इतवार के दिन साइकिल चली। खूब चली। सात बजे शहीद पार्क तिराहे पर मिलने की बात हुई थी Pathak जी से। घर से निकलते ही सात बज गए।
साइकिल के पिछले पहिये में हवा कम थी। लेकिन चल रही थी आराम से। हर अगला पैडल मारते हुए सोचते जाते -' हवा भरवानी है।'
सड़क साफ थी। लिट्टी-चोखा वाला कड़ाही में कंडे सुलगाये बैगन भून रहा था। भर्ता बनेगा इनका। गोलमोल रहने वालों का भर्ता ही बनता है।
एक बुजुर्गवार सड़क पर एकदम अनुशासन में टहल रहे थे। दूसरे बुजुर्ग सड़क पर कर रहे थे। दांए-बाएं , बाएं-दाएं देखते हुए। हमको केदारनाथ जी की कविता याद आ गयी:
मुझे आदमी का सड़क पार करना
हमेशा अच्छा लगता है
क्योंकि इस तरह
एक उम्मीद सी होती है
कि दुनिया जो इस तरफ है
शायद उससे कुछ बेहतर हो
सड़क के उस तरफ।
पुल पार करके त्रिमूर्ति तिराहे पर वीर रस के तीनों कवि चुपचाप खड़े दिखे। रात भर कवि सम्मेलन के बाद सुबह के थके हुए कवियों की तरह, जिनको कविता पढ़वाई मिलने में देर हो रही हो।
साइकिल यात्री हमारे इंतजार में थे। हमारे पहुंचते ही चल दिये। मंजिल थी गर्रा पुल। करीब 9 किमी। शहर के बीच से होते हुए गए। लोग अपने घरों की सफाई करते दिखे, घर का कूड़ा सड़क पर डालते। कुल्ला करते दिखे। पानी की रबर पाइप से सड़क धोते दिखे। एक जगह भूसा खाली हो रहा था।
शाहजहाँपुर की सड़कें कम चौड़ी हैं लेकिन सड़क के दोनों तरफ नाले खूब चौड़े हैं। दोनों तरफ के नाले की चौड़ाई मिला लें तो सड़क की चौड़ाई के बराबर पड़ेंगे। लोगों ने नाले के ऊपर लेंटर डालकर घर तक पहुंचने का रास्ता बनाया हुआ है। कुछ लोग उन पर चारपाई डाले आराम करते भी दिखे।
साइकिल की हवा भरवाई गयी अहिबरन की दुकान पर। मुंह में बीड़ी सुलगाते हुए अहिबरन ने बताया कि कचरा फँसा है छुच्छी में। निकाला गया। साइकिल का पेट हवा से भर गया तो फुर्ती से चलने लगी।
शहर खत्म हुआ तो खेत शुरू हुए। सड़क के दोनों तरफ गन्ने के खेत। एक जगह खेत के बाहर मोटरसाइकिल और साइकिल खड़ी करके लोग गन्ने काट रहे थे। हमें लगा चोरी कर रहे हों। लेकिन लौटने तक भी वे कटाई करते रहे। मतलब खेत उनका ही होगा। चोरी करने वाले इतनी देर तक नहीं रुकते।
सड़क किनारे एक बंदर सीने पर दोनों हाथ रखे शांत बैठा था। ऐसे जैसे कोई चिंतक देश चिंता में जुटा हो। उसके आगे ही बंदर जोड़ा बैठा था। बंदरिया के शरीर पर कुछ लाल निशान दिखे। क्या पता वह घरेलू हिंसा का शिकार हुई हो। दोनों लड़ झगड़कर शांत मुद्रा में बैठे थे। हो सकता है उनके लड़ने की बात मेरी खाम ख्याली हो। लेकिन अपन तो यही सोच रहे। इंसान जैसा होता है, वैसा ही तो दूसरे के बारे में सोचता है।
जगह-जगह खेतों के बीच की जगह पर साधुओं-फकीरों के डेरे दिखे। तंबू में, कच्ची-पक्की झोपड़ियों में बाबा जी लोग भजनरत थे। कहीं से आये होंगे। खाली जमीन पर झोला धर दिया। धार्मिक स्थल डाल दिया। चल गया तो चंदा, चढ़ावा आने लगा।
गर्रा नदी के पुल पर पहुंचकर फोटोबाजी हुई। साथ के लोग अपने-अपने अनुभव बताते बतियाये। तय हुआ कि आगे नगरिया मोड़ तक चला जाये। नगरिया मोड़ पर फिर फोटोबाजी हुई। इसके बाद लौटना।
