कल एक ढाबे पर चाय पीने के लिए रुके। गाड़ी रुकते ही सर पर मुरैठा बाँधे शख्स हाथ फैलाकर खड़ा हो गया। हथेली पर कुछ सिक्के लुढ़के हुए थे। एक के ऊपर एक अधलेटे सिक्के। किसी सरकार में शामिल न किये गए गए विधायकों की तरह निस्तेज।
'हट्टे-कट्टे लोगों को कुछ देना नहीं चाहिए' वाले तर्क के सहारे हमने पैसे बचाये। हमारे तर्क का संहार उसने चेहरे पर दैन्य भाव की मात्रा बढ़ाकर किया। हमारे भीख न देने वाले तर्क को उसने हमारे बचकानेपन की तरह ग्रहण किया। दोनों अपने-अपने तर्को के हथियार चलाते हुए बतियाते रहे।
पांच बच्चे और पत्नी वाले शख्स के बच्चे कबाड़ बीनते हैं। 10 रुपये किलो पालीथिन के कबाड़ का भाव बताया। घर किसी ने दिलाया है। स्थानीय नेता का नाम लेते हुए पूछा -'उनको जानते हो? हमारे जीजा हैं। हमको घर दिलवाया है।'
स्थानीय नेता को जीजा बताने के बाद बड़े नेताओं को चाची, बुआ, चाचा बताते हुए उनसे अपनी नजदीकी बताते हुए अपना हवा- पानी दिखाते हुए कुछ दे देने की फरियाद भी करता रहा। उसके मांगने के अंदाज में कोई हड़बड़ी नहीं थी। बड़े लोग जिनके रिश्तेदार हों, उसको क्या कोई जल्दबाजी।
बताया पहले पंजाब चले जाते थे। लुधियाना। वहां बादल सिंह की सरकार है। वहां अच्छी कमाई है। कोई-कोई तो सौ-पांच सौ भी दे जाता है। आजकल ट्रेन बन्द हैं इसलिए जा नहीं पाए। यहीं मांग रहे हैं। आज तो बारिश के चलते होटल पर भी सन्नाटा है।
कई बार कहा जाता है -'हमारी आबादी हमारी ताकत है'। इसी ताकत के एक अंश को मांगते और कबाड़ बीनते देखकर भगवती चरण वर्मा के उपन्यास का शीर्षक याद आया -'सामर्थ्य और सीमा।'
मांगने वाला शख्स अपाहिज नहीं है। लेकिन मांगने को उसने कमाई का जरिया बनाया। खुद को थोड़ा कमजोर और दीन दिखाकर मांगना शुरू किया। यह भी एक रोजगार है। मांगना भी एक कला है। इस कला के सहारे कमाई करने वालों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। इस क्षेत्र में रोजगार दिन पर दिन बढ़ रहा है।
यह भी हम जैसे सुरक्षित जीवन जीने वालों की सोच है। सच्चाई क्या पता कुछ और हो। मांगना अपने समाज में कभी अच्छा नहीं समझा गया। कहा भी गया है:
'माँगन मरन समान है, मत कोई मांगो भीख,
माँगन से मरना भला, सतगुरु की यह सीख।'
इस सीख के बावजूद मांगने वाले बढ़ते जा रहे हैं। लगता है आज के गुरु कुछ और सिखा रहे हैं या फिर यह कि लोगों के हाल ऐसे हो रहे हैं कि वे 'मरता क्या न करता' का सहारा लेते हुए सतगुरु की सीख को बिसरा रहे हैं।
रास्ते में होती शाम दिखी। सूरज भाई अपनी दुकान समेटकर चले गए थे। आसमान उनके कुछ देर पहले रहने की गवाही दे रहा था। सूरज की किरणें वापस लौटते हुए आसमान से झांक रहीं थी। पेड़ रात के इंतजार में काली चादर ओढ़कर खड़े हो गए थे। अँधेरे और उजाले के संगम में आसमान क्यूट लग रहा था।
पता चला कि आज बांस दिवस है। इस मौके पर हमारे मित्र कवि Rajeshwar Pathak राजेश्वर पाठक की कविता याद आई:
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे.
हम कोई आम नहीं
जो पूजा के काम आयेंगे
हम चंदन भी नहीं
जो सारे जग को महकायेंगे
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे.
बांसुरी बन के,
सबका मन तो बहलायेंगे,
फिर भी बदनसीब कहलायेंगे.
जब भी कहीं मातम होगा,
हम ही बुलाये जायेंगे,
आखिरी मुकाम तक साथ देने के बाद
कोने में फेंक दिये जायेंगे.
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे ,उतना हरियायेंगे.
आज का दिन मुबारक हो आपको।
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