोगों को कवरआल, मास्क , डिस्पोज़ेबल बेड रोल और कम्बल कवर बनाने का काम मिला हैं। कपड़ा मिलता है चंडीगढ़ में, टेप मिलता है दिल्ली मुंबई में। बनाना है तो जाओ लेने। लाओ , बनाओ। कभी-कभी तो किराए का खर्च सामान की कीमत से कई गुना ज्यादा।
कवरआल बनाने के लिए अपन के यहां सिलाई मशीन तो हजारों हैं। काम करने वाले भी आ रहे हैं। लेकिन सिलाई के बाद कवर आल पर जो टेप से सीलिंग की जाती है उसके लिए मशीनों की कमी है। जिस भी सप्लायर से पूछो वो कहता है अभी स्टॉक निल है। अगले हफ्ते आ सकती हैं। बुक कर दीजिए। कीमत दो गुना। गरज कि पचास लफड़े।
टेपिंग मशीन की कमी पूरी करने के लिए अपन नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे घूम रहे। किसी के पास हो तो उधर दे दे, किराए पर दे दे।जैसे मन आये, वैसे दे दे। बस दे दे। मशीन मिल जाये, काम बन जाये।
ऐसे ही हमको खबर मिली कि शहर में जी-सरजीवियर मेडिकल कपड़े बनाती है। बड़ा काम है। हो सकता है , उनके पास हो मशीन। पता यह भी चला कि किसी को अपने
यहां आने नहीं देते।
बहरहाल बात हुई विनम्र अग्रवाल से। तय हुआ कि जाएंगे फर्म। तय समय पर गए अपने साथियों के साथ। बहुत बड़ा संस्थान। करीब 1000 लोग काम करते हैं। हमको ताज्जुब हुआ कि इतने बड़े संस्थान के बारे में हमको जानकारी ही नहीं।
गेट पर सैनिटाइजर से हाथ साफ करवाये दरबान ने। अंदर पहुंचे। कुछ देर बाद मुलाकात हुई विनम्र अग्रवाल और उनके पिताजी डॉ घनश्याम दास अग्रवाल जी से। बातचीत के दौरान पता चला कि डॉ अग्रवाल जी मूलतः सर्जन हैं। 1981 के किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ के पास आउट। कुछ साल की डॉक्टरी के बाद मेडिकल से जुड़े कपड़ों का काम शुरू किया। कुछ लोगों से शुरू करके आज हजार लोगों को रोजगार देते हैं।
डॉ अग्रवाल के साथ उनका संस्थान देखा। आधुनिक। साफ-सुधरा , एयरकंडीशन्ड संस्थान। कपड़े के साथ कई तरह की मशीनें खुद बनाते। कठिन काम में ही हाथ डालते हैं, उस रास्ते नहीं जाते जो आम हो जाये।
बहरहाल अपनी जरूरत बताई तो अग्रवाल ने अपने यहां मौजूद मशीन दिखाई। बोले -'छह साल से बन्द है। ले जाइए। चल सके तो चलाइये। निकालिए अपना काम।'
हमने किराया, खर्च पूछा तो बोले -' मशीन ले जाईये। बाकी सब बाद में देखेगें।'
दोपहर बाद उठा लाये हम मशीन। लग गए बनाने में हमारे लोग। खोली तो पता चला तार कटे हैं, रोलर घिसे हैं। हर पुर्जा दूसरे से खफा। 36 के आंकड़े में मुंह बनाये हुए है। सबको मनाते हुये, सम्भालते हुए मरम्मत का काम शुरू हुआ।
रात दस बजे लगा मशीन ठीक हो गई। ठीक तो हो गयी लेकिन चलने के नखरे। क्या किया जाए। तय हुआ कि जो आपरेटर फर्म में मशीन चलाता था उसको बुलाया जाए। रात को दौड़ाया गया लोगों को। लाकडाउन में घण्टाघर से बुला के लाये गए आपरेटर जी।
मशीन और आपरेटर का संयोग होते ही मशीन चल पड़ी। जो काम दोपहर तक असम्भव लग रहा था वह रात सवा ग्यारह बजे पूरा हो गया। इसमें हमारी फैक्ट्री के अधिकारी एच के अग्रवाल जी की सक्रिय भूमिका रही। अपनी मेंटिनेंस टीम के साथ भिड़े रहे। मशीन चलाकर ही माने।
इस दौरान हम भी पूरी निष्क्रियता के साथ मौजुद रहे घटना स्थल पर। मशीन चलने पर जो खुशी हुई हम लोगों को उसको बयान करना मुश्किल। सबके सहयोग से मशीन चल गई। यह सबका सहयोग सामूहिकता का सौंदर्य है। अद्भुत, अनिवर्चनीय, आनंददायी।
किसी समस्या के हल होने पर उसकी सरलता महसूस करके ताज्जुब होता है।
कल जब फैक्ट्री गए तो हमने भी हाथ साफ किया मशीन पर। जो काम हमारे ऑपरेटर 15 मिनट में करके फेंक देते हैं उसको करने में दो घण्टे लगाए। वह भी गड़बड़। लेकिन दो घण्टे बाद लगा कि करते रहेंगे तो दो-तीन दिन बाद हम भी कुशल आपरेटर बन सकते हैं।
बहरहाल यह किस्सा तो ऐसे ही। ऐसे किस्से अनगिनत हैं। सुनाएंगे कभी तसल्ली से। अब्बी तो निकलना है काम पर। निर्माणियां हमारा आह्वान कर रही हैं।

