कल बढिया चाय के बाद मूड झक्क होने की बात लिखी। आज सुबह उठकर चाय बनाई। रोज की तरह। फेसबुक पर कल की पोस्ट दिखी। 'लोटपोट' पर उस स्टेटस के बगल में कप धरा। खींच लिया फोटो। जिनके कमेंट और फोटो दिख रहे हैं वे साथी अपने हिस्से की चाय ग्रहण करें। बाकी इंतजार करें। समझते हुए कि आप कतार में हैं।
अंदर बैठकर चाय पी रहे थे। चिड़िया चिंचियाते हुए बताईं कि सूरज भाई आ गये हैं। बाहर बुला रहे हैं। हम आ गए। सूरज भाई ढेर सारी रोशनी, विटामिन डी, चमक, जगमग उजाला हम पर उड़ेल दिए। हम सबको हथियाते हुए बोले-'इसकी क्या जरूरत थी।'
सूरज भाई मुस्कराते हुए बोले -'ऐश कर लो भाई जी कुछ दिन। अभी मुफ्त में मिल रहा है सब। क्या पता कल को सब कुछ बाजार में आ जाये। पाउच में बिकने लगे धूप। बोतल में आने लगे रोशनी। विटामिन डी तो आने ही लगी है गोली में।'
हम बोले-'बता रहे हो कि डरा रहे हो?'
सूरज भाई बोले-'हम काहे को डराएंगे। डराता वही है जो खुद डरता है। डर तो तुम लोग खुद पैदा किये अपने लिए। आपस में डरते-डराते हो। अपनी दुनिया डरावनी बनाते हो।'
सूरज भाई और कुछ कहते कि उनके साथ आई किरण ने उनको टोंक दिया। क्या दादा आप भी सुबह-सुबह शुरू हो गए। चाय खत्म हो गई और आप अभी तक सिप मार रहे हो।
सूरज भाई ने मुस्कराते हुए गियर बदला। बोले-'चाय वाकई बढिया बनाने लगे हो।'
हम बोले-'रेसिपी न पूछोगे?'
वो बोले -'हम काहे को पूंछे। जब पीना होगा चले आएंगे। पियेंगे, चले जायेंगे।'
सूरज भाई कप धरकर निकल लिए। हम भी निकलते। आप भी मजे करो जी। याद करते हुए उमाकान्त मालवीय जी की कविता पंक्तियां:
एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो कुल
इतना सामान ही रहा।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221986117535491
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