Tuesday, November 30, 2021

जंगल में चायबाजी



जयपुर में जब ट्रेकिंग के लिए निकले तो बस ऐसे ही निकल लिए थे। अंदाज नहीं था कि इतने बहुरंगी अनुभव होंगे। पहले तो शुरुआत में ही हांफ गए। फिर लगा पानी साथ में होना चाहिए। साथ के लोगों के पास बैग में था सामान। पानी भी। लेकिन हांफ और प्यास को जब्त कर लिया। पानी के लिए नहीं कहा यह सोचकर कि हमें खुद लगेगा- 'शुरुआत होते ही पानी मांग गए।'
संकरे जगह वाली चट्टान पार करते हुए लगा कहीं गिर गए तो गया सर। नुकीली चट्टाने सर का स्वागत करने को आतुर दिख रहीं थी जैसे चुनाव के मौसम में पार्टियां दूसरी पार्टी से आये लोगों का बांह फैलाकर स्वागत करती हैं। यह भी लगा कि ट्रेकिंग करते हुए हेलमेट भी होना चाहिए।
जब चटटान पर चढ़ रहे थे तो साथ के लोग हिदायतों की बौछार कर रहे थे। पैर इधर रखो, ऊपर थोड़ा, चटटान की तरफ मुंह करो, आहिस्ते चलो, इसको पकड़ो। हिदायतें ऐसी लग रहीं थीं जैसे गाड़ी चलाते हुए ड्राइवर को पीछे सीट पर बैठी सवारी टोंके -'दाएं मोड़, बाएं काट, आहिस्ता चल, आगे निकल।'
जब हम कोई काम कर रहे होते हैं तो ज्यादा हिदायतें बाज वक्त अवरोध का काम करती हैं। ध्यान बंटता है। मिल्खा सिंह जी का ध्यान दौड़ते समय खुद उनके ही कारण बंट गया था। पीछे वाले धावक को देखने में पिछड़ गए और रिकार्ड बनाने के बावजूद वे मेडल वंचित हो गए थे।
लेकिन यह बात तो हम अब कह रहे हैं जब हम सकुशल पार हो गए। अगर कुछ चोट लग जाती तो साथ के लोगों को कोसते -'बताना चाहिए था।'
इंसान बहुत चालाक आइटम होता है। अपनी हर बात को सही ठहराने के तरीके खोज लेता है।
जब हम पहाड़ी पार करके अपना सीना फूलाते हुए गर्वीली सांस ले रहे थे उसी समय हमसे करीब सौ फीट बहुत दुर्गंम ऊंचाई पर एक नौजवान एक पहाड़ी पार करता दिखा। हमको लगा कि अपनी किसी उपलब्धि पर सन्तोष व्यक्त करना तो ठीक लेकिन बहुत इतराना नहीं चाहिए। जिस समय हम अपनी किसी उपलब्धि पर इतरा रहे होते हैं, उसी समय कायनात के किसी दूसरे हिस्से में कोई उससे बड़ी उपलब्धि हासिल कर रहा होता है।
लौटते में चाय का हिसाब था। एक जगह पत्थरों के बीच चूल्हा जलाया गया। आसपास के पत्ते और लकड़ियां बीन कर आग सुलगाई गयी। थोड़े धुंए के बाद आग सुलग गई। खूबसूरत आग। आग देखकर एक बार फिर लगा, चूल्हे की आग दुनिया की सबसे खूबसूरत आग होती है।
चाय के लिए पानी और दूध गर्म होने लगा। तब तक एक साथी को पास के पेड़ पर मधुमक्खी का छत्ता दिखा। यह लगा कि धुएं से मधुमक्खी के छत्ते की मक्खियां निकलकर हमला कर सकती हैं। इस आशंका के चलते चूल्हे की आग बुझाई गयी। पास ही दूसरी जगह चूल्हा लगाया गया। आग जलाई गई। चाय बनी। छानी गई। पीना शुरू हुआ। बहुत स्वादिष्ट चाय। ऐसी चाय पीने के लिए बार-बार ट्रेकिंग पर जाने का मन करेगा।
चाय बनने के दौरान और पीने के समय भी गप्पाष्टक जारी रहा। स्थानीय राजनीति और इधर-उधर के किस्से। आसपास पत्थरों के सोफों और कुर्सियों पर बैठे हम लोग चाय का इंतजार करते हुए आनन्दित हो रहे थे। एक साथी ने मौके का उपयोग योग करते हुए किया। पास के पत्थर पर बैठकर योग करते हुए लम्बी-लम्बी सांसे पतंग की डोर की तरह खींचनी शुरू कर दी। दाएं से खींची, बाएं से खींची, सामने से खींची। मतलब हर तरफ़ की हवा खींचकर ऑक्सीजन ग्रहण कर ली।
चाय के एक दौर के बाद दूसरा दौर भी चला। तीसरा दौर तो नहीं चला क्योंकि तब तक चाय ख़त्म हो चुकी थी। लेकिन बची हुई चाय खत्म करने का जिम्मा हमने निभाया। समूह में। इतना सहयोग की भावना तो होनी चाहिए।
लौटते हुए जगह-जगह फोटोबाजी हुई। एक पेड़ के पास हम लोग अलग-अलग पोज में खड़े होकर फोटोबाजी किये। पेड़ भी सोचता होगा कि -"ये नामुराद हमारे ऊपर , दाएं-बाएं खड़े होकर फोटो खिंचा रहे हैं। अगर खड़ा होता तो पास से होकर निकल जाते। किसी की हिम्मत न होती हम पर चढ़ने की। "
सामने से सूरज भाई भी दिख रहे थे। उनको मुस्कराते हुए देखकर लगा मानो हमसे कह रहे हों -'बड़ा मजा आ रहा है।'
हम भी मुस्कराते हुए कुछ कहते तब तक माथे पर आई पसीने की बूंद बोल उठी -'यकीनन, कोई शक!'
अब इस बात का किसी के पास कोई जबाब है क्या ?

