इस इतवार की साइकिलिंग सुबह साढ़े सात पर शुरू होनी थी। मैच भी था नौ बजे से। सोचा साइकिलिंग छोड़ दें। लेकिन फिर झटके से निकल ही लिए।
रास्ते में लोग तसल्ली से आ-जा रहे थे। एक सब्जी वाला बोरों से सब्जियां निकालकर बिकने के लिए सजा रहा था। मोड़ पर बैठी बुढ़िया अपने मांगने की ड्यूटी पर तैनात हो गयी थी। कुछ मिला नहीं था तब तक उसको शायद।
दुर्गा होटल के बगल में एक गैरेज के सामने गाड़ी न खड़े करने की सूचना पेंट की थी। सहज सामाजिक व्यवहार के मुताबिक गाड़ियां वहीं खड़ी थीं जहां खड़ा करने को मना किया गया था।
एक महिला रेलवे पुल के पास थोड़ा नीचे उतरकर दीवार के पीछे फेकें गए कचरे से काम की चीजें इकट्ठा कर रही थी। प्लास्टिक की बोतल, कागज के ग्लास। कई ग्लास तो समूचे दिखे। इनको इकट्ठा करके बेचती होगी कहीं महिला। ये रिसाइकिल होकर या क्या पता ऐसे ही, फिर बिक जाते होंगे।
रिसाकिलिंग की बात सोचते हुए लगा कि पूरी कायनात में सभी चीजें तो रिसाकिलिंग के चलते हैं। एक के खत्म होने पर रिसाकिलिंग होकर दूसरी चीज बनती है। तारे, आकाशगंगाएं भी ब्लैकहोल में बदलकर फिर नए तारों में बदलतीं। हमारी धरती भी पता नहीं आकाशगंगा के किस तारे से फूटकर पैदा हुई हो। अरबों-खरबों साल की उम्र वाले तारे-ग्रहों-उपग्रहों के यह हाल तो अपन की क्या बिसात। यह बात सोचते ही एहसास हुआ कि बहुत उचकना नहीं चाहिए अपन को किसी बात पर।
विश्वनाथ मन्दिर पर साइकिलिये जमा हो गए थे। कुछ और आ गए। ज्यादा देर किए बिना हम लोग निकल लिए। लेकिन निकलने के पहले फोटोबाजी जरूरी थी सो हुई। मन्दिर के सामने के भिखारी कुछ कम दिखे। शायद आते हों।
विश्वनाथ मंदिर के बाद अगला फोटो-पड़ाव घण्टाघर चौराहा था। उसके बाद केरूगंज चौराहा। इसके बाद लौट लिए।
लौटते हुए एक जगह जानवरों के लिए चारा बिक रहा था। चारा मशीन बिजली से जुड़ी थी। चारा खटाखट कट रहा था, फटाफट बिक रहा था- 3 रुपये किलो। पालीथिन की थैलियों में ले जा रहे थे लोग चारा।
जहां चारा कट रहा था वहीं रेलवे की पटरियां दिखीं। कभी इन पर रेल चलती होगी। कोई सामान ढोया जाता होगा। आज अधिकांश जगह पटरियों पर लोगों के मकान, पेट्रोलपंप, स्कूल, दुकान आदि बने हैं। रेलवे की जमीन पर जनता का कब्जा। यह हाल हर जगह हैं। सार्वजनिक जमीन कब्जाने के मामले हम लोग अव्वल हों शायद।
आगे सड़क पर एक लड़का घोड़े को शायद मार्निग वाक करा रहा था। सड़क पर घोड़े की टॉप पड़ रही थी। लड़का घोड़े की पीठ पर बैठा घोड़े की हर टॉप के साथ उचक रहा था। उसके चेहरे पर जवान घोड़े पर सवारी का गर्व चस्पां था। दो-तीन शताब्दी पहले सड़क पर घोड़े आम होंगे। अब विरल दृश्य हो गया यह।
उसी समय एक गाड़ी तेजी से घोड़े को ओवरटेक करते निकल गयी। गाड़ी को ओवरटेक करते देख लगा कि 21 वी सदी ने 16 सदी को ओवरटेक कर दिया।