साथ चलते Ashish जी सड़क किनारे लगाये कदम्ब के पेड़ों की जानकारी देते गये। साल भर पहले लगाए गए पेड़ अब बड़े हो गए थे। दो साल में पूरे बालिग हो जाते हैं कदम्ब के पेड़। आशीष जी जुनूनी अंदाज में पेड़ लगाने के काम में जुटे हैं। अपनी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा पेड़ लगाने में खर्च करते हैं। शहर में एस. पी. बंगले के पास नई नर्सरी लगाई है। पूरा शहर हरा-भरा करना है। Halftree में देखिये इनके लगाए पेड़ों के बारे में।
लौटते हुए लोग अपने-अपने घरों की तरफ चलते गए। हम और पाठक जी साथ वापस आये। रास्ते में एक आदमी ठेले पर कुछ किताबें लिए जा रहा था। शायद बस स्टैंड। किस्सा तोता मैना घराने की किताबें। एक महिला ने ठेले वाले को रोका। हमको लगा कोई किताब खरीदेगी। लेकिन बुढ़िया ने बुजुर्ग से कहा-'दो पुड़िया मसाला दे देव।' किताबें कोई नहीं खरीदता, सब मसाला खरीद रहे हैं।
चौराहे पर मजदूरों की भीड़ थी। वे इंतजार में थे कि कोई उनको दिहाड़ी पर ले जाये। इनमें राजगीर, पुताई वाले और दूसरे मजदूर थे। इतवार का दिन था लेकिन दिहाड़ी मजदूर के लिए कोई इतवार नहीं होता।
रास्ते में पंकज की दुकान पर चाय पी गयी। पंकज देर से उठे थे। नहा रहे थे। हमने इंतजार किया। साथ में चाय पी। पंकज की माँ और पिताजी से भी बतियाये। पंकज ने बताया कि उनके बारे में लिखी पोस्ट उसने पढ़ी है और सबको धन्यवाद भी दिया है।
लौटते हुए कामसासू काम्प्लेक्स गये। कामगार लोग मशीनों पर बैठ गए थे। हर तरह के काम के उस्ताद हैं ये लोग। सब दीपावली पर घर जाने के इंतजार में हैं।
रामलीला मैदान के पास एक आदमी वेल्डिंग मशीन ले जाते दिखा। नाम दिखा -'जलालुद्दीन वेल्डर।' जलालुद्दीन से हमको जलालुद्दीन अकबर याद आये। वो जहाँपनाह थे, ये वेल्डर। हैसियत में भले अंतर हो लेकिन काम दोनों का जोड़ने का रहा।
पता चला खिरनीबाग से आये हैं जलालुद्दीन। हमने पूछा -'इतनी दूर से आते हो वेल्डिंग का काम करने?'
'पेट की आग बहुत दूर तक ले जाती है'-जलालुद्दीन का जबाब था।
हम कुछ कहे बिना वापस लौट आये। लेकिन लौटने के पहले भी कुछ हुआ वह भी सुना ही दें।
हुआ यह कि जलालुद्दीन की वेल्डिंग मशीन को देखते हुए हम आगे निकल गए। नाम देखकर पीछे मुड़े। मुड़कर देखते हुए सड़क किनारे साइकिल एक तरफ झुक गई । हम भी झुके। साइकिल और झुकी। सम्भलते-सम्भलते हम इतना झुके कि सड़क से जुड़ गए। मतलब जमीन पर चू गए एक तरह से। पैंट और टी शर्ट पर धूल की मोहर लग गयी।
गिरते ही फौरन अपने आप उठे। उठने के बाद कई लोग उठाने के लिए लपके। लेकिन हम तब तक उठ गए थे। गिरते हुए को और गिराने के लिए तथा और गिर कर उठ चुके को उठाने वाले बड़ी ततपरता से मिलते हैं। उठकर साइकिलियाते हुए घर आ गए।
कुछ देर बाद पता चला कि चश्मे का एक ग्लास गायब। लगा वहीं गिरा होगा जहां हम गिरे थे, मतलब चुये थे। गये। खोजा। मिला नहीं शीशा चश्में का।
बहरहाल शाम को चश्में की दुकान पर गए। शीशा बन गया। 200 रुपये ठुक गए लेकिन बार-बार निकलते शीशे की जगह पुख्ता शीशा लग गया।
सुबह अख़बार देखा। हमारी साइकिलिंग की फ़ोटो दिखी। हमको श्रीलाल शुक्ल जी की बात याद आई -'सरकारी अफसर जहां निकल जाता है , वहीं उसका दौरा हो जाता है।'
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