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Monday, November 29, 2021

जंगल में ट्रैकिंग


जयपुर में ट्रेकिंग के लिए उकसाया दोस्त Naresh Thakral नरेश ठकराल ने। हम भी पानी पर चढ़ गए। सुबह उठकर पहुंच गए विद्यार्थीनगर। वहां से पापड़ वाले हनुमान जी के पास से शुरु हुआ जंगल का सफर।
पापड़ वाले हनुमान जी का नाम वहां स्थित गांव के नाम पर पड़ा। पापड़ वाले हनुमान जी की प्रसिद्ध से जुड़ी कथा यह है कि यहां आई एक बाढ़ में जब आसपास के इलाके डूब गए थे, तब भी मंदिर बचा रहा। इस तरह की घटनाओं से ही मान्यताएं बनती हैं।
हमारे समूह में करीब 15 लोग थे। लगभग 40 से 70 साल की उम्र के । नियमित सैर करते हैं शनिवार को। समूह का नाम है -'फारेस्ट लवर्स' मतलब 'जंगलप्रेमी'।
शुरुआत में अंधेरा था। जमीन में निकली पेड़ों की जड़ों पर पैर पड़ने से मुंह के बल गिरते बचे। ऊपर और दाएं-बाएं कटीले पेड़ों में भी कपड़े फंसने का डर। मतलब चौतरफा देखकर चलने की चुनौती।
थोड़ी देर बाद रास्ते में रेत मिली। पैर रेत में धंसने लगे। रेत जूतों से होते हुए मोजे के अंदर घुसकर पंजो, तलुओं से गले मिलते हुए उनके हाल-चाल पूछने लगे। पैर बेचारे मजबूर। घुसपैठिया रेत को मजबूर होकर बर्दास्त करते रहे।
कुछ देर के बाद सांस लेने में समस्या होने लगी। मुंह खुल गया सांस लेने में। मुंह खोलकर सांस लेते हुए आवाज दूर तक सुनाई देने लगी। समूह के लोग सब आगे निकल गए। आगे निकलकर फिर रुककर हमारा इंतजार करते। हम फिसड्डी ट्रैकर के रूप में चलते रहे।
कुछ दूर तक रेत में चलते हुए इतना हांफ गए कि लगा कि कहीं सांस दाएं-बाएं हो गयी तो क्या होगा। अगर कुछ गड़बड़ हुई तो शहर तक कैसे जाएंगे। वहीं चलते-चलते कसम खाई कि अब से नियमित चलाई करेंगे ताकि ऐसी समस्या न आये।यह कसम हम कई बार खा चुके हैं,इसलिए एक बार और खाने में कोई हिचक नहीं हुई। कसम खुद से खानी थी इसलिए कोई दुविधा भी नहीं हुई। किसी और से खानी होती तो और भी कुछ नाटकीय अंदाज में कहना होता -'अगर कसम तोड़ी जो सजा दोगे वो मंजूर।'
थोड़ी देर में सांस सम पर आ गयी। तसल्ली से चलने लगे। आगे चलकर रास्ता पथरीला हो गया। हर पत्थर पर पैर रखकर आगे बढ़ना एक चुनौती। कहीं पैर फिसलता कहीं ठोकर लगती। किसी जगह पैर पत्ते पर पढ़कर नीचे धंस जाता। हर कदम पर एक चुनौती।
ट्रेकिंग करते हुए लगा -हर अगला कदम आपकी मंजिल है।
एक जगह बड़ी चट्टान पर चढ़कर रास्ता था। ठहरते हुए उस पर चढ़े। हिदायतों की बौछार में चढ़ना और कठिन हो जाता है। लेकिन सफलता पूर्वक रास्ता पार करके जो सांस ली उसको चैन की सांस कहते हैं।
आगे रास्ते के पत्थर और नुकीले होते गए। लेकिन तब तक अभ्यास हो गया था। एक जगह धंस गए पैर पत्थर और गड्ढे में। हम ठहर गए। जिसे पत्थरों ने स्टेच्यू बोल दिया हो हमको। साथ के लोगों ने सहारा देकर निकाला हमको।
करीब चार किलोमीटर के बाद एक कुंड मिला। कुंड का पानी हरा हो गया था। कुछ लोग उसके पास बैठे फोटो खिंचा रहे थे।
वहीं ऊपर पहाड़ी पर एक बाबा मात्र लँगोटी पहने मौका मुआयना वाले अंदाज में टहलते दिखे। कुछ देर हम लोगों को और आसपास देखा। फिर अपनी कुटिया में चले गए।
आखिरी बिंदु पर पत्थर की बड़ी चट्टान थी। उसके आगे रास्ता नहीं था। चटटान बर्फी की शक्ल में कटी थी। बरसात के दिनों में यहां झरना बन जाता है। पानी अपना रास्ता खोज कर आगे बढ़ता है।
सामने से सूरज भाई भी दिखने लगे। लगता है हमको देखकर मुस्करा रहे थे। हम भी उनको देखकर मुस्कराए। दोनों को मुस्कराता देखकर पूरी कायनात मुस्कराने लगी। 'मुस्कान अनुनाद' हो गया समझिए।
कुछ देर वहां रहने के बाद हम वापस लौट लिए। वापसी के किस्से आगे।

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Saturday, November 27, 2021

खबरों के पीछे का सच

 


