Sunday, January 31, 2021

शुरुआत खुराफात से

 

हमारे कानपुर की Anita Misra सामाजिक , खासकर महिलाओं-बच्चों से जुड़े , मुद्दों पर, निरन्तर लिखती रहती हैं। सामाजिक विसंगतियों को रेखांकित करते हुए सवाल उठाती रहती हैं। उनकी दोस्त Bhavna Mishra भी इसी घराने की हैं और कानपुर में होने वाले साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों से जुड़ाव रखती हैं। अनिता बहुत दिन बाद फेसबुक पर वापस लौटी तो शुरुआत खुराफात से की।कनपुरिया अंदाज में सोशल मीडिया पर धमाल मचाने वाले शायर फिजूल एफ ट्विटरी साहब का इंटरव्यू लिया। शायर की भूमिका में हैं भावना मिश्रा के सुपुत्र राघव। सुनिए / देखिये । मौज की पक्की गारंटी।

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Wednesday, January 27, 2021

दिहाड़ी मजदूरों का गणतंत्र दिवस


कल फैक्ट्री में गणतंत्र दिवस समारोह के बाद 'कामसासू काम्प्लेक्स' गए। यहां निर्माणी से सिलाई के ऑर्डर पाए लोगों के शेड्स हैं। दिहाड़ी सिलाई मजदूर काम करते हैं। दिन भर के दस से बारह घण्टे काम करते हैं लोग। बाहर से आये कुछ लोग तो निपटने, खाने और सोने के अलावा काम ही करते दिखते हैं। इतनी मेहनत के बाद दिहाड़ी 400 से 500 तक होगी।
कल काम की जगह पर उत्सव का माहौल था। कुछ लोग मैदान पर ईंटो का विकेट लगाए क्रिकेट खेल रहे थे। कुछ देख रहे थे। झाड़ियों के बीच क्रिकेट हो रहा था। लगान पिक्चर का सीन टाइप लग रहा था।
कुछ जगह काम भी चल रहा था। कोई ओवरऑल बना रहा था, कोई बैग किट। महिलाएं कपड़े फोल्ड करने के काम में लगीं थीं। हमने उनसे फिर कहा -'तुमको सिलाई करनी चाहिए, ज्यादा पैसे मिलेंगे।'
वे हंसने लगीं। एक ने कहा -'यहां औरतों को सिलाई का काम नहीं मिलता।'
शेड के अंदर ही कुछ लोग झंडा तैयार बना रहे थे। बाहर से तिरंगा झंडा खरीद कर लाये। प्लास्टिक की रस्सी से बांस पर बांधा। झंडा तैयार हो गया। उसे फहराने के लिए मैदान में लाया गया। मैदान में झंडा लगने की कोई जगह नहीं।
झंडा लगाने की कोई नहीं तो क्या? जुगाड़ बनाया गया। जमीन पर कुछ ईंटे जमाकर उनके बीच झंडे का डंडा जमाया गया। फिर भी हिलडुल रहा था झंडा। उसकी भी जुगत बनाई गई। एक मोटरसाइकिल मैदान में लाई गयी। उसके कैरियर से झंडा बांधकर तैयार किया गया-' कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं मन चाहिए।' झंडा फहराने के लिए तैयार हो गया।
वहां मौजूद लोगों ने मुझसे झंडा फहराने के लिए कहा। मैंने कहा -'तुम लोगों ने तैयारी की। तुम लोग फहराओ। हम देखेंगे।'
लोगों ने नवीन को फोन किया। नवीन अपने शेड की सिलाई आदि का इंतजाम देखते हैं। चिनौर में रहते हैं। बोले -'अभी आते हैं।' लोगों ने कहा-'जल्दी आओ। जीएम साहब खड़े हैं।'
इस बीच लोगों से बात होती रही। एक ने कहा-'यहां झंडा फहराने के लिए स्थाई जगह बनवा दीजिए।'
दूसरे ने कहा -'बंदर पानी की टँकी का ढक्कन खोलकर उसमें नहाते हैं। पानी गन्दा कर देते हैं। उसका कोई इंतजाम करिये।'
इसके बाद बात दिहाड़ी पर आ गयी। लोगों का कहना था -'पिछले कई सालों से मंहगाई लगातार बढ़ रही है। लेकिन मजदूरी उतनी ही बनी हुई है। कैसे काम चलेगा? आप कुछ करिये।'
हमने बताया -'सिलाई का काम तो टेंडर से मिलता है। जो सबसे कम दाम लेता है उसको ठेका मिलता है। हम इसमें कुछ नहीं कर सकते।'
लोग बोले-'बात तो आपकी सही है। लेकिन सोचिए कि दिन पर दिन मुश्किलात बढ़ रही हैं। मजदूरी से पेट नहीं भरता। मजबूरी में करना पड़ता है।'
दूसरे ने बताया-'इसीलिए नई जनरेशन सिलाई का काम करना नहीं चाहती।सिलाई खत्म हो रही है।'
एक 65 साल के बुजुर्ग ने बताया-'उनके बेटे अपने पैरों पर खड़े हैं। सबकी शादी हो गयी। लेकिन खुद का पेट पालने के लिए सिलाई करनी पड़ती है।'
इस बीच ध्वजा रोहण की तैयारी होती रही। लोगों ने झंडे के बीच फूल भी लगा दिए। किसी ने पूछा -'जनगणमन आता है?'
'जनगणमन किसको नहीं आता होगा। जो भी स्कूल गया है उसको आता होगा। जो नहीं भी गया उसको भी आता होगा।'- किसी दूसरे ने जबाब दिया।
इस बीच नवीन आ गए। उन्होंने मुझसे झंडारोहण के लिए कहा। मैंने कहा-'तुम फहराओ। तुम यहाँ के इंचार्ज हो। अपने दल के।'
तब तक सब लोग इकट्ठा हो गए थे। काम करने वाले लोग भी आ गए। जो नहीं आये उनको बुलाया गया। लोगों ने जनगणमन गाना शुरू कर दिया। झंडा पहले से ही फहरा रहा था। जनगणमन गाने के बाद झंडे की डोरी खींची गई। बूंदी के लड्डू बंटे। बहुत दिन बाद खाये बूंदी के लड्डू।
इस दिहाड़ी मजदूरों द्वारा मनाया गया गणतंत्र। गणतंत्र ऐसे ही लोगों के कारण ही टिका हुआ है।

