हमारे घर के पास बनते ओवरब्रिज के बगल से गुजरती सड़क। रोजी-रोटी और खरीददारी के लिए कानपुर आये लोग वापस शुक्लागंज, उन्नाव लौट रहे हैं। हरेक को वापस लौटने की जल्दी है।
ओवरब्रिज नहीं बना था तो सड़क चौड़ी थी। आगे क्रासिंग पर ट्रेनों के आने पर बन्द होती थी। भीड़ होती थी। जाम लगता था। जाम से निपटने के लिए ओवरब्रिज बनना शुरू हुआ। दो साल हमको हो गए देखते। इसके पहले से बन रहा है ब्रिज। कब पूरा होगा , पता नहीं।
कभी दिन में कई बार खुलने-बन्द होने वाली क्रासिंग अब स्थाई रूप से बंद है।
पुल बनने से पहले सड़क के दोनों तरफ बने शानदार बंगलों के हाल बेहाल हो गए है। संकरी सड़क से उनमें घुसना और निकलना कष्टकारी हो गया। जिन बंगलों को एलॉट करवाने के लिए अफसरों में मारामारी होती थी अब उनमें लोग जाना नहीं
चाहते।
एक चौड़ी सड़क तीन हिस्से में बंट गयी है। बीच का हिस्सा पुल के लिए रखकर उसके अगल-बगल पतली , पगडंडी या कहें कुलिया टाइप सड़के निकल आयी हैं। पतली सड़क पर अक्सर सवारियां आमने-सामने से आकर जाम की सर्जना करती हैं। पर अमूमन जाम घण्टे-दो घण्टे में साफ हो जाता। इतने समय में तो चुनाव के समय कोई विवादास्पद बयान भी साफ हो जाता है।
शाम को लौटती हुई सवारियां किसी सुरंग में जाती दिखती हैं। 'सड़क सुरंग' के मोड़ पर मुड़कर पुराने पुल से होते हुए निकल जाएंगे शुक्लागंज से उन्नाव।
जब मैं इस इलाके में आया था तो सोचता था कि गंगा पुल पर रोज जाऊंगा। गंगा और पुल पर रोज पोस्ट लिखूंगा। 'पुलिया पर दुनिया' के बाद 'पुल से दुनिया' देखूंगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। वैसे भी पुलिया ठहरकर बैठने के लिए होती है। पुल इस पार से उस पार जाने के लिए होता है। ठहराव की गुंजाइश नहीं वहां। लेकिन जाने का मन तो होता है वहां। अभी भी मन किया चला जाये।
लेकिन अभी तो काम भर की रात हो गयी। इस समय जाने से क्या फायदा पुल पर। रास्ते में कुत्ते दौड़ा लेंगे। क्या पता कोई काट ही ले। चार ठो इंजेक्शन लगवाने पड़ें। आजकल कुत्ते काटने पर लगने वाले इंजेक्शन भी कम आ रहे हैं। पिछले दिनों हमारे बंगले में एक बच्चे को एक पिल्ले ने काट लिया तो इंजेक्शन मिलने में समस्या हो गयी। शहर खोजना पड़ा।
बहरहाल अब सोना ही सबसे बेहतर विकल्प हैं। सो जाय नहीं तो ग्यारह बज जाएंगे। इसके बाद बारह बजेंगे और फिर तारीख बदल जाएगी। तारीख बदले इसके पहले नींद के इलाके में घुसकर सुरक्षित हो जाया जाए।
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