सुबह-सुबह मैदान में जोर-जोर से ताली बजाते दिखे लोग। हमको लगा कोरोना के नए वैरियंट को आने के पहले ही भगाने का अभ्यास हो रहा है। दुश्मन के पांव जमाने के पहले ही उसके छक्के छुड़ाने का अभ्यास। नजदीक से देखा तो योग और अन्य गतिविधियां भी हो रही थीं। 20-30 लोग । इतनी सुबह नियमित आ जाते हैं कसरत करने हमारे लिए ताज्जुब की बात।
लेकिन ताज्जुब किस बात का। जिस काम को हम करना चाहते हैं उसको करने के हजार तरीके निकल आते हैं। कोई काम नहीं है मुश्किल जब किया इरादा पक्का।
बाद में पता चला कि यह एक स्कूल का खेल का मैदान था। जयपुर स्कूल। स्कूल में पढ़ने, काम करने वाले लोग ही रहे होंगे। एक जगह रहने वालों को साथ लेना सहज।
सड़क पर अखबार वाला घरों में अखबार डाल रहा था। साइकिल चलाते हुए बैग से अखबार निकाल कर घरों में थ्रो कर देता। जैसे क्रिकेट के मैदान में खिलाड़ी अंदाज से दौड़ते हुए गेंद थ्रो कर देते हैं। कभी विकेट पर लगती है, कभी दूर निकल जाती है।
हॉकर के फेके हुए अखबार अधिकतर घरों के अंदर गिरे। कुछ गेट, दीवार से टकराकर इधर-उधर छिटक गए। अखबार वाले ने इधर-उधर गिरे हुए अखबार उठाकर दुबारा फेंकने की जहमत नहीं उठाई। उसको तमाम अख़बार फेंकने थे।
अखबार फेंकते समय न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम के अनुसार साइकिल हिल जाती। सन्तुलन बिगड़ता। साइकिल वाला एक तरफ झुक कर फौरन फिर सन्तुलन बना लेता। अगले घर में अख़बार फेंकने लगता।
अखबार फेकने की फ़ोटो ली। पता नहीं क्या हुआ, अंधेरा था या क्लिक करते समय हाथ हिल गया, लेकिन फ़ोटो साफ नहीं आया। थोड़ा धुंधला गया। कुल मिलाकर जो फोटो साफ -सुथरी आनी चाहिए वह धुंधली होकर मॉर्डन आर्ट का बेहूदा नमूना होकर रह गयी।
अखबार वाले का धुंधला फ़ोटो आज के समय की खबरों की तरह लगा। यहाँ अखबार वाला वास्तव में है, हम उसको सामने देख रहे हैं। लेकिन फोटो देखने में चेहरा-मोहरा, भाव भंगिमा समझ नहीं आते।
आज की खबरों के भी यही हाल हैं। किसी घटना की खबरें इस तरह छपती, प्रसारित होती हैं कि सच क्या है ,पता नहीं लगता। हर खबरिया चैनल , अखबार उस घटना की ऐसी हिली हुई रिपोर्टिंग करता है कि बाज दफा पता ही नहीं चलता कि हुआ क्या है। जब तक खबर का सच पता चले उससे पहले ही दूसरी घटना घट जाती है। नई खबर हल्ला मचाने लगती है।
खबरों के पीछे के सच को छिपाने और बदरंग करने में ताली और गाली और समाज की जहालत का भी काफी योगदान होता है।
बहरहाल हमारी मंजिल न ताली सुनना था न ही अखबार का वितरण देखना। हम आये थे जंगल की सैर करने। हमारे मित्र नरेश ठकराल ने उकसा दिया कि आइए सुबह सैर कराते हैं जंगल की। हम चढ़ गए पानी में। देर रात एक विवाह समारोह से लौटने से बावजूद पांच बजे जग गए। मन किया करवट बदल के सो जाएं। लेकिन फिर फटाक से तैयार होकर निकल लिए। ये किस्से उसके बाद के, नरेश का घर खोजने के दरम्यान के।
आगे और पीछे के किस्से आगे आएंगे। आने चाहिये अगर आलस्य और काम के बोझ ने दबोच न लिया।

