Monday, April 15, 2019

 अख़बार वाले तो कुछ भी छाप देते हैं

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'रिक्शे से पांव नीचे नहीं उतरता था। मुंह माँगी कीमत देते थे। रिक्शे वाले इंतजार करते थे इनके ऊपर से नीचे उतरने का।'
-पंकज बाजपेयी के बारे में बताते हुए रिक्शे ठेके के मालिक सलीम ने बताया।
कल अर्से बाद मिलना हुआ पंकज बाजपेयी से।Sharma जी की भी शिकायत दूर हुई।
सुबह निकले तो सामने से एक नाबालिग उम्र का बालक रिक्शे में सवारी बैठाए चला आ रहा था। उचक-उचक कर रिक्शा चलाता।एक बार बाएं और अगली बार दाएं पैडल पर जोर लगाकर रिक्शा चलाता। ऐसा करते हुए लगा कि मानो रिक्शा कोई राज्य हो जिसे एक बार वामपंथी चला रहे हैं, अगली बार दक्षिणपंथी। बच्चा कम उम्र का था सो यह भी लगा कि राज्य की सरकारें नाबालिग मतलब कम उमर के लोग चला रहे हैं।
ऐसा ख्याल कल आया था। आज सोचा तो लगा कि बेवकूफी की बात है। लेकिन बेवकूफी की बात की भी अपनी अहमियत तो होती ही है।
पंकज बाजपई के ठीहे पर पहुंचे तो वे वापस का चुके थे। पास की दुकान के नीरज ने बताया कि अभी गए हैं। पूछ रहे थे कि बहुत दिन से भैया आये नहीं।
हम उनके रहने के ठिकाने की तरफ बढ़े। मोड़ से देखा तो अपना जिरह-बख्तर लादे ऊपर जीने की तरफ बढ़ रहे थे। हमने फुर्ती से उनके पीछे जाने की सोची। लेकिन सामने गुज़रते ट्रक ने फुर्ती की हवा निकाल दी। हम थम गए। जब तक पहुंचे तब तक पंकज जी जीना चढ़कर अपनी जगह पहुंच चुके थे।

आवाज दी सामने आए। मोटा जिरह बख्तर उतारकर अंगौछा धारण कर चुके थे। हमको देखकर फुल पैंट पहना। साबुन से हाथ धोया। इसके बाद चरण स्पर्श करने वाली मुद्रा में हाथ आगे बढ़ाया। बोले -'कहाँ थे इतने दिन? हमको चिंता हो रही थी ।'
हमने व्यस्तता का बहाना बताया। बोले -'तुम चिंता न करना। हम तुम्हारी सुरक्षा का इंतजाम किए हैं।'
तबियत- सबियत की बात पूछी। बोले ठीक है। पता चला जितनी बार नीचे से ऊपर आते हैं उतनी बार नहाते हैं। नहान मतलब पानी पोंछन। गन्दगी पसंद नहीं।
जलेबी, दही, समोसा लेते हुए बोले-'माल आइटम है इसमें। दोपहर तक खाएंगे।'
चलते समय कोल्डड्रिंक के पैसे मांगे। 30 रुपये में ही खुश हो गए। और कि जिद नहीं की। नीचे होते तो शायद करते। 'जिरह-बख्तर'उतर जाने पर शायद जिद की ताकत कम हो गयी हो।
नीचे आये तो सामने ही सलीम से बतियाने लगे। सलीम के 50 रिक्शे चलते हैं। खुद रिपेयर करते हैं रिक्शे। बोले -'शुरू में रिक्शा चलाया। फिर दुकान में काम किया। इसके बाद खुद के रिक्शे खरीदे। अब रिक्शा चलवाते हैं। 40 साल हो गए यह सब करते।'
जिस दुकान में काम करते थे उसका नाम 'रज्जाक रिक्शा स्टोर' था। अब वहां 'ओशो डिपार्टमेंटल स्टोर' खुल गया है। पसीने से परफ्यूम का सफर किया है दुकान ने। पहले भीड़ रहती होगी अब दुकान में सन्नाटा था। कहने का मतलब दुनिया में पसीने के कारोबार से जुड़े लोग ज्यादा हैं लेकिन दुकाने परफ्यूम वाली चल रही हैं।
अपने रिक्शों की रिपेयरिंग खुद करते हैं सलीम। एक रिक्शे को सड़क पर लिटाये उसके पेंच कसते हुए बताया कि आज एक नया रिक्शा 12000/- का आता है। 50 में से 20-30 रिक्शे ही चलते हैं। बैटरी रिक्शों ने सायकिल रिक्शों का कारोबार चौपट कर दिया है।
'लेकिन अखबार में तो खबर छपी है कि अब बैटरी रिक्शे केवल गलियों में चलेंगे।'-हमने बताया।
अरे अखबार वाले तो ऐसे ही कुछ भी छाप देते हैं। खाली जगह भरने के लिए। कुछ होता थोड़ी है अखबार में छपने से। यहां गलियों में घुसेंगे तो निकल पाएंगे बैटरी रिक्शा? सब फालतू बातें छापते हैं अखबार वाले।
बात फिर पंकज बाजपेयी की होने लगी। सलीम ने बताया :

'बहुत शान से रहते थे। रिक्शे से पांव नीचे नहीं उतरता था। रिक्शे वाले इंतजार करते थे कि कब उतरें और उनको लेकर चलें। मुंह मांगी रकम देते थे।प्रेम से बात करते थे। देखने में खूबसूरत। आप उस उमर में रहे होंगे उससे भी कहीं खूबसूरत। फिर पता नहीं कैसे दिमाग गड़बड़ा गया। सालों से ऐसे ही देख रहे हैं इनको।'
50 रिक्शों का मालिक मेहनत से अपने रिक्शे बना रहा था। बगल में खड़े रिक्शे वाले उनकी कहानी सुन रहे थे। एक जन बहराइच से आये हुए हैं रिक्शा चलाने। आगे के दांत टूटे हैं। दांत खोदते हुए बगल के दांतों में फंसी हुई चीजें निकालते हुए अपना भी योगदान दे रहे थे।
सलीम के बच्चे इस धंधे में आये नहीं। कोई रेफ्रेजरेशन के धंधे में लगा। कोई आईटीआई कर रहा है। हमने पूछा नहीं कि वोट किसको दोगे। उनको भी चुनाव से कोई मतलब नहीं लगा। आम आदमी और मीडिया में यही फर्क होता है।
लौटते हुए चन्द्रिका देवी चौराहे पर एक ग्लास गन्ने का रस पिया। याद आया कि कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि एक बार शास्त्री जी मंत्री पद पर रहते हुये कहीं जा रहे थे। क्रासिंग बन्द थी। जब तक क्रासिंग खुले तब तक उन्होंने वहीं एक ठेलिया से गन्ने का रस पिया। पैसे दिए और आगे बढ़े। आज कोई हारा हुआ विधायक भी इतनी तसल्ली से नहीं जी पाता।
लौटते हुए चमनगंज होते हुए आये। उसका किस्सा फिर कभी। फिलहाल इतना ही।

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