हमारे घर में एक शाम को महफ़िल जमी थी 1994-95 में कभी। उसमें Shahid Razaशाहिद रजा ने कुछ शेर और एक गजल पढी थी। उनको मैंने टेप किया था। संयोग से वे नेट पर भी डाले थे। उनको सुनते हुये कई आवाजें ऐसे भी सुनाई दीं जो अब शान्त हो गयीं। पंखे की आवाज में किये गये इस टेप में शाहजहांपुर के कवि दादा विकल जी की वाह-वाह करती हुयी आवाज भी है जो शहीदों की नगरी शाहजहांपुर के बारे में कहते थे:
पांव के बल मत चलो अपमान होगा,
सर शहीदों के यहां बोये हुये हैं ।
शाहिद रजा के शेर यहां पोस्ट कर रहा हूं। जो लोग वहां उस दिन थे वे उसको महसूस कर सकेंगे और आवाज भी पहचान सकेंगे।
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये
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जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड़ आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड़ आये।
हमारी उम्र तो शायद सफर में बीतेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड़ आये।
फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड़ आये।
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड़ आये।
हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड़ आये।
ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड़ गयी 'शाहिद'
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये।
शाहिद रजा, शाहजहांपुर
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