कल पहली अप्रैल थी। मूर्ख दिवस। हमने सोचा कोई बेवकूफ बनाएगा। लेकिन दिन बीत गया। किसी ने नहीं बनाया। हो सकता है किसी ने बनाया हो लेकिन बताया न हो। यह भी एक तरीका है बेवकूफ बनाने का। इस तरीके से तो जिंदगी भर बेवकूफ़ बनाते रहते हैं। लोग उन गुणों की तारीफ कर देते हैं जो हममें हैं ही नहीं। यह डंके की चोट पर बेवकूफ बनाना है।
लिखना-पढना सब स्थगित सा है आजकल। आइडिये जितने आते हैं वो अमल के इंतजार में बूढ़े होते जाते हैं, किसी सफल लोकतंत्र में नौकरी की तलाश में बूढ़े होते युवाओं की तरह। हम आइडियों से कहते हैं -'अमल में लाएंगे तुमको भी जल्दी ही'। आइडिये मेरे इस आश्वासनों पर हर बार यकीन कर लेते हैं। पूरी दुनिया आश्वासनों के भरोसे जी रही है। आशा है तो जीवन है।
मेरा मन करता है कि उपन्यास लिखा जाए। शुरू करके पांच-सात ड्राफ्ट घसीट दिए जाएं। इसके बाद फाइनल करके पोस्ट कर दें किसी ऑनलाइन साइट में। लेकिन लिखें कैसे यह पता नहीं। लोग कहते हैं अज्ञानता वरदान है। लेकिन इस मामले में अज्ञानता का फल मिल नहीं रहा है। उपन्यास लिखा नहीं जा रहा है।
श्रीलाल शुक्ल जी ने एक बातचीत में कुछ ऐसा कहा था कि हर लेखक के साथ एक “लेखन संगिनी” होनी चाहिए। लेखन के लिए न्यूनतम सुविधा की तरह चाहत थी उनकी।तमाम लोग जिनका लेखन ठहर गया है, यह टोटका आजमा कर देखें।
हमारे पास तो मूल कमी समय और अनुभवों की है। समय तो खैर किसी के पास होता नहीं, निकालना पड़ता है। अनुभव के लिए मेहनत करनी होती है। अनुभव के लिए दुनिया से जुड़ना पड़ता है। पढ़ना, घूमना, मिलना, जुलना, साझा करना , सोचना, विचारना यह सब अनुभव हासिल करने के जरिये हो सकते हैं।
लेकिन खाली अनुभव से ही क्या होगा। अनुभव को पका कर अच्छे से पेश करना ही तो हुनर है लेखन का। वो कहां से आएगा। वो नन्दन जी कहते हैं न :
मैं कोई तो बात कह लूं कभी करीने से,
खुदारा मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे।
पता नहीं हुनर कब आएगा। क्या पता कभी आएगा भी कि नहीं। लेकिन जब आएगा तब आएगा । जब आएगा तब करीने से कह लेंगे। अभी बेकरीने से कहने से कोई रोकता थोड़ी है। करीने से कहने के इंतजार में रहेंगे तो कह ही नहीं पाएंगे। अभी तो भवानी प्रसाद मिश्र जी की बात का सहारा लेते है:
जिस तरह हम बोलते हैं
उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी
हमसे बड़ा तू दिख।
पता नहीं भवानी जी कैसे सोचते थे। जैसे भी सोचते होंगे लेकिन उनसे बड़ा दिखने की तो अपन सोच भी नहीं सकते।
कहां से चले और कहां पहुंच गए। बेवकूफी कुछ इससे अलग होती है क्या ?
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