कल बहुत दिन बाद साइकिलिंग की। गद्दी पर हाथ मारा तो साइकिल फौरन तैयार हो गयी चलने को। कोई मनौना नहीं कि इत्ते दिन बाद चल रहे हैं तो आदत छूट गयी, हम न चलेंगे। यह सब इंसानों के चोंचले हैं।
कैंट रोड पर सुबह की चहल-पहल थी। कोई टहल रहा था, कोई आपस में बतिया रहा था। कोई अंगड़ाई ले रहा था। अंगड़ाई लेने का अंदाज ऐसा कि कविता याद आई -'ले अंगड़ाई उठ हिले धरा, करके विराट स्वर में निनाद।'
मैदान में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। चल-पहल थी चारो तरफ। मार्निंग वाकर की बेंच अलबत्ता खाली थी। कोई बैठा नहीं दिखा। शायद टहलकर चले गए थे।
लेकिन आगे बायीं तरफ एक जगह सुबह की सैर के साथी दिख गए, इंद्रजीत जी, डॉ त्रेहन, शुक्ला जी और अन्य साथी। एक हेल्थ कैम्प के पास मौजूद थे। एक अस्थायी गुमटी पर मेगा हैल्थ कैम्प लगा था। डायबिटीज जैसी कुछ जांच मुफ्त में होने का इंतजाम। मुफ्त शब्द देखते ही मुझे याद आया -'इस दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं है।'
सुबह के सैर के साथियों से हाल-चाल का आदान प्रदान हुआ जैसे मुलाकात होने पर लोग अपने विजिटिंग कार्ड की अदला-बदली होती है। फ़ोटो भी हुए। फोटो के बिना कोई मुलाकात मानी कहां जाती है।
आगे एक लड़का अपने कुत्ते को टहला रहा था। देखते-देखते दौड़ाने लगा। कुछ देर में जंजीर छूट गई। अब कुत्ता लड़के को दौड़ाने लगा। कुछ दूर के भागने के बाद कुत्ता रुक गया। एक बार पालतू हो जाने के बाद आजाद होने की इच्छा मर जाती है। कुत्ता और लड़का दोनों मिलकर हांफने लगे। हांफते हुए दोनों ने एक-दूसरे को देखा। ताज्जुब की बात लड़के ने कुत्ते के साथ सेल्फी नहीं ली। शायद कुत्ते को पसंद न हो।
पास से गुज़रते हुए देखा कुत्ते की पीठ अधगंजी थी। बाल कहीं-कहीं उड़े थे। शायद इसीलिए कुत्ते को फोटो लेना पसंद न हो।
फुटपाथ पर खड़ी एक ठेलिया बीच अचानक ढाल के सहारे सड़क की तरफ चलने लगी। आहिस्ते से सड़क पर उतरकर बीच सड़क तक आई। इसके बाद वापस पीछे लुढ़कते हुए फुटपाथ किनारे की नाली के सहारे टिककर खड़ी हो गयी। ठेलिया की चाल ढलान पर निभर थी। ढलान खत्म होते ही उसका चलना रुक गया। चलने के लिए दूसरे के भरोसे रहने वाले बहुत दूर नहीं जा पाते हैं।
इस बात को साहित्य पर लागू करते हुए Arvind Tiwari जी ने लिखा -“कुछ लोग साहित्य में ढलान के सहारे ही उतरे हैं ।”
आगे एक बन्दर सीधी चाल से सड़क पार करता दिखा। पूंछ को झंडे की तरह लहराते हुए शाही अंदाज में सड़क पार की उसने, बिना दाएं-बाएं देखे। गोया सड़क का खलीफा हो बन्दर। हम भी सम्मान में 'थम' हो गए।
गोविंद गंज क्रासिंग पर एक महिला आते-जाते लोगों से भीख मांग रही थी। सुनते हैं भीख मांगना अपराध है। लेकिन हर तरफ मांगने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। अकेले भीख मांगना गलत माना जाता हैं। लेकिन मांगना जायज कानूनन हक माना जाता है। संगठन की यही ताकत है। संगठित होकर किया अपराध, अपराध नहीं माना जाता। लूटपाट और हत्या अकेले किये जाने पर अपराध है। लेकिन संगठित होकर करने पर क्रांति कहलाई जाती है।
महिला के बगल ने बैठे दो बच्चे मोबाइल पर कोई पिक्चर देख रहे थे। आस-पास से, दीन-दुनिया से बेखबर।
क्रासिंग पार फल वाला अपनी ठेलिया सजा रहा था। दूसरी तरफ एक ऑटो वाला ड्राइविंग सीट पर बैठा इत्मीनान से बीड़ी पी रहा था। उसके बीड़ी पीने के बेफिक्र और निश्चित अंदाज को देखकर लगा मानो कोई बादशाह अपने तख्ते-ताउस पर बैठे तसल्ली से हुक्का गुड़गुड़ा रहा हो। लेकिन यह उपमा ठीक नहीं। बादशाहों को तसल्ली कहाँ हासिल होती है। उनको तो हर समय अपने तख्त के छिनने की चिंता लगी रहती होगी। जरा दी गफलत हुई कि छिन गयी सल्तनत। बादशाह सलामत से मरहूम बादशाह सलामत में तब्दील हो गए।
ऑटो वाले ने बताया कि पास से सवारी लेकर चर्च में छोड़नी है। इसके दो घण्टे बाद वापस घर छोड़ना है। कप्तान साहब के बगल की खाली पड़ी जमीन झोपड़ी डाल ली है। गुजर-बसर हो रही है।