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Tuesday, November 23, 2021

दुनिया एक खूबसूरत किताब



सुबह जगने पर पहले लोग जम्हूआई लेते थे। अब सबसे पहले मोबाइल देखते हैं।सोते समय मोबाइल का नेट अगर खुला रहा तो आये हुए सन्देश और नोटिफिकेशन अपने देखे जाने के इंतजार में दुबले होते हैं। अगर नेट बन्द रहा तो खुलते ही संदेशे भड़भड़ाकर , चुनाव के समय पार्टियों के लुभावने वायदों की तरह मोबाइल पर हमला कर देते हैं। भगदड़ मच जाती है संदेशों में। एक के ऊपर एक लदते-फदते मोबाइल पर गिरते हैं। न जाने कितने चुटहिल हो जाते होंगे।
ऐसे ही एक नोटिफिकेशन दिखा -'आप मोबाइल के एडिक्ट तो नहीं हो रहे।' पढा तो सब बातें अपन के ऊपर लागू। आदत खराब बताई गई थी मोबाइल एडिक्ट होना। फौरन बन्द कर दिया मोबाइल। आज के जमाने में कौन शरीफ आदमी बुरा बनना चाहेगा ।
मोबाइल बन्द करके किताब उठा ली। तीन-चार किताब हमेशा बगल में धरे रहते हैं। जब मन आये कहीं से भी पढना शुरू कर देते हैं। कई बार तो पढ़ी हुई चीज फिर पढ़ जाते हैं। रोचकता से ज्यादा भुलक्कड़ी का योगदान है इसमें। तमाम किताबें पढ़े जाने के इंतजार में हैं।
किताब कुछ देर पढ़ी। रोचक थी। लेकिन अचानक मोबाइल की याद आ गयी। फौरन खोल लिया। खोलते ही याद आया, बार-बार मोबाइल देखना बुरी आदत है। लेकिन लगा कि इतना भी बुरा नहीं। कौन कोई देख रहा है। अकेले में बुरा बनना चलता है। दुनिया में तमाम खराब माने जाने वाले काम इसी बहाने होते रहते हैं -'कोई देख थोड़ी रहा है।'
बहरहाल मोबाइल में एक पिक्चर के बारे में सूचना दिखी। रोचक लगी। मन किया देखें। लेकिन फ़िल्म की अवधि घण्टे भर से ज्यादा थी। बाद के लिए टाल दिया।
अगला नोटिफिकेशन स्पेंसर ट्यूनिक के फोटो शूट का था। स्पेंसर ट्यूनिक अमेरिका के फोटोग्राफर हैं। ( https://youtu.be/YXIOgCreeA0 )कई जगह लोगों के बिना कपड़ों के फोटो खींचते हैं। सैकड़ों,हजारों की संख्या में लोग बिना कपड़े उनके शो में शामिल होते हैं। इजरायल में ' ब्लैक सी' की बदहाली पर ध्यान दिलाने की मंशा से न्यूड फोटो ग्राफी की थी स्पेंसर ने। तमाम फोटो शूट कर चुके हैं तब से। अलग-अलग मुद्राओं में बैठकर, लेटकर, खड़े होकर बिना कपड़ों के शूटिंग में शामिल होते हैं। आदमी और औरत दोनों।
एक इंटरव्यू में स्पेंसर ट्यूनिक ने बताया -'लोग इसका विरोध करते हैं इससे मुझे अपने मुद्दे पर फोकस मिलता है।'