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Tuesday, January 19, 2021

जहां तक हो सके

 

और यदि तुम अपना जीवन
वैसा नहीं बना सकते जैसा चाहो,
तो इतना करो कम से कम:
उसे सस्ता मत बना दो।
दुनिया के बहुत साथ रह के
बहुत बातें करके।
दर-दर मारे-मारे फिर कर
लोगों की दैनिक मूर्खताओं से घिरकर,
जगह-जगह बार-बार दिखकर,
कभी मत बनने दो अपना जीवन
किसी के लिए भी इतना आसान
कि वह भार बनने लगे-
जैसे एक अनचाहा मेहमान।
कान्सटैन्टीन कवाफ़ी
यूनानी कवि
29.04.1883- 29.04.1933
अनुवाद - कुँवर नारायण
विश्व कविता संकलन -'प्यास से मरती एक नदी'से

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Tuesday, January 05, 2021

ऐसे लोगों से दूर रहें जिनकी सांस ठंडी होती है

 माचिस की तीली के जलने का सिद्धांत यह है कि उसके सिरे पर लगे फास्फ़ोरस पर साधारण तापमान की हवा यानी ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. जब हम डिब्बे के एक तरफ की खुरदरी सतह पर तीली को घिसते हैं तो घर्षण से दोनों के बीच की हवा का तापमान बढ़ जाता है जिसके नतीजे में तीली के सिरे पर लगा फास्फ़ोरस एक छोटे विस्फोट से जल उठता है.

