मौके पर चोखा काम, आयुध निर्माणियों का यही पैगाम |
आजकल कोरोना बवाल के चक्कर में देश भर में लाकडाउन चल रहा है। कारखाने, बाजार, दुकान सब बन्द। गली, मोहल्ले, सड़क, चौराहे सब बन्द। घर से निकलना मुहाल। सड़क पर पकड़े गए , तो ठुके। किसी अहिंसक के हत्थे चढ़े तो मुर्गा बनकर छूट गए। किसी पढ़े-लिखे का शिकार हुए तो छाती पर --'मैंने लाकडाउन का उल्लंधन किया है' वाला इश्तहार चिपकाकर फोटू लेकर मुफ्त में विज्ञापन करना होगा।
लेकिन हमको तो रोज फैक्ट्री जाना है। कोई घड़ी तो देखनी नहीं। घड़ी क्या कैलेंडर भी नहीं देखते आजकल। कोई फायदा नहीं देखने का। सब दिन एक समान। रोज काम ही काम। कैलेंडर की लाल रंग वाली तारीखें देखकर अब गुदगुदी नहीं होती। इतवार और छुट्टियों का वीआईपी वाला पास छिन गया है।
फैक्ट्री गेट में घुसते ही तापमान देखा जाता है। थर्मल कंट्रोल वाले थरमामीटर से तापमान नापा जाता है। कट्टे की तरह मत्थे पर तान दिया जाता है थरमामीटर। लिबलिबी दबती है। तापमान आता है। बताता है -'ठीक है साहब।'
जब थर्मामीटर बन्दूक की तरह मत्थे पर तना होता है हमको दुश्मन पिक्चर का गाना याद आता है -'बलमा सिपहिया, हाय्य रे तेरी दम्बूक से डर लागे।'
गाना खूबसूरत है। नायिका की तरह। नायिका कहती भले हो डर की बात। लेकिन हमको पता है कि उसको डर-वर कुछ नहीं लगता। वह तो कहने के लिए कहती है। मोहब्बत में कहा कुछ जाता है, मतलब कुछ और होता है।
कोरोना का डर भले ही दुनिया भर में फैला हो लेकिन अपन को डरने की फुर्सत ही नहीं मिलती। काम में जुटे रहते हैं। टाइम ही नहीं मिलता। कब डरें। कोरोना भी सोचता होगा कि अजीब लोग हैं यार ये। जिससे सारी दुनिया हलकान है , उसको ये जरा भी इज्जत नहीं दे रहे ये लोग। अब हम कैसे समझाएं उस 'भले वायरस' को कि डरना तो फुरसत वालों का काम है। हमको कहां फुर्सत डरने की।
हमको तो काम से ही फुरसत नहीं। कब डरें। कित्ता डरें।काहे के लिए डरें। खाली डरें की मरें भी। डरने के बाद मरने की बात गब्बर जी कह ही गए हैं-' जो डर गया, समझो मर गया।' विकट कन्फ्यूजन है। इसलिए डरना हो नहीं पा रहा बिल्कुल।
और फिर हमको कोई डरने का टारगेट थोड़ी मिला है कि इत्ता डरना है इत्ते दिन में। हमको तो जो टारगेट मिला है वो करने में जुटे हैं। हमको टारगेट मिला है डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए कपड़े बनाने, मास्क बनाने का, डिस्पोजेबल बेड रोल बनाने का। सो बना रहे हैं।
बहरहाल मत्थे पर से 'थर्मल कट्टा' हटते ही हम अंदर आते हैं। सामने ही पानी का फव्वारा खिलखिलाते हुए हमारा स्वागत करता है। हमारा मन सैनिटाइज हो जाता है। लगता है कि फव्वारे ने अभयदान दे दिया है, मस्त होकर काम करो। हमारे रहते कोई चिंता की बात नहीं। ऊपर से सूरज भाई मुस्कराते हुए मानो फव्वारे की बात पर अपनी मोहर ठोंक कर हमको और निश्चिन्त कर देते हैं -'निशा खातिर रहो। मजाल है हमारे रहते कोई छू जाए तुमको।'
अंदर पहुंचकर इधर-उधर व्यस्त हो जाते हैं। कोई न कोई आदेश देते हुए काम शुरू कर देते हैं।
आदेश की बात से याद आया कि अफसर का काम ही आदेश देना होता है। आदेश उचित है, अनुचित है , तर्क पूर्ण है, बेवकूफी भरा है यह देखने का काम उसका थोड़ी है। यह तो आदेश का पालन करने वाले झेलें।