कई फोटो सेशन देखकर मुझे कौतूहल हुआ कि फोटोग्राफी के लिए इतना तामझाम करने के लिए लोग इनके पास अपने आप आते हैं या भुगतान करना होता है इनको। कई कौतूहल और भी। दुनिया कितनी बहुरंगी है।
कुछ देर बाद मोबाइल छोड़कर फिर किताब उठा लिए। कुछ देर पढ़ते रहे। लगा इसी गति से पढ़ते रहे तो किताब तो खत्म हो जाएगी आज ही। हम इस आशंका से दहल गए। किताब खत्म हो जाएगी तो बचेगा क्या ? बन्द कर दी किताब।
हमारे पास अनगिनत बेहतरीन किताबे इसीलिए अनपढी, अधपढी रखी हैं कि लगता है ये खत्म हो गयीं तो बचेगा क्या? किताबें बचीं हैं तो लगता है दुनिया बची है। लेकिन किताबें तो पढ़ी जानीं चाहिए। सही है। लेकिन लगता है साथ हैं तो पढ़ भी ली जाएंगी कभी न कभी। किताबें ताबीज की तरह तमाम अलाय-बलाय से बचाने का एहसास देती हैं।
लेकिन सबसे बड़ी किताब तो यह दुनिया है। इसको नियमित बांचते रहते हैं। देखते रहते हैं। अलटते-पलटते रहते हैं। रोज नए किरदार मिलते हैं।
कल एक आदमी हमारे रामलीला मैदान की पानी की टँकी पर चढ़ गया। अपने बेटों से आजिज था। बेटे उसको मारते-पीटते थे। पैसे के लिए। पुलिस आई ,लड़के आये, उतारा। जब तक यह हुआ,तमाशबीन जमा होते रहे।
परसों रात टहलने निकले। लोग शहर से आकर यहां की बेंचों पर बैठकर बतियाते दिखे। मैदान में अंधेरा। हाई मास्ट लाइट बन्द। लगा कि अनदेखी होने पर कितनी चीजें अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। कल रात जलती दिखी लाइट। मैदान खूबसूरत हो गया।
लौटते हुए रिक्शा स्टैंड पर एक आदमी बेंच पर सोता दिखा। पास ही स्कूटी खड़ी दिखी। स्कूटी से उतरे लड़के बगल की इमारत के पास खड़े किसी बात पर गाली गलौज कर रहे थे। बगल के मैदान में कुछ बच्चे बैडमिंटन खेल रहे थे। इन दोनों से बेखबर बेंच पर लेटा आदमी कम्बल ओढ़े आराम से सो रहा था।
यह तो कल-परसों की बात हुई। अब तो सुबह हो गयी। सूरज भाई सामने से पूछ रहे हैं -'दफ्तर नहीं जाना क्या आज?'
सूरज भाई तो खैर इसी तरह पूछते रहते हैं। कल एक मित्र ने पूछा -'सूरज देवता आपके भाई कैसे हुए?'
हमने सूरज भाई से पूछा क्या जबाब दें इसका ? बोले -'कह दो जैसे तुम्हारे लिए देवता हैं वैसे ही हमारे भाई हैं सूरज भाई।'
'वैसे हर बात का जबाब देना कोई जरूरी नहीं होता। मौन भी एक जबाब होता है' यह पुच्छला भी जोड़ दिया सूरज भाई ने अपने जबाब में।
हम कुछ कहें तब तक सूरज भाई आसमान में चढ़कर मुस्कराने लगे।