लॉरा एस्कीवेल के मैक्सिकी उपन्यास ‘जैसे चॉकलेट के लिए पानी’ के एक अध्याय में जॉन नाम का डाक्टर कई दुखों से एक साथ जूझ रही कहानी की नायिका तीता को वैज्ञानिकी नुस्खे से माचिस बनाकर दिखाता है. वह उसे अपनी दादी का बताया हुआ एक और नुस्खा बतलाता है -
“हम सब अपने भीतर एक माचिस का डिब्बा लेकर पैदा होते हैं लेकिन हम अपने आप उसमें से एक भी तीली नहीं जला सकते. लेकिन बिना ऑक्सीजन और मोमबत्ती के वह संभव नहीं होता. हमारे मामले में ऑक्सीजन उस व्यक्ति की सांस से आएगी जिसे हम प्यार करते हैं जबकि मोमबत्ती का काम खाना, संगीत, दुलार या वे शब्द करेंगे जो उस चमकदार विस्फोट को घटने में मदद करें. उससे हमारे भीतर ऐसी गर्मी पैदा होती है जो हमें ज़िंदा रखती है. वक्त के साथ-साथ यह गर्मी कम होती जाती है. एक वैसा ही दूसरा विस्फोट उसे पुनर्जीवित कर सकता है.”

“हर व्यक्ति को जीवन में यह ढूंढना होता है कि ऐसे विस्फोट उसके भीतर कैसे होंगे क्योंकि इन्हीं विस्फोटों में हमारी आत्मा के लिए जीवन छिपा होता है. अगर वह समय रहते यह नहीं ढूंढ पाता कि ये विस्फोट उसके भीतर कैसे होंगे तो उसका माचिस का डिब्बा सील जाता है और उसके बाद एक भी माचिस नहीं जलाई जा सकती.”

“ऐसा होने पर उस शरीर की आत्मा सबसे काले रंगों की तरफ भटकने को शरीर से बाहर निकल जाती है – व्यर्थ प्रयास करती हुई कि वहां उसे अपने लिए भोजन मिलेगा लेकिन उसके भोजन का स्रोत तो दरअसल उसके शरीर के भीतर ही होता है जिसे वह ठंडा और असुरक्षित छोड़ आई होती है.”
“इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि आप ऐसे लोगों से दूर रहें जिनकी सांस ठंडी होती है और जो आपके भीतर की हर आग को बुझा देते हैं.”
Ashok Pande की वाल पोस्ट से साभार

Monday, January 04, 2021

प्यार, शुभकामना और आशीर्वाद की उठाईगिरी

 पिछले कई दिनों से देख रहा हूँ कि लोग हमसे बिना पूछे हमारा प्यार और शुभकामनाएं और यहां तक कि आशीर्वाद तक उठा के ले गए। बिना बताए। अब चूंकि यह सब हमारे पास इफरात में रहता है इसलिए कभी इसका हिसाब नहीं रखा लेकिन बिना बताए कोई हमारा सामान ले जाये तो बुरा लगता है न!

हमको प्यार, शुभकामना और आशीर्वाद के उठाईगिरी का पता भी न चलता अगर उन लोगों ने सूचित न किया होता -'आपके प्यार, शुभकामनाओं और आशीर्वाद से पच्चीसवीं, तीसवीं किताब आ रही है।'
मजे की बात यह बात हमको डंके की चोट पर बता भी देते हैं लोग। कर लो जो करते बने।
हमको तो डर लगता है इससे कहीं दिन प्रतिदिन कम होते पाठकों के साथ हुए इस तरह के अत्याचार में हमारी गैर इरादतन भागेदारी न साबित हो जाये।
हम कोई मना थोड़ी करते प्यार, शुभकामनाएं और आशीर्वाद देने से लेकिन एक बार पूछना तो चाहिए था। है कि नहीं? 🙂
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महामारियों में समाज का व्यवहार

