Thursday, March 24, 2022

धर्म छोटे बड़े नहीं होते

 धर्म छोटे बड़े नहीं होते
जानते तो लड़े नहीं होते

चोट तो फूल से भी लगती है
सिर्फ़ पत्थर कड़े नहीं होते।
यह सबसे पहला मुक्तक था जो मैंने सुना था विनोद जी का। सुनिए आप भी।

https://www.facebook.com/share/v/wQvp5N4PENDcx53o/

Wednesday, March 23, 2022

अगर रूठ भी गया तो क्या

 कानपुर के हमारे प्रिय गीतकार विनोद श्रीवास्तव जी कुछ दिन पहले शाहजहाँपुर आए। उनसे मिलना भी हुआ । विनोद जी के कुछ गीत रिकार्ड किए। उनमें से एक मुक्तक यहाँ पेश है।

अगर रूठ भी गया तो क्या
मैं अगर छूट भी गया तो क्या
तुमको मिल जाएँगे कई दर्पण
मैं अगर टूट भी गया तो क्या ?

https://www.facebook.com/share/v/nyxV2TsRPo6FiCyT/

Wednesday, March 16, 2022

समय होत बलवान

 

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सुबह होती है, शाम होती है,
जिंदगी तमाम होती है।
देखते-देखते समय गुजर जाने का भाव है इस शेर में। कुछ असहायता का भी कि समय पर बस नहीं। नामुराद बिना पूछे बीत जाता है। परमिशन भी नहीं लेता गुजर जाने की। इससे लगता है कि समय किसी की नौकरीं नहीं करता। उसकी अपनी दुकान है, जिस पर कोई पाबंदी नहीं लगा सकता। ऐसे थोड़ी कहा गया है -
'पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान।'
समय भी अलग-अलग छटा दिखलाता है। कोई सोचता है किसी तरह कट जाए। आगे बढ़े। बवाल कटे। लोग कहते भी हैं -'बस किसी तरह काट रहे हैं समय। जित्ता कट जाए उत्ता बढिया।' समय ऐसे लोगों को घाव में नमक की तरह लगता होगा। वैसे तो घाव अपने आप में कम बवाल नहीं, लेकिन घाव में नमक तो और बड़ा बवाल। ऐसे जैसे लोकतंत्र में विरोधी पार्टी की सरकार।
बाकी तमाम ऐसे लोग भी हैं जिनको लगता है काश समय इफरात में होता। खूब सारा समय होता तो खूब मजे करते। ऐसे लोग वे लोग होते होंगे जिनको खाने-पीने-जीने की बुनियादी सुविधाएं सहज उपलब्ध होती होंगी। 'तिनहि न व्यापत जगत गति' वाले घराने के लोग होते होंगे।
कभी-कभी लगता है कि काश खूब सारा समय होता तो ये करते, वो करते। खूब घूमते, पढ़ते-लिखते, बतियाते-गपियाते। तमाम हसरतें समय न होने के चलते स्थगित हो गईं। तमाम किताबें समय के कारण अनपढी, अधपढी रह गईं। तमाम पिक्चरें अनदिखी रह गईं। तमाम लोगों से बातें अधूरी रह गईं।
कभी यह भी सोचते हैं कि जब समय इफरात में होता है तो क्या करते हैं। पता चलता है कि जब भी समय मिला तो उसको जमकर बर्बाद किया। पुरानी दुश्मनी का हिसाब बराबर किया। जब जरूरत थी तब आये नहीं, अब आये हो तो हम तुम्हारा जनाजा निकालेंगे। जो काम करना चाहते थे, समय मिलने पर, उनकी तरफ आंख उठाकर देखना तो दूर, उनके बारे में सोचा तक नहीं। इफरात समय भी गुजर गया बेचारा। समय बीत जाने पर हम फिर इंतजार करते हैं कि इफरात समय मिलता तो हम मनचाहे काम करते।
सही बात तो शायद यह है कि हम भरपूर समय का इंतजार करते हैं ताकि समय को कायदे से बर्बाद कर सकें।
समय को बर्बाद करने की आदत इतनी सहज हो जाती है कि लगता है :
सबेरा अभी हुआ नहीं है
लेकिन लगता है
यह दिन भी गुजर गया हाथ से
हथेली में जकड़ी बालू की तरह।
अब सारा दिन फिर इसी एहसास से जूझना होगा।
अब बताओ जब दिन की शुरुआत ही इसके बीत जाने के एहसास से हो कि दिन गुजर गया तो ऐसे के लिए क्या दिन, क्या महीना, क्या साल। दशक भी मिलेगा तो भी ऐसे ही बर्बाद कर देगा। है कि नहीं।
समय की बात तो ऐसे ही करने लगे। न जाने कहाँ से आ गया समय दिमाग में। उसकी बात करने लगे। वैसे तो हम नीचे दिख रही फोटो देख रहे थे। इसमें सूरज भाई दिन के बाद विदा होते दिखें। झाड़ियों के ऊपर दिखते सूरज भाई ऐसे दिख रहे थे , गोया झाड़ियों ने उन्हें अपने ऊपर तान रखा हो। वेटलिफ्टिंग करते हुए झाड़ियों ने सूरज भाई को उठा लिया। जर्क के साथ छोड़ेंगी तो फिर अगले दिन ही दिखेंगे सूरज भाई।
झाड़ियां सूरज भाई को उठाये हैं यह कल्पना भी देखिए। धरती पर लाखों-करोड़ों झाड़ियां होंगी इस तरह की। सूरज भाई आकार में इत्ते बड़े हैं कि साठ हजार धरती समा जाएं उनमें। ऐसे अपने से करोड़ों-अरबों-खरबों गुना वजन वाले सूरज भाई को झाड़ियां अपने ऊपर उठाएं हैं यह सोचना कितना बेफालतू है। लेकिन सोचने पर कोई पाबंदी थोड़ी है।
वैसे भी आजकल तो बेफिजूल की बातें करने का चलन है। जब सब लंतरानी हांकने में लगे हैं तो हम काहे पीछे रहें।
अब आप हमारी बात का कोई मतलब निकाल रहे हैं तो इसका मतलब आपके पास समय इफरात में है और आप समय से दुश्मनी निभा रहे हैं।

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