कल जरा जल्दी निकल्लिये। पैदल ही। सूरज भाई पूरी मुस्तैदी से अपनी पूरी कुमक के साथ अपना रोशनी का कारखाना चला रहे थे। बिना मास्क, बिना सैनिटाइजर धड़ल्ले से उजाले की सप्लाई कर रहे थे। उनको कौन किसी से परमिशन लेना। अपने इलाके के वही डीएम, वही सीएम, वही पीएम। उनको तो किसी से कुछ पूछना भी नहीं। बस उठे और बैठ गये रथ पर। निकल लिये दुनिया भर में रोशनी फैलाने।
सूरज भाई घड़ी की सुई के साथ टेम्परेचर बढाते जा रहे थे। बल्कि सच तो यह कि सुई ही उनके हिसाब से आगे बढ़ती जा रही थी। वह शेर है न :
"जिसे दिन बताए दुनिया वह तो आग का सफर है,
चलता है सिर्फ सूरज कोई दूसरा नहीं है।"
हमने सूरज भाई से गुडमार्निंग करते हुए पूछा -'भाई जी आपके उधर लाकडाउन नहीं चल रहा ?'
सूरज भाई मुस्कराने लगे। हमने उनकी तरफ देखकर आंखें मिचमिचाई तो वो हंसते हुए बोले -'बाबूजी, जिस दिन हमारा लाकडाउन होगा उस दिन तुम्हारी पूरी कायनात के निपटारे का काउंटडाउन शुरू हो जाएगा।'
हम समझ नहीं पाए कि सूरज भाई हमको धमका रहे हैं कि मजे ले रहे हैं लेकिन यह हम जरूर समझ गए हमारी बात बेवकूफी की है।
हम अपनी बेवकूफी पर खिसिया के आगे बढ़ गए। पूरे पार्क पर वीरानगी का कब्जा था। झूलों पर चिड़िया भी नहीं झूल रहीं थीं। लगता है उनके घर में भी सावधान किया गया है -'ऐसी किसी चीज पर न बैठो जिसको इंसानी नस्ल ने छुआ हो।'
मोड़ पर पुलिस की जीप खड़ी थी। एक महिला सिपाही केला छीलकर खा रही थी। केले का छिलका गूदे से अलग होकर थोड़ा मुंह लटकाए हुए उदास सा होगा। महीनों साथ रहने के बाद बिछुड़ रहा था। उदासी स्वाभाविक बात।
मन किया महिला सिपाही से पूछें कि खाने के पहले केले को सैनिटाइज किया था ? लेकिन पूछने से पहले ही दिमाग ने चिल्लाकर बताया कि सवाल बेवकूफी का है। मत पूछो। हमने दिमाग से ज्यादा खुद को तसल्ली देते हुई कहा -'अरे, चिंता मत करो। हम इत्ते बेवकूफ थोड़ी हैं कि पुलिस से कोई सवाल पूछें। पिटना थोड़ी है कोई।'
जीप पर बैठा दूसरा सिपाही स्टेरियरिंग पर सर झुकाए सो रहा था। सामने पुलिया पर एक बुजुर्ग सिपाही अपनी मुंडी मोबाइल में घुसाए बैठा था। शायद कोई समाचार देख रहा हो। बाकी तीन सिपाही के बारे में हम कुछ न बताएंगे।
आगे मोड़ पर एक टहलुआ बहुत तेजी हांफता हुआ चला आ रहा था। अपने अंदर की चर्बी से सख्त नाराज। उसको निकाल बाहर फेंकने के लिए आतुर। लेकिन चर्बी उसके तन से ऐसे चिपकी हुई थी जैसे व्यवस्था से अपराध, भ्रष्टाचार सटे रहते हैं - 'हम बने तुम बने, एक दूजे के लिए' का बेसुरा राग अलापते हुए।
सड़क किनारे एक आदमीं पालीथिन से चींटियों को आटा डाल रहा था। पता नहीं चींटियों के शहर में कोरोना कहर का क्या हाल है? उनके यहां लाकडाउन है कि नहीं? चींटियां मास्क पहन के निकल रही हैं कि ऐसे ही? वो कौन सा सैनिटाइजर प्रयोग करती हैं? उनके इधर कवराइन्टैन चल रहा कि नहीं? कुछ पता नहीं चला। चींटियों की भाषा न जानने का अफसोस हुआ। जानते तो यह भी पूछते कि तुम्हारे यहां भी साधु चींटियों की 'भीड़ हत्या' होती है क्या? तुम्हारे यहां भी हिन्दू चींटी, मुस्लिम चीटीं , ईसाई चींटी होती है क्या ? और भी कुछ पूछते लेकिन भाषा आड़े आ गयी।
वैसे भी चींटियों की भाषा , मेहनत की भाषा होती है, समर्पण का व्याकरण होता है। सीखना मुश्किल।