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Monday, November 22, 2021

99% बेईमान, 95 बेवकूफ



आज सुबह निकल ही लिए। साइकिल में हवा कल की भरी थी। पैडल मारते ही स्टार्ट हो गई। टनाटन चल दी। सड़क पर आ गए।
कहने का मन हुआ कि हमारी साइकिल किसी संस्थान की कोई मशीन थोड़ी है जो कुछ दिन न चलने पर कबाड़ हो जाये। इत्ती कि उसको चलाने की जगह नई खरीद की बात चले।
स्कूल खुल गए हैं। बच्चे आते दिखे। साइकिल पर, पैदल, टेम्पो पर। चहल-पहल बढ़ गयी। सड़क खूबसूरत लगने लगी। सड़क पर चलने वाले राहगीर सड़क का श्रंगार होते हैं। राही राह का सौन्दर्य बढ़ाते हैं।
रामलीला मैदान के दोनों तरफ लोग कसरत में जुटे थे। एक आदमी गर्दन इधर-उधर हिलाते हुये गर्दन व्यायाम कर रहा था। दूसरा रस्सी कूद रहा था। एक जगह खड़े-खड़े थोड़ा उचक जाता। रस्सी नीचे से निकल जाती। कोई झुकने उठने वाला व्यायाम भी करते दिखे लोग। सूरज भाई सबके चेहरे पर रोशनी डालकर उनके चेहरे के पसीने को चमका रहे थे।
एक मोड़ पर कुछ कौवे फुटपाथ पर बैठे कुछ मिस्काउट सी करते दिखे। हमको देखते ही उड़ लिए। जरूर किसी गड़बड़ी की योजना बना रहे होंगे। हमको देखकर डर गए। गड़बड़ करते हुए लोग डरपोक होते ही हैं। जरा सा हड़का दो, तितर-बितर हो जाते हैं।
एक मैदान में उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम की बस आराम कर रही थी। सड़क से करीब बीस मीटर दूर खड़ी। शायद काफी दिन रहना हो उसे वहां, इसीलिए सड़क से किनारे हो गयी।
फुटपाथ पर एक आदमी औंधा पड़ा था। आंख मूंदे। लगा नशे में धुत्त होगा। लेकिन मेरा सोचना गलत भी हो सकता है। हो सकता है नींद में हो। किसी के बारे में राय बनाना ठीक नहीं। नशे में भी हो तो क्या। कवि कह गए हैं:
तुम नशे में डूबना
या न डूबना
लेकिन डूबे हुओं से मत ऊबना।
आगे एक गाड़ी में बड़ा सा ट्रांसफार्मर रखा था। अस्थाई इंतजाम बिजली की सप्लाई का। बड़े-बड़े तार निकले थे। खम्भे से जुड़े। बिजली धड़ल्ले से आ-जा रही होगी।
ट्रांसफार्मर के बगल में ही फुटपाथ पर बैठे बुजुर्गवार हमको देखते ही बतियाने लगे। कहने लगे -'आज देश में 99% बेईमान हैं, 95% बेवकूफ हैं, 60% लड़कियन की कमाई खाते हैं।'
इतने आत्मविश्वास से बोलने वाला इंसान जरूर काटजू जी जुड़ा होगा। पता चला 72 साल के पंडित जी कचहरी में मुंशी हैं। महोली वाले पंडित जी के नाम से कचहरी में सब जानते हैं।