आगे एक आदमी सड़क किनारे बैठा अखबार पढ़ रहा था। तसल्ली से एक-एक खबर को सूंघते-दिमागस्थ करते हुए। उसके बगल में एक छोटा बच्चा कुछ देर अखबार को बगल से देखता खड़ा रहा, फिर ऊबकर अंदर भाग गया।
जगह-जगह मिठाई की दुकानें गुलजार थीं। हर ठेलिया पर जलेबी छन रही थी। कुछ लोग खड़े होकर खा रहे थे, कुछ ले जा रहे थे। जलेबी बनाता , छानते लोग जिस तल्लीनता से अपने काम में लगे थे उसको देखकर लगा कि नवनिर्माण में जुटे हैं। मोटे कपड़े के छेद से कड़ाही में मैदे की छोटी सीढ़िया बनाकर उनको उलट-पुलटकर सेंकते और फिर चासनी में डुबाकर निकालते लोग। अद्भुत। अनिवर्चनीय।
बहादुरगंज के आगे बीच सड़क पर खड़े दो बुजुर्ग आपस में बतिया रहे थे। एक बुजुर्ग पटरे का जांघिया पहने उसके अगले, बीच के हिस्से को अनिर्वचनीय आनंद से खुजलाते हुए पैजामा पहने दूसरे बुजुर्ग से तसल्ली से बतिया रहे थे। दूसरे बुजुर्ग का जनेऊ उनकी बनियाइन से झांक रहा था, चुटिया कम बालों के बीच 'बालों के मन्त्रिमण्डल' की तरह अलग प्रभावी दिख रही थी। उनके ऊपर नीचे के दांत इस तरह टूटे थे, गोया एक दूसरे की शक्ल न देखने का प्रण लेकर निपट गए हों। ऊपर के दांत नीचे के मसूढ़े में और नीचे का दांत ऊपर के मसूढ़े में फिट, आलिंगनबद्ध। बीच में जो दांत आया, निपट गया।
तसल्ली से 'सड़क चैट' करते बुजुर्ग हमको देखकर चुप हो गए। हमने कुछ इधर-उधर के सवाल पूँछकर 'बुजुर्ग जोड़े' की फोटो लेनी चाही तो दोनों मनाकर खरामा-खरामा चल दिये। दो बुजुर्गों की तसल्ली पूर्ण बातचीत में हम बाधक बने।
घण्टाघर के आगे मंदिर के पास सड़क किनारे कुछ साधू दिखे। पता चला कि वे अयोध्या जी होकर आए हैं। आगे कहीं और जाने की योजना बना रहे हैं। कहां जाने का विचार है पूंछने पर 'साधु प्रवक्ता' ने बयान जारी किया -' सांप, साधु, सिर्री (पागल , सिरफिरा) का कोई ठिकाना नहीं होता' । मतलब कहीं भी जा सकते हैं। एक साधु ने बताया -' हरिद्वार जाने की सोच रहे हैं। कोई साथी मिल जाएगा तो चले जायेंगे।'
हमको याद आया -'रमता जोगी, बहता पानी, इसको कौन सके बिरमाय।
बातचीत करते साधुओं से निर्लिप्त और थोड़ा अलग टाइप बैठे साधु अपने में डूबे बीड़ी पीते , धुंआ उड़ाते चुपचाप बैठे थे। उनकी मुखमुद्रा देखकर लगा मानो चुनाव में हार गई पार्टी का कोई प्रमुख नेता 'पार्टी में रहे या सरकार बनाने वाली पार्टी में शामिल हो जाये' जैसे अहम मसले पर चिंतन कर रहा हो।
हम साधुओं से बतिया ही रहे थे कि एक लड़का अपने जबर कुत्ते को टहलाते हुए लाया और एक खम्बे के पास खड़ा कर दिया। कुत्ते ने टांग उठाकर खम्भे को सींचा। सिंचाई पूरी होते ही उसके चेहरे पर तसल्ली पसर गयी। 'इस सिंचाई अभियान' को देखकर लगा कि अगर सड़कों किनारे लगे खम्भे हटा लिए जाएं तो तमाम कुत्तों की किडनियां खराब हो जाएं। फिर क्या पता भविष्य में होने वाले चुनावों में आश्वासन दिए जाएं -'अगर हम चुनाव जीते तो आपके कुत्तों के लिए हर सौ मीटर पर एक खम्भा लगवाएंगे।'
चौक मोहल्ले में एक जगह फुटपाथ पर बैठे कुछ बुजुर्ग आपस में बतिया रहे थे। घर से बाहर बुजुर्ग मस्त होकर चुहल कर रहे थे।
देखते-देखते , पैडलियाते-पैडलियाते हम केरूगंज पहुंच गए। केरूगंज मतलब शहर की शुरुआत। थोड़ा बांए चले तो खन्नौत नदी का पुल। नदी किनारे तमाम धोबी कपड़े धो रहे थे। कपड़ों की गंदगी नदी को भेंट कर रहे थे। भैंसे 'रिवर बाथ' कर रहीं थी। सुअर किनारे रहकर पानी पी रहे थे।
नदी पार एक मकान पर डॉक्टर अरोरा का इश्तहार हल्ला मचाते हुए लगा था। इश्तहार में सेक्स मरीजों का आह्वान किया था तुरन्त मिलने के लिए। लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं दिखी, न कोई भीड़। कोई इलाज नहीं चाहता, बस बीमारी का रोना।
देखते-देखते सड़क पर से एक सवारी गुजरी। पुल हिलने लगा। हम सहम गए। फौरन साइकिल समेटी और आगे बढ़ गए।
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