प्लेटफार्म टिकट के दाम कुछ साल पहले 2 रुपये थे। कभी-कभी चिल्लर न होने के कारण खरीद में मुश्किल होती थी। फिर दस रुपये हुए। देखते-देखते 30/- रुपये हो गए। 15 गुने दाम बढ़ गए। लेकिन रोज तो जाना नहीं होता स्टेशन इसलिए पता नहीं चलता। कल पता चला।
हमने पर्स टटोला। चिल्लर को छोड़कर कुछ था नहीं। चिल्लर गिनना शुरू किया तो बमुश्किल 30/- । सिक्के ऐसे बटोरे जैसे बहुमत से कम सीट पाई पार्टियां सरकार बनाने के लिए समर्थन जुटाती होंगी। पैसे इकट्ठा करने के दौरान ही एक सिक्का सरककर सरककर नीचे चला गया, ऐसे ही जैसे अक्सर कोई निर्दलीय समर्थन वापस लेने की धमकी देता है। लेकिन हम सजग थे। तुरन्त सिक्का खोज लिया।
ऊपर हमने जिनको चिल्लर लिखा वो सब एक, दो, पांच और दस रुपये के सिक्के थे। जबकि चिल्लर एक रुपये से कम की रेजगारी को कहते हैं। रुपयों को चिल्लर कहने पर वे मानहानि का दावा कर सकते हैं। लेकिन यह भी लगता है कि जिनका अस्तित्व ही दांव पर लगा हो वे अपनी जान बचाएंगे कि मानहानि का दावा करेंगे।
यहीं पर यह भी लगा कि अपन की औकात भी तो इस कायनात में चिल्लर सरीखी ठहरी।
टिकट लेकर अंदर तरफ चले। स्टेशन ने अपना गौरव सम्भालकर रखा था। ऐसा कि कहीं से कोई नएपन की तोहमत नहीं लगा सकता था।
बाहर डिवाइडर पर एक महिला अपने बच्चों के साथ बैठी थी। देखकर लगता था हफ्तों से नहाए नहीं होंगे। छोटे-छोटे बच्चे पालीथिन से निकालकर लैया-चना खा रहे थे। हमें उनकी हालत दयनीय लगी, गरीबी का मारा परिवार। लेकिन बच्चे हमारी सोच से बेपरवाह मुंह उठाकर मुट्ठी लैया-चना खाते रहे।
अंदर भीड़ कम थी। कुल जमा तीन प्लेटफार्म है। गाड़ियां तसल्ली से आ रहीं थीं। उनके आने की सूचना साफ सुनाई दे रही थी। लोग तसल्ली से उन पर बैठ थे। कोई आपा-धापी नही, धक्कममुक्का भी नहीं। बलिदानी शहर का स्टेशन शांत ही रहता है।
ट्रेन का इंतजार करते लोग जितना आपस में बतिया रहे थे उससे कुछ ज्यादा ही लोग मोबाइल में डूबे हुए थे। मोबाइल तप करते हुए लोगों के चेहरे पर अनिवर्चनीय सुख की छटा पसरी हुई थी। कहीं-कहीं संयुक्त घराने की तर्ज पर एक मोबाइल में तीन-चार मुंडिया भी झुकी दिखीं।
ऊपर झुकी लिखते ही गाना याद आ गया -'झुकी-झुकी सी नजर....।' यादें भी बड़ी बदमाश होती हैं, कहीं भी घुस जाती हैं बिना परमिशन लिए। कभी-कभी तो मन करता है -'कारण बताओ नोटिस थमा दें।' लेकिन छोड़ देते हैं। अपनी ही तो हैं यादें।
स्टेशन पर पीसीओ, किताबों की दुकान और सब बिक्री वाली दुकाने बन्द थीं। केवल एक नल खुला दिखा। उससे एक बंदर पानी पी रहा था। हमारे देखने तक पानी पी चुका था। हमारे देखते-देखते वह नल खुला छोड़कर प्लेटफार्म पर टहलता हुआ आहिस्ते से पटरी पर आया। कुछ देर दो पटरियों के बीच वाली जगह पर बैठा रहा। इसके बाद उचककर दूसरे प्लेटफार्म पर चढ़ गया और टहलने लगा।