आम बुजुर्गों की तरह पंडित जी को जमाना दिन पर दिन खराब होता लगता है। आधे वकील बेबकूफ हैं। खाली डिग्री खरीद लिहिन्ह हैं, आवत-जाट कुछ है नहीं। काला कोट पहिन के सारे आ जात हैं कचहरी मां। अहमक हैं। वकीलों को उन बालों की उपमा भी दी पंडित जी ने, जिनको बोलचाल में भले न माना जाए लेकिन लिखत-पढ़त में परहेज किया जाता है।
पंडित जी अपने संघ के सचिव भी हैं। पर्चा भरा तो लोग बोले -'बाहिर के हौ, जमानत जब्त हुई जइहै।' पंडित जी बोले -'जौन होई , दीख जाई।' लेकिन जलवा ऐसा कि कोई दूसरा आया नहीं पर्चा भरने। निर्विरोध सचिव चुने गए। बाद में अध्यक्ष डकैती में जेल चला गया तो मानद अध्यक्ष भी बन गए। अभी तक बने हुए हैं।
पंडित जी की घरैतिन होमगार्ड में हैं। हमने पूछा -'आप 72 के वो क्या 60 से कम हैं।' बोले हां एकाध साल कम लिखी है उम्र। अगले साल रिटायर है।
पंडित जी को नई पीढ़ी से सख्त नाराजी है। बोले -'कच्ची दारू, पुड़िया और मोबाइल ने 60% लड़कों को बर्बाद कर दिया है।' 200 रुपये की पुड़िया खा जाते हैं। इत्ते में बढ़िया मक्खन खाएं तो सेहत बने।
खिरनी बाग में रहने वाले 72 साल के मोहाली वाले पंडित जी बोले -'हम अभी भी बिना चश्मा अखबार पढ़ लेते हैं। न्यायपथ के आदमी हैं। किसी से डरते नहीं। सब जानते हैं ।'
कचहरी का मुंशी न्यायपथ का आदमी है सुनकर बहुत भला।लगा।
आगे बस स्टेशन मिला। सवारियों की चहल-पहल से गुलजार। एक व्हीलचेयर पर एक बुजुर्ग को धकियाते हुए एक बच्चा ले जा रहा है। आगे व्हील चेयर समेट कर ऑटो में बैठ गए। रोजा जा रहे थे।
एक मोबाइल जी दुकान पर नाम लिखा था 'नेता जी मोबाइल वाले।' कितने तरह के नेता होते हैं अपने यहाँ।
एक पेट्रोल पंप के पास कुछ मजदूर खड़े ट्रक का इंतजार कर रहे थे। उससे लोहा उतरवाना है उनको। एक बुजुर्ग ने लम्बी अंगड़ाई लेते हुए बांहे फैलाई। हमको कविता याद आई:
ले अंगड़ाई उठ हिले धरा,
करके विराट स्वर में निनाद।
रास्ते में कुछ बैलगाड़ियों में भूसा लदा दिखा। बिकने के लिए आया है शहर में। सब भूसा खप जाता है। जानवरों के खाने के अलावा दिमाग में भी तो भरना होता है।
फैक्ट्री के पास सड़क गुलजार थी। लोग काम पर आ रहे थे। सूरज भाई भी पूरी सड़क को रोशनी से चेकोलाइट कर रहे थे।
सुबह हो गई है।

