इतवार को टहलते हुए गोविंदगंज से आगे बढ़े। सड़क किनारे एक मकान के ढांचे को गिराया जा रहा था। कंक्रीट का खम्भा। कंक्रीट को ड्रिल करके तोड़ रहा था एक आदमी। दूसरा सहयोग कर रहा था। कंक्रीट के बाद सरिया का नम्बर आना था। कंक्रीट और सरिया कटने के बाद मकान ढांचा जमीन पर आ जाना था। मैदान सपाट हो जाना था।
नई इमारत का मतलब हमने सोचा कोई मैरिज हाल, रिहाइसी फ्लैट टाइप कोई निर्माण। भाई जी ने मेरी नादानी पर तरस खाते हुए बताया -'मैरिज हॉल या फ्लैट क्यों बनवाएंगे? यहां शॉपिंग मॉल बनेगा। तीन मंजिला। ये देखिए बगल में बनवाया है न एक। उसी तरह का यह भी बनेगा।साल भर में खड़ा कर देंगे इसे भी। '
बगल में दिखा शापिंग माल। नाम सिटिकार्ट। उसके किस्से भी बताए -'25 करोड़ में बना है। 12 लाख महीना किराए पर उठा है।' हम हिसाब लगाने लगे। 25 करोड़ मतलब 250000000 रुपये। लगभग 2.5 लाख अकुशल मजदूरों की महीने भर की कमाई। 12 लाख महीना किराया मतलब लगभग 100 मजदूरों का महीने भर का मेहनताना।
एक आदमी पूंजी के कारोबार से 100 आदमियों के बराबर कमाई कर रहा है। इंसान के अलावा शायद पता नहीं किसी और जीवजगत में इतना अंतर होता होगा क्या ?
सिटिकार्ट नया खुला है। उसके प्रचार के लिए सड़क पर कई बच्चे बाइक में जुलूस की शक्ल में दिखे। शहर वालों को जानकारी देते हुए -'आईये अपने पैसे ठिकाने लगाइए।'
बाजार पैसे का स्थायी अड्डा है। पैसे का मायका है। पैसा बाजार में आने को हुड़कता है।
आगे एक आदमी बैटरी वाले ऑटो पर पानी के बड़े जग घरों के बाहर रखता दिखा। पता चला ढाई से तीन सौ कैन रोज डिलीवर कर देते हैं। तीन-चार घण्टा डिलीवर करने में लगते हैं। इतना ही समय शाम को वापस उठाने में। 4 रुपये पर कैन मिलते हैं इस काम के। पानी का कैन 15 रुपये का मिलता है। पानी फिल्टर्ड होता है।
कभी पानी इफरात था। मुफ्त भी। अब पानी जग में बिकता है। हवा भी बिकने ही लगे किसी न किसी रूप में। क्या पता आने वाले समय में धूप और खुला आसमान भी बाजार में बिकने लगे। आईये घण्टे भर धूप खाइये, आसमान के नजारे देखिए। 40% डिस्काउंट। दीवाली पर बम्पर छूट।
बहादुरगंज मंडी के बाहर कुछ लोग आपस में मुंडी सटाये कुछ खेल रहे थे। शायद ताश। हम पास नहीं गए। क्या पता जुआ खेल रहे हों। पुलिस आये और साथ खड़े लोगों को भी पकड़कर ले जाये। आजकल किसी का कोई भरोसा नहीं।
भरोसे की बात चली तो कहते चलें कि आजकल भरोसे पर बहुत खतरा है। किसी पर भरोसा करना मुश्किल। कब कौन आपको जानबूझकर या अनजाने में बेवकूफ बना जाए, कोई भरोसा नहीं। हाल तो यह है कि लोगों को खुद पर ही भरोसा नहीं रहता कि कब वो क्या कर बैठेंगे। भरोसे का सेंसेक्स बहुत गड़बड़ाया हुआ है।
आगे सब्जी मंडी में घुस गए। सब्जियां सजी-धजी बिकने के लिए तैयार बैठी ग्राहकों का इंतजार कर रहीं थी। बाजार में बिकने के लिए सजना-धजना भी जरूरी होता है। ग्राहक आजकल ऊपरी सजावट ज्यादा देखता है। उसको भी बाजार ने तड़क-भड़क के ताम-झाम में समेट लिया है।
मंडी से बाहर निकलते हुए एक दुकान पर दो लोग बतियाते हुए दिखे। एक बुजुर्गवार नई उम्र के दुकानदार पर अपनी ज्ञान कुल्हाड़ी चला रहे थे। बोले अच्छा बताओ:
'सबसे मीठी चीज क्या, सबसे कडुवी चीज क्या, सबसे भारी चीज क्या?'
कई कयास के बाद हारी बोली गयी। फिर बुजुर्गवार ने बताया -'सबसे मीठी चीज जबान है, सबसे कडुवी चीज भी जबान है।'
इसके बाद सबसे भारी चीज बताने के पहले उन्होंने थोड़ा भौकाल बनाया और बताया -'सबसे भारी चीज होती है इंसान का कलंक।' इंसान का कलंक इतना भारी होता है कि वो उसे उठा नहीं सकता।
यह शाश्वत ज्ञान अब पिछड़े जमाने की बात हो गई। लोग अपना कलंक बोझ की तरह नहीं बल्कि औजार की तरह प्रयोग करते हैं। कहते हैं -'हमसे बड़ा हरामी देखे नहीं होंगे। हमसे मत उलझो वरना समझ लेव क्या हाल होगा।'
पापुलर मेरठी ने भी ऐसे लोगों से बचकर रहने की सलाह दी है:
न देखा करो मवालियों को हिक़ारत से,
न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाये।'
दस-बीस साल पहले मजाक में कही यह बात आज के समय का सहज स्वीकार्य सच है।
हम ऐसा ही कुछ कहना चाहते थे लेकिन फिर नहीं कहे। चुपचाप आगे बढ़ गए। चुप्पी आजकल का सबसे बढ़िया रक्षक है। बोले तो गए।
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