आदेश का सौंदर्य , आदेश के अटपटे पन में निखरता है। किसी काम करते हुये आदमी को काम शुरु करने का आदेश देंना भी इसी तरह का आदेश है। हम जाते हैं तो लोग सिलाई में जुटे होते हैं। हम आदेश देते हैं, सिलाई में जुट जाओ। वो हमारी बात से बेखबर काम में जुटे रहते हैं, हम समझते हैं, हमारे कहने से जुटे हुए हैं।
किसी को यह बात अहमकपने की लग सकती है। लेकिन किसी को लगने के लिए हम क्या कर सकते हैं। कुछ लोग तो हमको बहुत काबिल भी समझते हैं। हम उनको भी कुछ नहीं सकते। कोई कुछ समझे लेकिन हमको तो पता कि हमारी असलियत क्या हैं। लेकिन जहां तक अहमकपने की बात है तो हम यही कह सकते हैं कि यह हमारी सहज प्रवृत्ति है। मौलिकता है। अपने मौलिक गुणों में से एक को हम संकट काल में कैसे छोड़ सकते हैं।
काम में जुटने वाले एक नहीं , अनेकों हैं। लाकडाउन की पूरी इज्जत करते हुए , सामाजिक दूरी बनाते हुए सब लोग जुटे हुए हैं।' नौ की लड़की नब्बे खर्च ' को पूरी इज्जत मिल रही है। हाल यह कि 5000 रुपये के टेप के दो रोल लेने के लिए आदमी शाहजहांपुर से फिरोजाबाद दौड़ गए। जरा सा केमिकल लाने के लिए कानपुर के लिए गाड़ी दौड़ा दी।
हमारी तो जरूरत की बात , वह भी कठिन समय में। लोग तो शांतिकाल में भी मजे करते हैं। सुना है अपने किन्ही मंत्री जी को घर का खाना बहुत पसंद था तो उनके लिए नाश्ता लाने के लिए उनके विभाग का जहाज घर -जिले से राजधानी आता जाता था।
सप्लायरों के हाल यह हैं कि कोई भी सामान मंगाओ, उसके कलेक्शन के लिए गाड़ी भेजवाओ। पहले पैसा जमा करो , फिर माल लदवाओ।
आयुध निर्माणियां आजकल युध्द मुद्रा में हैं। जिस भी काम की जरूरत हुई उसको पूरा करने के लिए जुट गयीं। डॉक्टरों के लिए ड्रेस बनने के लिए उनकी टेस्टिंग का देश भर में केवल दो जगह सुविधा थी। कोयम्बटूर में और ग्वालियर में। एक तो सैम्पल पहुंचना मुश्किल । पहुंच गया तो टेस्टिंग में लम्बी लाइन। हफ्ता लग जाता । हर दिन रिजल्ट की तारीख आगे बढ़ जाती।
ऐसे में दो ही काम होते हैं या तो चुपचाप इंतजार करो या फिर रास्ता निकालो। अब जब कोई चुनौती हो तो चुप बैठना हम लोगों की फितरत में कहां। हमारा तो कहना है : -
' अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे'
फिर क्या! हमारी निर्माणियों के लोग जुट गए महानिदेशक के आह्वान पर। आज हाल यह कि जो सुविधा पूरे देश में मात्र दो जगह है वह हफ्ते भर में हमारी तीन निर्माणियों में हो गयी। अगले तीन-चार दिन में तीन जगह और हो जाएगी। सबसे पहले कानपुर की आयुध निर्माणी, कानपुर ने उपकरण बनाया, फिर स्माल आर्म्स में बना, उसके बाद टैंक बनाने वाली फैक्ट्री एच वी एफ ,अवाडी में भी बना। कर लो जितनी मन चाहे टेस्टिंग। और बताओ क्या चाहिए।
किस्से अनगिनत हैं। इत्ते की सुनाते हुए हमारा मुंह तक जाये, सुनते हुए आपके कान पक जाए। लिखते हुए हमारी उंगलियां थक जाएं, पढ़ते हुए आपकी आंखें थक जाएं। लेकिन समय नहीं है अभी इन सब बातों का। अभी तो काम पर निकलना है।
जो लोग घर में बैठे हैं वो अच्छे से रहें। लेकिन जो काम पर आ-जा सकते हैं वो काम पर आये-जाएं। विश्वास करिये जित्ती देर आप काम में जुटे रहेंगे, उत्ती देर तक कोई डर आपके पास नहीं फटकेगा।
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