बिना कपड़े के टहलते बन्दर के हाथ में ऐसा कोई कागज नहीं दिखा जिसे प्लेटफार्म टिकट कहा जा सके। बन्दर होने का फायदा उठा रहा था बन्दर। दिन में कई बार बिना प्लेटफार्म टिकट के आता जाता होगा, घूमता रहता होगा। प्लेटफार्म टिकट 2 घण्टे के लिए मान्य होता है। इस तरह कम से कम 240 रुपये का चूना तो लगता होगा रेलवे को। एक बंदर इतने का चूना लगाता है तो हज्ज़ारो बन्दर मिलकर तो लाखों का चूना लगाते होंगे। लेकिन ऐसे सोचें तो फिर तो हो चुका। हर चीज को पैसे से थोड़ी हो जोड़ना चाहिए। जोड़ेंगे तो क्या पता बन्दर और दूसरे जानवर हमारे खिलाफ जंगल, पेड़ काटने का हर्जाने का दावा कर देंगे तो जबाब नहीं देते बनेगा।
बाहर निकलते हुए एक परिवार दिखा। पति-पत्नी और तीन बच्चे। पता चला मैगलगंज से आये हैं, दिल्ली जा रहे हैं। प्लम्बर का काम करता है आदमी। डेढ़ महीने पहले घर आया था , इस बीच पिता नहीं रहे तो रुकना पड़ा। प्लम्बर के काम के अलावा गाड़ी भी चला लेता है लेकिन लाइसेंस नहीं है। जिस दिन लाइसेंस के लिए जाना था, किसी की मौत हो गई जा नहीं पाए।
पत्नी भी मैगलगंज की ही है। 12-13 साल के हुए। पूछने पर कि ' लड़ते तो नहीं तुम्हारे पति तुमसे?' जुबली हंसने लगी। इसपर राजेन्द्र बोले -'बताओ, बताती काहे नहीं?' यह सुनकर वह और जोर से हंसने लगी।
पति का नाम राजेन्द्र और पत्नी का नाम जुबली। इससे हीरो राजेन्द्र कुमार की याद आ गई जो 'जुबली स्टार' कहलाते थे। बच्चों के नाम वरुण, वैष्णवी और अरुण । वरुण सबसे बड़ा है।
उनके तीन बच्चों में जो बच्चा सबसे छोटा दिखा पता चला वही सबसे बड़ा है। कुछ अविकसित और कुछ दिव्यांग दो-तीन का लगता बच्चा 11-12 साल का था। बहुत दिन तक तो हाथ-पैर सीधे नहीं हुए। अब सुन लेता है, लेकिन बोलता बहुत कम है।
कमजोर, दिव्यांग होने के बावजूद बच्चा बहुत संवेदनशील है। 'कोई इसकी मम्मी और भाई बहन को छू नहीं सकता इसके देखते'- राजेन्द्र ने बताया। इलाज चल रहा है। डॉक्टरों ने बताया है धीरे-धीरे ठीक होगा।
बच्चे को देखकर पी पिछले दिनों देखी पिक्चर मिमी याद आ गई। उसमें एक अमेरिकन जोड़ा हिंदुस्तान में एक महिला के पेट में अपना बच्चा पालने का कांट्रैक्ट करते हैं। बाद में डॉक्टर के बताने पर कि बच्चा अविकसित हो सकता है, वो लोग वापस चले जाते हैं। लोग उस महिला से बच्चा गिरवाने के लिए कहते हैं। लेकिन वह बच्चे को पैदा करती है। बच्चा सामान्य और स्वस्थ होता है। पता लगने पर अमेरिकन दम्पत्ति बच्चा लेने आते हैं। लेकिन अंततः बच्चा उस महिला के पास ही रहता है जिसने उसे जन्म दिया।
सम्बन्धों और भावनाओं का कोई मूल्य नहीं होता यह भी इस फ़िल्म का संदेश है। मजे की बात यह जब सब चीजें मूल्य आधारित हो रहीं हैं तब उसके खिलाफ सन्देश देने वाली फिल्में भी बन रहीं हैं। अतः सिद्ध हुआ कि न्यूटन का तीसरा नियम सत्य है (प्रत्येक क्रिया के विपरीत बराबर प्रतिक्रिया होती है)।
बताओ शुरू हुए थे प्लेटफार्म टिकट से और पहुंच गए न्यूटन के तीसरे नियम पर। यादों के प्लेटफार्म पर इत्ती देर टहल लिए बिना कोई टिकट लिये। कोई देखेगा तो शिकायत कर देगा। लफड़ा होगा। इसलिए फूटते हैं।
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