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Sunday, April 12, 2020

.....हाय रे तेरी दम्बूक से डर लागे

 

मौके पर चोखा काम, आयुध निर्माणियों का यही पैगाम

आजकल कोरोना बवाल के चक्कर में देश भर में लाकडाउन चल रहा है। कारखाने, बाजार, दुकान सब बन्द। गली, मोहल्ले, सड़क, चौराहे सब बन्द। घर से निकलना मुहाल। सड़क पर पकड़े गए , तो ठुके। किसी अहिंसक के हत्थे चढ़े तो मुर्गा बनकर छूट गए। किसी पढ़े-लिखे का शिकार हुए तो छाती पर --'मैंने लाकडाउन का उल्लंधन किया है' वाला इश्तहार चिपकाकर फोटू लेकर मुफ्त में विज्ञापन करना होगा।
लेकिन हमको तो रोज फैक्ट्री जाना है। कोई घड़ी तो देखनी नहीं। घड़ी क्या कैलेंडर भी नहीं देखते आजकल। कोई फायदा नहीं देखने का। सब दिन एक समान। रोज काम ही काम। कैलेंडर की लाल रंग वाली तारीखें देखकर अब गुदगुदी नहीं होती। इतवार और छुट्टियों का वीआईपी वाला पास छिन गया है।
फैक्ट्री गेट में घुसते ही तापमान देखा जाता है। थर्मल कंट्रोल वाले थरमामीटर से तापमान नापा जाता है। कट्टे की तरह मत्थे पर तान दिया जाता है थरमामीटर। लिबलिबी दबती है। तापमान आता है। बताता है -'ठीक है साहब।'
जब थर्मामीटर बन्दूक की तरह मत्थे पर तना होता है हमको दुश्मन पिक्चर का गाना याद आता है -'बलमा सिपहिया, हाय्य रे तेरी दम्बूक से डर लागे।'
गाना खूबसूरत है। नायिका की तरह। नायिका कहती भले हो डर की बात। लेकिन हमको पता है कि उसको डर-वर कुछ नहीं लगता। वह तो कहने के लिए कहती है। मोहब्बत में कहा कुछ जाता है, मतलब कुछ और होता है।
कोरोना का डर भले ही दुनिया भर में फैला हो लेकिन अपन को डरने की फुर्सत ही नहीं मिलती। काम में जुटे रहते हैं। टाइम ही नहीं मिलता। कब डरें। कोरोना भी सोचता होगा कि अजीब लोग हैं यार ये। जिससे सारी दुनिया हलकान है , उसको ये जरा भी इज्जत नहीं दे रहे ये लोग। अब हम कैसे समझाएं उस 'भले वायरस' को कि डरना तो फुरसत वालों का काम है। हमको कहां फुर्सत डरने की।
हमको तो काम से ही फुरसत नहीं। कब डरें। कित्ता डरें।काहे के लिए डरें। खाली डरें की मरें भी। डरने के बाद मरने की बात गब्बर जी कह ही गए हैं-' जो डर गया, समझो मर गया।' विकट कन्फ्यूजन है। इसलिए डरना हो नहीं पा रहा बिल्कुल।
और फिर हमको कोई डरने का टारगेट थोड़ी मिला है कि इत्ता डरना है इत्ते दिन में। हमको तो जो टारगेट मिला है वो करने में जुटे हैं। हमको टारगेट मिला है डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए कपड़े बनाने, मास्क बनाने का, डिस्पोजेबल बेड रोल बनाने का। सो बना रहे हैं।
बहरहाल मत्थे पर से 'थर्मल कट्टा' हटते ही हम अंदर आते हैं। सामने ही पानी का फव्वारा खिलखिलाते हुए हमारा स्वागत करता है। हमारा मन सैनिटाइज हो जाता है। लगता है कि फव्वारे ने अभयदान दे दिया है, मस्त होकर काम करो। हमारे रहते कोई चिंता की बात नहीं। ऊपर से सूरज भाई मुस्कराते हुए मानो फव्वारे की बात पर अपनी मोहर ठोंक कर हमको और निश्चिन्त कर देते हैं -'निशा खातिर रहो। मजाल है हमारे रहते कोई छू जाए तुमको।'
अंदर पहुंचकर इधर-उधर व्यस्त हो जाते हैं। कोई न कोई आदेश देते हुए काम शुरू कर देते हैं।
आदेश की बात से याद आया कि अफसर का काम ही आदेश देना होता है। आदेश उचित है, अनुचित है , तर्क पूर्ण है, बेवकूफी भरा है यह देखने का काम उसका थोड़ी है। यह तो आदेश का पालन करने वाले झेलें।
