कल फैक्ट्री से विदा हुए। विदा होने की तारीख तय होते ही घूमने का प्लान बना लिया। बहुत तगड़ी 'घुमास' लगी थी। निकलने का मूड तो कल ही था। लेकिन घर वालों के कहने पर एक दिन रुक गए। आज निकल लिए।
ये हमारा निकलने का अंदाज ऐसा जैसे किसी कांजीहाउस की दीवार टूटते ही उसके अंदर बंधे जानवर अदबदाकर निकल भागें। प्रेमचन्द्र जी कहानी 'दो बैलों की कथा' के हीरा मोती याद आ गए। हीरा मोती कांजी हाउस की दीवार अपने सींगों से तोड़ देते हैं। गधों को छोड़कर सब जानवर भाग लेते हैं। गधे इस डर से नहीं भागते कि कहीं फिर पकड़ लिए गए तो क्या होगा?
कहानी फिर से पढ़कर लगा कि गधे कितने समझदार होते हैं। कितनी दूर की सोचते हैं।
निकल तो लिए लेकिन जाएं कहां? तय करना मुश्किल। लेकिन जब निकल लिए तो रास्ते अपने आप मिलते हैं। फिलहाल दिल्ली और उसके आगे के पत्ते दिल्ली में खोले जाएंगे।
स्टेशन के बाहर ही आसमान की तरफ देखा। बदली के बीच चांद खिला हुआ था। खिला नहीं , छुपा हुआ था। रात हो गयी थी। चांद अकेला था इतने बादलों के बीच। कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गयी तो बेचारा एफ आई आर भी न लिखा पायेगा। इसी लिए राहत साहब कहते थे:
'चांद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है।'
चांद को असल में अँधेरे से डर नहीं लगता होगा। उसके पास रोशनी है, भले ही उधार की, फिर अंधेरे से क्या डरना।
स्टेशन पर आए। प्लेटफार्म पर लोग अपनी-अपनी ट्रेनों के इंतजार में हैं। जम्मू-तवी आने वाली है।
जम्मूतवी आने के पहले ही एक मालगाड़ी धड़धड़ाती हुई प्लेटफार्म पर आ गयी। जुगलबंदी के लिए दूसरी पटरी पर भी आ गयी मालगाड़ी। हल्ले-गुल्ले की जुगलबंदी हो रही है स्टेशन पर।
रेलगाड़ी के पहिये से रगड़ खाकर पटरी चकमक पत्थर की तरह चमक रही है।
एक बुजुर्ग अपने नाती को कंधे पर लिए खिला रहे हैं। बच्चा रो रहा है। बुजुर्ग बच्चे को बहलाने की कोशिश में लगे हैं। बहलाने के प्रयास में ऐसी बोली बोल रहे हैं जैसे बकरी के झुंड को ले जाता हुआ कोई गड़रिया बोलता है। बच्चा मान नहीं रहा है। रोये जा रहा है।
इस बीच एक सवारी गाड़ी धड़धड़ाती हुई आ गयी। बच्चा उसकी आवाज से चौंक कर गाड़ी देखने लगता है। रोना भूल जाता है। गाड़ी की आवाज उसका ध्यान बंटाती है। अपना काम ,रोना, भूल जाता है। ऐसे ही हम भी तमाम भुलभलइयों के चक्कर मे अपना मुख्य काम भूल जाते हैं।
ट्रेन से सवारियां उतरती-चढ़ती हैं। हमको आलोक धन्वा की कविता याद आती है:
हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो उसके मां के घर की ओर जाती है
धुंआ उड़ाती हुई, सीटी बजाती हुई।
कविता जब लिखी गई होगी तब भाप के इंजन चलते होंगे। अब बिजली के इंजन चलते हैं। उनमें धुंआ नहीं उड़ता। कविता की एक पंक्ति का आधा हिस्सा बदल गया। धुंआ उड़ाती की जगह कुछ और होना चाहिए क्या? 'बिजली खपाती हुई' कैसा रहेगा? लेकिन यह तो कविता के साथ खिलवाड़ होगा। हमें नहीं करना। हम कोई पाठ्यक्रम निर्धारण समिति के लोगों की तरह थोड़ी काम करना है।
