इधर-उधर टहलते हुए स्टेशन की तरफ बढ़ गए। एक शटर बन्द दुकान के बाहर एक हज्जाम अपना सैलून सजा रहे थे। लकड़ी की कुर्सी। कटोरी में पानी। साबुन और दीगर हिसाब। सुबह हो गयी। दुकान सज गयी।
हमारे देखते-देखते एक ग्राहक आकर बैठ गए - तख्त-ए-हज्जाम पर। ग्राहक खुदा का नूर होता है। ग्राहक भगवान होता है। हज्जाम जी ग्राहक को कुर्सी पर बैठाकर साबुन लगाने लगे।
दुकान के सामने फुटपाथ पर सैलून है। दुकान खुलने पर कैसे चलता है ? - हमने पूछा।
दुकान बंद रहती है। खुलती नहीं। एक दुकान बंद होने पर उसके सामने दूसरी दुकान खुल जाती है। दुकानों का सिलसिला चलता रहता है। यह बात हर तरह की दुकान पर लागू होती है -हज्जाम की हो या बजाजे की। धर्म, राजनीति की दूकानों पर भी यह बात लागू होती है। समय के साथ पुरानी दुकान बढ़ जाती है, नई खुल जाती है।
कित्ते पैसे में हजामत बन जाती है? -चलते-चलते बेवकूफी का सवाल पूछ लिया मैंने।
"सब टोले-मोहल्ले के लोग हैं। अपने-अपने हिसाब से दे देते हैं। कोई दस, कोई बीस।" -कुर्सी पर बैठे ग्राहक ने बताया।
आज के समय में भी टोले-मोहल्ले की बात कहने वाले हैं।
आगे गली में एक जगह खूब सारी साइकल इकट्ठा थीं। हमारे देखते-देखते एक आदमी ने एक साइकिल की गद्दी पर हाथ मारकर साइकिल की सुस्ती झाड़ी। नाम और समय लिखाया और उचककर गद्दीनसीन होकर चला गया।
पता चला यह किराए की साइकिल का ठीहा है। 20 रुपये रोज पर किराए की साइकिल मिलती है। महीने की 600 रुपये। हमको कालेज के दिन का किराया याद आया। 30 पैसे घण्टे साइकिल मिलती थी किराये पर। आठ घण्टे के 2रुपये 40 पैसे हुए। 39-40 साल पहले की बात। मतलब साइकिल का किराया लगभग दस गुना बढ़ा है।
अंदर दुकान में तमाम साइकल अपने किराये पर जाने के इंतजार में जमा थीं। गुमसुम सी साइकिलें। मन किया कि सब साइकिलों को एक साइकिल सवार मुहैया करा दें। साइकलें चहकती हुई अपने सवार के साथ टुनटुनाती हुई सड़क पर मस्ती करें। लेकिन मन करने से क्या होता है?
मन की बात को वहीं स्थगित मतलब विर्सजित करके हम अपनी साइकिल स्टार्ट करके चल दिये।
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