आदेश का सौंदर्य , आदेश के अटपटे पन में निखरता है। किसी काम करते हुये आदमी को काम शुरु करने का आदेश देंना भी इसी तरह का आदेश है। हम जाते हैं तो लोग सिलाई में जुटे होते हैं। हम आदेश देते हैं, सिलाई में जुट जाओ। वो हमारी बात से बेखबर काम में जुटे रहते हैं, हम समझते हैं, हमारे कहने से जुटे हुए हैं।
किसी को यह बात अहमकपने की लग सकती है। लेकिन किसी को लगने के लिए हम क्या कर सकते हैं। कुछ लोग तो हमको बहुत काबिल भी समझते हैं। हम उनको भी कुछ नहीं सकते। कोई कुछ समझे लेकिन हमको तो पता कि हमारी असलियत क्या हैं। लेकिन जहां तक अहमकपने की बात है तो हम यही कह सकते हैं कि यह हमारी सहज प्रवृत्ति है। मौलिकता है। अपने मौलिक गुणों में से एक को हम संकट काल में कैसे छोड़ सकते हैं।
काम में जुटने वाले एक नहीं , अनेकों हैं। लाकडाउन की पूरी इज्जत करते हुए , सामाजिक दूरी बनाते हुए सब लोग जुटे हुए हैं।' नौ की लड़की नब्बे खर्च ' को पूरी इज्जत मिल रही है। हाल यह कि 5000 रुपये के टेप के दो रोल लेने के लिए आदमी शाहजहांपुर से फिरोजाबाद दौड़ गए। जरा सा केमिकल लाने के लिए कानपुर के लिए गाड़ी दौड़ा दी।
हमारी तो जरूरत की बात , वह भी कठिन समय में। लोग तो शांतिकाल में भी मजे करते हैं। सुना है अपने किन्ही मंत्री जी को घर का खाना बहुत पसंद था तो उनके लिए नाश्ता लाने के लिए उनके विभाग का जहाज घर -जिले से राजधानी आता जाता था।
सप्लायरों के हाल यह हैं कि कोई भी सामान मंगाओ, उसके कलेक्शन के लिए गाड़ी भेजवाओ। पहले पैसा जमा करो , फिर माल लदवाओ।
आयुध निर्माणियां आजकल युध्द मुद्रा में हैं। जिस भी काम की जरूरत हुई उसको पूरा करने के लिए जुट गयीं। डॉक्टरों के लिए ड्रेस बनने के लिए उनकी टेस्टिंग का देश भर में केवल दो जगह सुविधा थी। कोयम्बटूर में और ग्वालियर में। एक तो सैम्पल पहुंचना मुश्किल । पहुंच गया तो टेस्टिंग में लम्बी लाइन। हफ्ता लग जाता । हर दिन रिजल्ट की तारीख आगे बढ़ जाती।
ऐसे में दो ही काम होते हैं या तो चुपचाप इंतजार करो या फिर रास्ता निकालो। अब जब कोई चुनौती हो तो चुप बैठना हम लोगों की फितरत में कहां। हमारा तो कहना है : -
' अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे'
फिर क्या! हमारी निर्माणियों के लोग जुट गए महानिदेशक के आह्वान पर। आज हाल यह कि जो सुविधा पूरे देश में मात्र दो जगह है वह हफ्ते भर में हमारी तीन निर्माणियों में हो गयी। अगले तीन-चार दिन में तीन जगह और हो जाएगी। सबसे पहले कानपुर की आयुध निर्माणी, कानपुर ने उपकरण बनाया, फिर स्माल आर्म्स में बना, उसके बाद टैंक बनाने वाली फैक्ट्री एच वी एफ ,अवाडी में भी बना। कर लो जितनी मन चाहे टेस्टिंग। और बताओ क्या चाहिए।
किस्से अनगिनत हैं। इत्ते की सुनाते हुए हमारा मुंह तक जाये, सुनते हुए आपके कान पक जाए। लिखते हुए हमारी उंगलियां थक जाएं, पढ़ते हुए आपकी आंखें थक जाएं। लेकिन समय नहीं है अभी इन सब बातों का। अभी तो काम पर निकलना है।
जो लोग घर में बैठे हैं वो अच्छे से रहें। लेकिन जो काम पर आ-जा सकते हैं वो काम पर आये-जाएं। विश्वास करिये जित्ती देर आप काम में जुटे रहेंगे, उत्ती देर तक कोई डर आपके पास नहीं फटकेगा।