एक बुजुर्ग महिला पटरी पार करके प्लेटफार्म के चबूतरे पर चढ़ती है। हांफते हुए मेरे पास खड़ी होकर कुछ पूंछना शुरू करती है। उसके पूंछने से पहले ही हमको लगता है -'कुछ मांगेगी।' लेकिन महिला ऐसा नहीं करती। वह थोड़ा ठहरकर पूंछती है-'भैया दिल्ली जाने वाली गाड़ी किधर आएगी?' हम बताते हुए सोचते जाते हैं कि हम लोग चेहरे-मोहरे और उम्र-कपड़े से कितनी जल्दी दूसरों के बारे में धारणा बना लेते हैं।
हम ज्यादा कुछ सोचें तब तक जम्मूतवी स्टेशन पर आ लगी। दो यात्रियों की बनियाइनो पर लिखा है -‘बोल बम’।पता चला अमरनाथ यात्रा पर निकले हैं। जम्मूतवी से आगे बस से जाएंगे। उन्नाव से आये हैं। 148 लोगों का दल है। अलग-अलग डब्बों में है यात्री।
सिद्धार्थ मिश्रा नाम है यात्री का। अंगड़ाई लेकर बदन तोड़ते हुए प्लेटफार्म पर उतर कर बतियाते हैं। हमने पूछा -'अमरनाथ में दो दिन पहले बादल फटा। कई लोग नहीं रहे।'
मिश्रा जी बोले-' मौत तो कहीं भी आ सकती है। यहां खड़े-खड़े आ सकती है।'
जम्मूतवी के बाद हमारी ट्रेन का नम्बर है। ट्रेन आने के पहले चांद को फिर देखा। चांद मुस्करा रहा था। दो तारों के बीच। किसी ने बताया आज चांद धरती के सबसे पास है। सुपर मून। तभी मुस्करा रहा है। धरती की नजदीकी से खुश है।
ट्रेन आने के पहले कानपुर से Pankaj Chaturvedi जी का फोन आता है।'सो तो नहीं रहे' पूछने के बाद कानपुर आने की खुशी जाहिर करते हैं। कानपुर मिलना तय होता है।
ट्रेन आती है। डब्बा पीछे है। लेकिन सीटी बजने के पहले पहुंच जाते हैं डब्बे में। सीट पर पहुँचते ही ऊपर वाले का चार्जर नीचे गिरता है। धड़ाम से। किसी को चोट नहीं लगती। सब कुनमुनाकर सो जाते हैं। जिस महिला के ऊपर चार्जर गिरते हुए बचा वह आँख मूंदे-मूंदे स्टेशन पूछती है। शाहजहाँपुर सुनकर वापस सो जाती है।
अपन ट्राली नीचे सरकाकर टीटी का इंतजार करते हैं। ट्रेन नम्बर अच्छे से देखकर बैठने के बावजूद टीटी से पूछते हैं कि यह सही है ट्रेन है। टीटी के कन्फर्म करने के बाद मुझे लगता है -'कितना भला आदमी है। जिस ट्रेन में हमें बैठना है वही नम्बर बता रहा है।'
कम्बल पूछते हैं बालक से। पता चला हमारे ऊपर की सवारी अपने सर के नीचे तकिया की तरह दबाए लेती है। बालक उसको उनके सर के नीचे से निकाल कर हमें थमा देता है। हम उसको रख कर बैठ जाते हैं।
ट्रेन चल दी है। बाहर आसमान में चांद बदस्तूर खिला हुआ है। पटरी पर कहीं-कहीं चांदनी टहलती दिख रही है। चांद और चांदनी आपस में न जाने क्या गुल खिला रहे हैं, कुछ समझ नहीं आ रहा है। लेकिन क्या जरूरत समझने की। उनका आपस का मामला है। कोई खबर होगी तो अखबार में आएगी ही। है कि नहीं?
लेकिन एक बात तो पक्की है कि -चांद पक्का पागल है।
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