 महामारियों में समाज का व्यवहार शायद एक जैसा रहता है। पिछली शताब्दी में प्लेग महामारी को केंद्र में रखकर   अल्बैर कामू ने उपन्यास लिखे उपन्यास ' प्लेग' को पढ़ते हुए लगा कोरोना काल की स्थितियां भी ऐसी ही हैं। कुछ अंश देखिये:

1. एक तो शहर को बन्द कर दिया गया था और बंदरगाह में दाखिल होने की मनाही थी, और दूसरे, चूंकि वे एक विशिष्ट मन:स्थिति में थे और हालांकि अपने दिलो की गहराई में वे अब भी अपने ऊपर आई मुसीबत की भयंकरता को स्वीकार करने में असमर्थ थे, वे यह अनुभव किये बिना न रह सके थे कि कोई चीज निश्चित रूप से बदल गयी है। फिर भी, अधिकांश लोग अभी भी यह उम्मीद यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि यह महामारी जल्द ही गुजर जाएगी और वे और उनके परिवार सुरक्षित बच जाएंगे। इसलिए वे अभी तक अपनी आदतों में कोई परिवर्तन करने की जरूरत नहीं महसूस करते हैं। उनके लिए प्लेग एक अनयाचित आगंतुक की तरह थी जो उसी तरह अचानक चली जायेगी जिस तरह आयी थी। वे घबराये तो थे , लेकिन अभी तक हताश नहीं हुए थे कि प्लेग उन्हें अपने अस्तित्व के दुर्निवार तंतु के रूप में दिखाई देती और अब तक उन्होंने जिस जिंदगी का उपयोग किया था , उसको ही भूल जाते।

2. ऐसे मौकों पर चीन के लोग प्लेग के देवता के आगे डफली बजाने लगते हैं, यह मत प्रकट किया कि यह बताना मुमकिन नहीं है कि क्या सचमुच व्यवहारतः  छूत रोकने की एहतियाती कार्यवाहियों के मुकाबले डफली ज्यादा कारगर साबित होती थी?

-अल्बैर  कामू के उपन्यास 'प्लेग' से

प्लेग उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है।

Saturday, January 02, 2021

गड़बड़ियां आश्वस्ति का प्रतीक हैं

 