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Wednesday, April 08, 2020

BC/AC मतलब कोरोना के पहले/कोरोना के बाद

 

आज पूरी दुनिया में कोरोना का हल्ला है। जिस तरह से कोरोना ने दुनिया को हिलाया है उससे लगता है आने वाले समय में इतिहास के AC/BC के मायने बदल जाएंगे। ईशा पूर्व/ईशा बाद की जगह आने वाले समय में दुनिया के सारे किस्से कोरोना पूर्व और कोरोना बाद के रूप में दर्ज होंगे। (AC/BC का आइडिया Niraj Kela की कृपा से )
कोरोना ने आदतों में बदलाव लाना शुरू किया है। लपककर गले लगने की जगह ठिठककर मुस्कराना शुरू हुआ है। आदमी बिजली का बोर्ड हो गया है। बिजली का बोर्ड बिना रबर के दास्ताने और जूते पहने नहीं छुआ जाता है। आने वाले समय में लोगों से मुलाकात के लिए एक मीटर की हवा पहनना जरूरी होगा। दूरी हटी, दुर्घटना घटी।
युद्ध के लिए हथियार बनाने वाली आयुध निर्माणियां आज कोरोना से लड़ने के औजार बना रही हैं। करीब 85 हजार लोगों का संगठन और करीब 12-15 हजार करोड़ के टर्नओवर वाला संस्थान अपने क्षमता से अधिक काम कर रहा है। आयुध निर्माणियां 'वार रिजर्व' के हिसाब से बनी थीं, जब युध्द होगा उसके लिए सामान बनाएंगी। आज युध्द शुरू है। दुश्मन हमारा कोरोना है, इसको निपटाना है।
कोरोना के खतरे का एहसास होते ही हमारी निर्माणियां तैयार हो गयीं। सबसे पहले शुरुआत हुई गोला बारूद बनाने वाली फैक्ट्रियों से। सैनिटाइजर बनाया हमारी निर्माणियों ने। ठीक है दुश्मन है कोरोना लेकिन मिलेंगे तो हाथ साफ करके ही। हमको पता है कि हमारी सफाई से ही निपट जाएगा अगला।
इटारसी , भंडारा, खमरिया, वरनगांव, देहरोड, एचईएफ,खड़की और अन्य फैक्ट्रियां जुट गई सैनिटाइजर बनाने में। बनाया और मुफ्त बांटा।
सैनिटाइजर से शुरू हुआ सिलसिला आगे बढ़ा। कटनी ने मास्क बनाया, भुसावल ने स्ट्रेचर दिया। मतलब जिससे जो सम्भव हुआ उसने वह किया। हर निर्माणी में माखनलाल चतुर्वेदी के 'पुष्प की अभिलाषा' समाहित हो गयी है:
"चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक"
कोरोना से लड़ाई की इस कड़ी में हाल यह हुआ है कि नित नए उत्पाद लांच हो रहा है। ट्रिगर दब गया है तो गोलियां चल रही हैं। परमाणु विखण्डन शुरू होता है न तो चेन रिएक्शन होता है। एक परमाणु के बाद दूसरे में ऊर्जा फूटती है वैसे ही एक की देखा-देखी दूसरे में उत्साह आ रहा है।
ओएफसी ने सुबह टेस्टिंग उपकरण बनाया तो उसे देखकर एस ए एफ ने भी बना लिया। भेज दिया कपड़ा फैक्टियों में। करो टेस्ट कपड़ा, बनाओ कवर आल। वेंटिलेटर मेढक फैक्ट्री में बना तो एच वी एफ में भी बनेगा।
कल पता चला कि एमपीटीएफ फैक्ट्री ने एक वेंटिलेटर बनाया है। आईसीयू के वेंटिलेटर की कमी पूरा करेगा यह वेंटिलेटर। निर्माणी के महाप्रबन्धक राजीव कुमार वही हैं जिनकी गोआ प्रवास के दौरान खींची गई फोटो हमारी किताबों में हैं। जब भी जिक्र होता है, रॉयल्टी के पैसों में हिस्सा मांगते हैं। हिस्सा तो तब दिया जाय जब मिले रॉयल्टी। अभी तो कोरोना से मुकाबला करना है।