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Sunday, November 21, 2021

आशा। उम्मीद



मेरे हाल पर दोस्त मुझे ही दुख नहीं
तो यह तुम्हारा किस बात का घबराना
तुम मेरे जलते चूल्हे पर कभी
अपने आंसू मत गिराना।
अरे थोड़ा बिखरा ही तो है कमरा मेरा,
कोई टूटा थोड़ी है,
तुम मुझे संवारने की आस से
मेरे पास मत आना।
और जब दस्तक दो दरवाजे पर तो,
कुछ वक्त बैठने का इरादा साथ लाना,
मैं बन्द दीवारों में रखी कोई मूर्ति नहीं,
जब जाना तो फिर मिलने की उम्मीद मेरे पास छोड़ जाना।
जो दिखे कभी दरवाजे पर ताला,
तो देखकर लौट मत जाना,
मेरे पूरे घर से वाकिफ हो यार तुम,
सीधा खिड़की से भीतर चली आना।
-अनन्य शुक्ल
यह दो मिनट वाली कविता मेरे सुपुत्र Anany Shukla ने अंग्रेजी की लिपि में लिखी। शायद अनन्य के पाठक रोमन लिपि में ही पढ़ने वाले ज्यादा हैं। पढ़ते हुए इसे देवनागरी में लिखने का मन हुआ। पढ़िये।
Hope | Umeed
Mere haal par dost mujhe hi dukh nahi to yeh tumhaara kis baat ka ghabraana,
Tum mere jalte chulhe par kabhi apne aansu mat giraana..
Arrey thoda bikhra hi to hai kamra mera, koi toota thodi hai,
Tum kewal mujhe sawaarne ki aas se mere paas mat aana..
Aur jab dastak do darwaaze par to kuch waqt baithne ka iraada saath laana,
Main band deewaron mein rakhi koi murti nahi,
Jab jaana to phir milne ki wo umeed mere paas chhod jaana..
Jo dikhe kabhi darwaaze par taala, to dekh kar laut mat jaana,
Mere poore ghar se waaqif ho yaar tum,
Seedha khidki se bheetar chali aana..
- Anany Shukla
📍Choki Dhani, Jaipur, Rajasthan 🇮🇳