मैदान पर कामगार इकट्ठा थे। ठेकेदार का कारिंदा उनमें से कुछ लोगों को हाजिरी दे रहा है। 100 लोगों की जरूरत के लिए 150 लोग हाजिर हैं। टिफिन लिए लोग हाजिरी न मिलने से वापस लौट रहे हैं। हम कारिंदे से कहते हैं कि उतने ही लोगों को बुलाओ जितनी जरूरत है। पहले से बता दो किनको आना है , उनको ही बुलाओ। वह मुंडी हिलाता है। हम सन्तुष्ट। लेकिन हमको पता है कि करेगा वह अपने मन की ही।
गेट पर लोग आ रहे हैं। अंदर जा रहे हैं। 'थर्मल कट्टे' को मत्थे पर सटाकर टेम्परेचर देखकर अंदर जाने का इशारा होता है। आगे सैनिटाइजर पंखा चल रहा है। उसके आगे पानी का फव्वारा। धूप में नहाया फव्वारा इठलाते हुए पानी का पैराबोला बना रहा था।
गेट पर एक आदमी कान में बताता है कि उसका पड़ोसी आगरा से आया है। ड्यूटी पर आने से रोका जाए उसे। फोन नम्बर भी बताता है। हम उसको फोन करते हैं। पता चला कि वह खुद निर्माणी नहीं आया। 'सेल्फ कवराइन्टैन' मतलब 'आत्म निर्वासन'।
गेट के सामने ही एक मोटरसाइकिल और एक स्कूटी गिरी। बगल से कार तेजी से निकल गयी। सबने सोचा कि पक्का कार उनको ठोंककर गयी। रुकती तो ड्रॉइवर पिट भी जाता शायद। लेकिन पता चला कि मोटरसाइकल और स्कूटी आपस में खुद भिड़ी हैं। स्पीड ब्रेकर से बगलिया के निकलने के चक्कर में । भिड़ने वालों में दो होमगार्ड के लोग। रात ड्यूटी करके घर जा रहे थे। एक का पैर कुछ चोटहिल हो गया। डिस्पेंसरी में पट्टी कराकर उनको रवाना कर दिया गया।
गेट पर शर्मा जी दिखे। टेलीफोन एक्सचेंज में हैं। ' दृष्टि दिव्यांग'। आवाज से ही पहचानकर वर्षो से बात करते- कराते रहे। ऑटो से उतरकर अंदर जाने लगे। लोग सहारा देकर सहयोग भी करते दिखे। हम वहीं थे। हमको लगा कि ऑटो गेट तक आकर छोड़ने के बजाय बीस कदम अंदर क्यों नहीं जा सकता। हमने 'सुओ मोटो' इसका संज्ञान लेते हुए गेट को निर्देश दिया कि उनका ऑटो रोज अंदर उनके एक्सचेंज तक जाने दिया जाय। बाद में लिखित आदेश भी।
शर्मा जी से पूछा बाद में कि आपने इसके लिए पहले खुद अनुमति क्यों नहीं मांगी? उन्होंने कहा -'लोग सहायता कर देते थे , इसलिए कभी जरूरत महसूस नहीं हुई।'
अंदर फिर फव्वारे को देखा। पानी इठलाते हुए उछल रहा था। पानी के अंदर इन्द्रधनुष खिला था। इंद्रधनुष के सातों रंग सात सहेलियों की तरह सटे हुए थे मानो me too at 20 के लिए फोटो जमा कर रहे हों। हमने उनको सोशल दूरी बनाकर खिलने को कहा। वो और सटकर हंसने लगे।
अंदर काम चालू था। कवरआल की सीम सीलिंग चल रही थी। सिलाई भी। रास्ते में दयाराम जी मिले। सीम सीलिंग किये हुए कपड़ों को बच्चों की तरह सहेजे हुए। मालूम हुआ कि जबसे कवरआल बनना शुरू हुआ तबसे लगातार जूटे हुये हैं। घर से काम करने के दिनों में भी यहां काम करते रहे। यह कहते हुए कि यह भी हमारा घर है।
पता चला कि जिस दिन 1000 कवरआल जाने थे उस दिन 100 से ऊपर कवरआल दयाराम जी ने ठीक किये। सुनकर, जानकर ताज्जुब हुआ कि ऐसे समर्पित कामगार के बारे में हमको पता ही नहीं। पहले मिले ही नहीं। लेकिन सुकून भी हुआ कि देर से ही सही, मिल तो लिए।
वहां से टहलते हुए कामगारों के पास टहलते हुए बतियाये। एक ने कहा -'आप जो कहेंगे, जैसा कहेंगे हम करेंगें।'
हमने उनसे कहा -'ठीक है हम काम तो बताएंगे। पहले जरा अंगौछा मुंह से हटाकर मुस्कराइए।'
वो मुस्कराने लगे। बगल के लोग हंसने लगे। इसके बाद एक जन ने दूसरे के बारे में बताया कि ये शायरी बहुत उम्दा करते हैं। हमने कहा सुनाया जाय कुछ।
कुछ सुनाया गया। हमने और लोगों ने भी दाद दी। माहौल खुशनुमा टाइप हो गया।
इसके बाद फिर क्या। दिन गुजर गया। शानदार। आज फिर नया दिन आ गया। यह भी गुजरेगा चकाचक।
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