बात केवल बना के थमा देने तक ही नहीं है। बनेगा तो क्वालिटी वाला। फौरन गुणता के मानक तय होने हैं। मानक कब तक तय होंगे ? पूछा चेयरमैन साहब Hari Mohan जी ने।
कल शाम तक हो जाएंगे सर । -बोले रजत पाल।
कल तक नहीं। आज सोने से पहले इसे करना है। साहब को लगता है कहीं हमारी देरी से कोरोना की लड़ाई में सहयोग में कमी न रह जाये।
नतीजा क्या। हुआ। बना। क्वालिटी स्टैंडर्ड। अब जब क्वालिटी स्टैंडर्ड बना तो निरीक्षण भी होगा कि निर्माणियां मानक स्तर के हिसाब से सामान बना रहीं हैं कि नहीं। फिर क्या हो गए शुरू दौरे निरीक्षण टीमों के। जब पूरा देश लाकडाउन में है, लोग अपने घरों में आरामफर्मा हैं तब हमारे अफसर अपनी निर्माणियों के दौरे के लिए सूनी पड़ी सड़कें नापते हुए निकल रहे हैं। कोई गुनगुना भी रहा होगा -
"हम हैं आयुध निर्माणी के कर्णधार।"
कुछ निर्णानियाँ के सहयोग सामने से दिखते नहीं। लेकिन उनके कारण ही दूसरे लोग दिखने लायक काम कर पा रहे हैं। चंडीगढ़ फैक्ट्री के महाप्रबंधक बीपी मिश्रा ओईएफ ग्रुप की फैक्ट्रियों के लिए फर्मों से सामान का इंतजाम कर रहे हैं शादी-व्याह में भंडारे की चाभी जिम्मेदार आदमी को सौंपी जाती है। मिश्र जी हमारी निर्णानियों का भंडारा सम्भाले हैं । सप्लायर से सामान के लिए तकादा करो तो कहता है -मिश्रा जी जिसको कहेंगे उसको देंगे हम सामान।
मुरादनगर फैक्ट्री के महाप्रबंधक दिल्ली के आसपास की कमान संभाले हुए हैं। दिल्ली , गाजियाबाद और आसपास कोई भी काम हो, मोहंती जी हाजिर हैं अपनी टीम के साथ। मशीन का कोटेशन हो, रहने का इंतजाम हो या कुछ भी। किसी के लिए न नहीं।
हमको कुछ सामान चंडीगढ़ से मंगवाना था। ट्रक नहीं मिला कहीं। हर सप्लायर दाम बढ़ाने और उसको मानने के बाद भी मुकर जाता। हम मोहंती जी की शरण में गए। रात 11 बजे चिट्ठी लिखी। वहाट्सएप पर भेजी। सुबह मुरादनगर के ड्रॉइवर की तैनाती की सूचना मिल गयी मोहंती जी से।
इस बीच सप्लायर ने आश्वासन दिया कि वो सामान भेज देगा अपने ट्रक से। पैसा नकद चाहिए। हम खुश। रोक दिया मोहंती जी को। उन्होंने शुभकामनाएं दी।
लेकिन घण्टे भर में सप्लायर फिर पलट गया। बोला ट्रांसपोर्टर नहीं मान रहा। इन प्राइवेट कंपनियों की असलियत खुल रही है आपात समय में। भरोसे लायक नहीं।
बहरहाल रात को शर्माते हुए फिर कहा मोहंती जी को। उन्होंने फौरन फिर व्यवस्था की। रात में ही चलकर ट्रक अम्बाला पहुंच गए। अब वे निकलेंगे सामान लेने के लिए। यहां शाहजहांपुर तक लाएंगे।
मिसिरजी-मोहंती जी के सहयोग के बिना हम कुछ न कर पाते।
सभी के सहयोग से हम सब बचेंगे। आगे बढ़ेंगे।

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