सड़क पर फ्री स्टाइल में दौड़ते घोड़े से अलग एक कमजोर , मरियल, गरीब टाइप घोड़ा भी दिखा। घोड़े के अगले दोनों पैर बंधे हुए थे। घोड़ा उछल-उछलकर चलने की कोशिश करते हुए आगे बढ़ रहा था। घोड़े को दाना-पानी भले मिलता हो लेकिन चलने की आजादी नहीं। अनायास विनोद श्रीवास्तव जी की गीत पंक्ति याद आ गईं:
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं है हम।
पिंजड़े जैसी इस दुनिया में
पंछी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दाना-पानी
लेकिन मन ही मन दहना है।
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं है हम।
वो तो अच्छा हुआ कि पैर बंधे घोड़े ने फ्रीस्टाइल दौड़ते घोड़े को देखा नहीं। देख लेता तो क्या पता अवसाद में चला जाता।
घोड़े को सड़क पर दौड़ते देखने वाले हम अकेले नहीं थे। अपने घर के दरवज्जे पर बैठा मंजन करता एक आदमी भी उसको देख रहा था। टेढ़े-मेढ़े दांत में उंगली से पाउडर वाला मंजन घुसाते हुए दांत माँजता आदमी ने हमको देख मंजन करना स्थगित कर दिया। घोड़े को देखना छोड़ हमको देखने लगा। बदले में अपन भी उसको देखने लगे। फिर बतियाने भी लगे।
दन्त-मन्जनिये के फोटो लेने के बाद काम पूछा उसका। क्या करते हो? उसने बिना बोले उंगली से इशारा किया। ऊपर देखा तो बैनर लगा था -'प्लाट बिकाऊ हैं।' मतलब अगला जमीन के धंधे में लगा है। जमीन फिलहाल हमको लेनी नहीं थी सो हम आगे बढ़ गए।
खिरनीबाग पर समापन होना था साइकिल यात्रा का। हम रास्ते के नजारे देखने के चक्कर में अलग हो गए साथियों से। वहां पहुंचकर पता चला कि कहीं चाय-पानी का इंतजाम हुआ तो साइकिलिये वहां रूक गए।
शहीद स्तम्भ के पास एक बड़ी लोहे की पेटी रखी थी। पेटी के एक कब्जे में ताला लगा था।' नेकी की अलमारी' नाम है उस पेटी का। 'ताला-कानी' पेटी में गरीब लोगों के लिए इकट्टा किये गए कपड़े रखे थे। आम लोगों से अनुरोध किया गया था कि गरीबों के लिए कपड़े दान दें। कुछ कपड़े बाहर भी पड़े थे। जब मन से लोग दान दे रहे थे तो पेटी और उस पर पड़े ताले का औचित्य समझ में नहीं आया। शायद पेटी पर संस्था के नाम के कारण ऐसा किया गया हो। कोई व्यक्ति कोई आपत्तिजनक सामग्री डाल जाए तो संस्था को जबाब देना पड़े। भलाई के काम में भी कित्ते बवाल हैं आजकल। बहुत प्रोफेशनल काम हो गया है भलाई करना, खासकर जब क्रेडिट भी लेना हो। 'नेकी कर भूल जा' घराने की भलाइयां तो शायद अभी भी धड़ल्ले से हो रही हों।
वहीं बगल में खड़े एक पाकड़ के पेड़ पर चढा एक रिक्शेवाला पेड़ की पत्तियां शायद अपने किसी उपयोग के लिए काट रहा था। लोग उसको देखते हुए निकल रहे थे। एक बाबा जी रिक्शे पर जाते हुए उसको गरियाते हुए कहते भये-'........कहीं छाया न छोड़ना। पूरा पेड़ नँगा कर देना।' वह रिक्शेवाला इस सब से निर्लिप्त पेड़ से पत्ते तोड़ता रहा। वीडियो इस पोस्ट में है।
कुछ देर के इंतजार के बाद दोस्त लोग आ गए। फाइनल फोटो हुआ वहां और सब अपने-अपने घर को निकल लिए। हम भी आगे बढ़ गए।
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