कल बजट आया। देश का बजट। आमदनी और खर्च का लेखाजोखा। दिन में तो देख नहीं पाया। दफ्तर के चक्कर में-जबकि दफ्तर में टीवी दिन भर चलता रहा। इससे अंदाज लगा सकते हैं कि कितनी तल्लीनता से काम करते हैं। अंदाज तो खैर यह भी लगाया जा सकता है कि दिन भर टीवी की खबरें देखने के बाद भी हवा नहीं कि क्या हो रहा देश में।
बहरहाल शाम को टीवी खोला तो चश्मा गोल। मिला ही नहीं। सब जगह खोज लिया। दाएं-बाएं। अलमारी-ड्रार। कई बार खोजने के बाद नहीं मिला तो मान लिया कि या तो कार में छूटा या दफ्तर में। एक बार लापरवाही के लिए खुद को कोसकर रजाई में दुबककर दूर से टीवी सुनते रहे, पास से मोबाइल में घुसे रहे। पोस्ट पढते रहे। टिपयाते रहे। बीच-बीच में दोस्तों-सहेलियों को ' हाउ- डू-यू-डुआते' भी रहे।
टीवी पर बजट के समर्थन और विरोध में प्रवक्ता भिड़े हुए थे। एंकर उनको कभी उकसा रहा था, कभी समझा रहा था। बहस करने वालों के तर्कों को उलट-पुलट कर अपनी एंकरिंग की रोटी सेंक रहा था। बीच-बीच में एक्सपर्ट अपनी विशेषज्ञ वाली राय दे रहा। राय देते हुए विशेषज्ञ इस बात का पूरा ख्याल रख रहा था कि उसकी बात किसी की समझ में न आ जाये।
बिना चश्मे के बजट समाचार और बहस सुनते हुए हमको बजट अच्छा-खराब कुछ नहीं लगा। लगा कोरोना काल की तरह 'बजट-स्वाद' गुम हो गया है। 'बजट कोरोना' की शंका हुई हमको। हम डर गए। तब तक सुनाई पड़ा कि पीएफ बजट के ब्याज पर भी टैक्स लगेगा। बजट का स्वाद थोड़ा कड़वा लगा। टैक्स बढ़ने की खबर तो खली लेकिन 'बजट-कोरोना' से बचने के एहसास ने मन खुश कर दिया। मोबाइल और चार्जर के दाम बढ़ने की खबर से हमको कोई फर्क नहीं पड़ा। हमारे पास कई मोबाइल और चार्जर हैं। अगले बजट तक चल ही जायेंगे। इस बीच मोबाइल भी सस्ते हो जाएंगे।
75 साल की उम्र के लोगों को जो टैक्स की छूट मिली है वो हमारे किसी काम की नहीं। उस लिहाज से तो अभी तो हम जवान हैं।
इस बीच एक बार फिर चश्मे की याद आई। बेचारा अकेला कहीं पड़ा होगा- किसी राजनैतिक दल के मार्गदर्शक सदस्य की तरह, अपनी फर्जी खुशनुमा यादों में डूबे किसी चुके हुए साहित्यकार की तरह। मन किया चश्में में कोई ट्रैकर लगवा लेते पता चल जाता कहाँ है। कोई अलार्म लगवा लेते चश्मे में जिससे कि दो-तीन मीटर दूर होते ही भन्नाने लगता। हम लगा लेते उसे फिर से। लेकिन वह भी बवाल ही होता। पता चलता कि कहीं जरूरी मीटिंग में हैं, गुपचुप-गुपचुप वाले साइलेन्स मोड वाली बतकही में और तबतक चश्मा भन्नाने लगा। सुविधा कभी अकेली नहीं आती। सुविधा और असुविधा जुड़वा बहने हैं। हर सुविधा अपने साथ कोई न कोई असुविधा भी लाती है।
बहरहाल जब टीवी पर खबरें देखते हुए बोर टाइप हो गए तो टीवी बन्द करने के लिए रिमोट टटोला। रिमोट भी नदारद। हमें गुस्सा आया। ये बदमाश रिमोट भी मिल गया चश्मे के साथ। मानो सरकार बनाएगा चश्मे के साथ मिलकर। हमको उठना पड़ा। जाड़े में रजाई से उठने का दर्द रजाई में दुबकने वाले ही जानते हैं। बहरहाल उठे दायें-बाएं होते हुए। इधर-उधर टटोला। देखा। रिमोट मिल गया। रिमोट के बगल में ही चश्मा भी दिख गया। उल्टा-पुलटा पड़ा था। रिमोट और चश्मा दोनों सटे-सटे पड़े थे। हमको देखकर हड़बड़ा गए होंगें। न जाने क्या कर रहें हो जाड़े में रजाई में दुबके हुए। मन तो किया पहले कि चश्मे को पकड़ के कुच्च दें लेकिन फिर छोड़ दिया। उसकी भी क्या गलती।
अब सुबह हो गयी। सूरज भाई अभी तक आये नहीं हैं। कोहरा भयंकर है। पेड़ को पेड़ और चिड़िया को चिड़िया नहीं दिखाई दे रही है। सूरज भाई भी शायद अपना चश्मा खोज रहे हों। कहीं सात घोड़ों वाले रथ में न भूल गए हों। क्या पता झल्ला रहे हों। मिलेंगे तो पूछेंगे।
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