गड़बड़ियां आश्वस्ति का प्रतीक हैं
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कल नया साल आ गया। आजकल सब लोग आना-जाना मुल्तवी किये हुए हैं लेकिन नया साल बेधड़क आ गया। बिना 'मे आई कम इन सर' कहे घुस आया दुनिया में। हम किसी को रोकते थोड़ी हैं आने से लेकिन पूछना तो चाहिए न। किसी दफ्तर में काम करता होता तो नए साल का अफसर इसी बात पर इसकी चरित्र पंजिका में प्रतिकूल प्रविष्टि कर देता। बहुत बेसउर लगता है नया साल।
नए साल को न कोरोना से डर न फोरोना से दहशत। लगता है वैक्सीन मिल गयी है नए साल को। ठुकवा के आ गया।
वैक्सीन का भी मजेदार मामला। तमाम कम्पनी वाले अपनी-अपनी वैक्सीन निकाल रहे हैं। कम्पनी के हिसाब से वैक्सीन के असर भी होंगे। डिजाइनर लोगों के लिए ब्रांडेड वैक्सीन , आम लोगों के लिए जेनेरिक टीका। क्या पता, सस्ती वाली वैक्सीन सरकारी अस्पतालों में मुफ्त मिलने लगे।
असली वैक्सीन भले अलग-अलग हों लेकिन नकली वैक्सीन एक दाम मिले शायद। हरेक पर लिखा होगा -'नक्कालों से सावधान।'
क्या पता नकली वैक्सीन वाले चेतावनी भी जारी करें-'हमारी नकल करके कुछ लोग मंहगे दामों पर नकली वैक्सीन बेच रहे हैं। कोई कम्पनी मंहगी वैक्सीन बेचता दिखे तो उसकी रिपोर्ट पुलिस में करायें। देश की जनता को नक्कालों से बचाएं।'
इसी चक्कर में कई असली वैक्सीन वाले क्या पता अंदर हो जाएं। नकली वैक्सीन वाले वैक्सीन किंग बन जाएं।
ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं। तमाम डिफॉल्टर लोग जबरियन जनता की जबरियन भलाई करने के काम में लगे हैं। जनता अपनी भलाइयों से हलकान किये हुए हैं।
जनता बेचारी कहती होगी -'भैया हमको बक्श दो। हमारी सेवा न करो। कृपा करो।हमको हमारे हाल पर छोड़ दो।'
लेकिन भला करने वाले जबर डिफाल्टर भला कैसे मान जाये। निरीह जनता से कहते होंगे-'तुम कौन होती हो मुझे अपनी सेवा के अवसर से वंचित करने वाली। हमको तुम्हारी भलाई का ठेका मिला है। तो सेवा तो तुम्हारी हम करके रहेंगे। किसी माई के लाल में हिम्मत हो तो हमको रोक के दिखाए तुम्हारी भलाई करने से।'
अरे हां, बात नए साल की हो रही थी। नए साल से बहककर हम वैक्सीन और जनसेवकों की बात करने लगे। बातचीत में ऐसा होना स्वाभाविक होता है। राजनीति की बात करते हुए आदमी साहित्यिक हो जाता है, साहित्य की बात राजनीति की तरफ मुड़ जाती हैं। सब कुछ ऑटो मोड में गड़बड़ाया हुआ है। हाल ऐसे हो रहे हैं कि किसी जगह पहली नजर में गड़बड़ी नहीं दिखती तो किसी बहुत बड़ी गड़बड़ी की आशंका से दिल दहल जाता है। कहीं गड़बड़ी न दिखना आज के समय की सबसे बड़ी गड़बड़ी है। किसी भी जगह गड़बड़ी का होना सिस्टम के सुचारू रूप से चलने का लिटमस टेस्ट है। गड़बड़िया आश्वस्ति की प्रतीक हैं। गड़बड़ी हटी , दुर्घटना घटी।
नए साल की सुबह कोहरे से ढंकी थी। नया साल लगता है कोहरे का मास्क लगा के आया था। लगता है नए साल को भी कोरोना की खबर लग गयी थी। कोहरे का मास्क लगाए, ओस की बूंदों को सैनिटाइजर की तरह पूरी कायनात पर रगड़ते हुए नया साल आया। सूरज भाई काफी देर तक सेल्फ कवारन्टाइन रहे। देर तक दिखे नहीं। लगता है उनको भी किसी ने समय से दो घण्टे की दूरी बना के रखने के लिए कह दिया है। इसी चक्कर में दो घन्टे देर से आये।
नए साल का शुरुआती हिस्सा तो उसकी अगवानी में बीत गया। गोया नया साल नहीं कोई दुलहिन आयी हो, जिसकी मुंह दिखाई हो रही हो। कुछ लोगों ने नए साल की अगवानी करते हुए पुराने को कोसा, जैसे नए अधिकारी की तारीफ लोग पुराने की पोलपट्टी खोलते हुए करते हैं। पुराना साल अगर कहीं सुन लेता तो ऐसे लोगों पर दांत पीसते हुए सोचता -'इसको शरीफ समझकर छोड़ दिया और अब ये बदमाश हमारी बुराई कर रहा है।' उस बेचारे को क्या पता कि हर शराफत अपने आप में एक हसीन बदमाशी है जिसका पता अक्सर लोगों को देर से लगता है।
नया साल अब आ ही गया तो हमने भी उसका स्वागत किया। आप भी करिये। कहां तक बचेंगे इस बवाल से। आपके लिए और सबके लिए नया साल मुबारक हो, मङ्गलमय हो।

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