1. महान सभ्यता जब बीच में आकर सड़ती है तब उसमें अछूत-प्रथा, सती-प्रथा और दहेज-प्रथा की बीमारियां पैदा होती हैं।
2. हमारे देश में तो ऐसा था कि पचासों कृपाकांक्षी युवक एक कतार में बैठे रहते थे और युवती किसी एक पर कृपा करके उसके गले में जयमाला डाल देती थी। बाद में, मध्ययुग में, जब व्यवस्था सड़ी तो वर बिकने लगे।
3. टेण्डरवाले कभी-कभी एक और चक्कर में पड़ जाते हैं। ऊंची बोली के इन्तजार में लड़के की उम्र निकल जाती है। तब उसे किसी शादी के सीजन में ’क्लीयरेंस सेल’ में सस्ते माल की तरह निकाल देते हैं।
4. आधुनिक और प्रगतिशील बनने वाले युवकों को भी मैंने देखा है। युवक कहता है, मैं तो दहेज के खिलाफ़ हूं। लेकिन फ़ादर नहीं माने। मैं फ़ादर का बहुत आदर करता हूं। कई तो मण्डप में मचल जाते हैं बच्चे की तरह, जो टाफ़ी के लिये मचलता है। हम तो स्कूटर लेंगे।
5. जैसे-जैसे काला धन बढ़ रहा है, विवाह के बाजार में वर की कीमत बढ़ रही है।
6. नकली दवाइयां सच्चा समाजवाद निभाती हैं। वे गरीब को भी मिलती हैं और अमीर को भी। वे अस्पतालों में भी खरीदी जाती हैं। इस नकली दवाइयों को मतदाता भी खाता है और वह नेता भी, जिसे वह चुनता है।
7. शिकायत जब ऊंचे स्तर से उठती है तब उसकी अहमियत होती है और चिन्ता होने लगती है। दिल्ली में मामूली लोगों के बच्चों की रोज ही हत्या होती है। मगर महत्वपूर्ण व्यक्ति के बच्चों की हत्या हो तो उस अपराध का स्तर बढ़ जाता है। हत्यारों की बार-बार फ़ोटो छपती है, प्रेस-इंटरव्यू होते हैं और वे अनतर्राष्ट्रीय ख्याति पा जाते हैं।
8. इस देश में सबसे आसान काम राजनीति करना है।
9. इस महान देश की यह महिमा है कि अगर आदमी सनकी हो और उसके पास पैसा हो या कहीं से मिल जाये, तो वह अपने नाम से पार्टी बना सकता है।
10. भारतीय राजनीति में ऐसे-ऐसे नेताओं के दल हैं, जो सिर्फ़ कार्टून बनाने वाले के काम के रह गये हैं।
11. अपने बेटों, पोतों, परपोतों के लिये धन इकट्ठा करना और भाई-भतीजों को मालदार बनाना उत्तम प्रकार की संवेदनशीलता है। इस संवेदनशीलता की जो खबरें अखबारों में छपती हैं, वे ’अश्लील’ हैं। इनसे जनता की नैतिकता गिरती है।
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