कल सुबह टहलने निकले। धूप खिली हुई थी। बहुत ख़ूबसूरत धूप। हर तरफ़ इफ़रात में पसरी। एकदम विश्वसुंदरी सरीखी। अभी यहाँ क्या हर जगह धूप मुफ़्त है। कल को पता नहीं कि धूप भुगतान पर मिलने लगे। वैसे घुमा के बिकती तो है ही। जिन इलाक़ों में हवा और धूप का गठबंधन अच्छा होता है वहाँ मकान मंहगे हो जाते हैं।
हमने बात करने की कोशिश की। उसका उसको अंग्रेज़ी आती नहीं थी। बताया -‘स्पेनिश।’ उसको स्पेनिश ही आती थी। हमारा हाथ क्या पूरा जामा स्पेनिश में तंग था। बात इशारों में होने लगी। दोनों को एक-दूसरे के इशारे समझ नहीं आ रहे थे लेकिन बातचीत चलती रही- ‘लगातार लड़ते-भिड़ते रहने वाले पड़ोसी देशों की शांति वार्ताओं सरीखी।’ आख़िर में हमने इशारे से कहा उसको घास काटने के लिए कहा और उसका वीडियो बनाने का इशारा किया। शायद इस बात को वह समझ गया और मशीन स्टार्ट करने लगा।
कंधे में रखी मशीन को उसने जनरेटर की तरह स्टार्ट किया। तीन-चार बार डोरी खींचने पर मशीन घर्र-घर्र करके स्टार्ट हो गयी। वह फुटपाथ के किनारे लगी घास को मशीन को बराबर करने लगा। ज़रा सी देर में ही उसने क़रीब सौ मीटर घास बराबर कर दी। उसके वीडियो दिखाया तो खुश हो गया। थम्पस अप वाले अन्दाज़ में अंगूठा दिखाया और अपना काम करने लगा। हम आगे बढ़ गए।
जितने बड़े हिस्से की घास वह आदमी अकेले बराबर कर रहा था उतने के लिए अपने यहाँ कई लोग लगते हैं। हाथ से लोहे की पत्ती की तलवार इधर-उधर करके घास काटते रहते हैं। थोड़ी देर में थक जाते हैं। बैठ जाते हैं। मेहनत के काम में थकान स्वाभाविक बात है। कई जगह हाथ की जगह बिजली या पेट्रोल से चलने वाले उपकरण ख़रीदे भी जाते हैं लेकिन कुछ समय बाद कबाड़ में शामिल हो जाते हैं। मज़दूर सस्ते में उपलब्ध हैं तो तेल का पैसा कौन खर्च करे।
एक बुजुर्ग महिला अपने छुटकू से कुत्ते को लेकर जाती दिखी। बग़ल से गुजरते हुए गुडमार्निंग हुआ। बात करने की गरज से हमने कहा -‘बहुत प्यारा कुत्ता है। क्या उमर है इसकी?’
उन्होंने बताया -‘अठारह महीने।’
हमने पूछा -‘क्या इसे ट्रेन करने निकली हैं?’
वो बोली -‘काश मैं ऐसा कर सकती। इसको ट्रेनिंग देने के लिए ट्रेनिंग सेंटर भेजना पड़ेगा।’
इस संक्षिप्त बातचीत के बाद वह जाने लगीं। हमने पूछा -‘आपका फ़ोटो ले लें?’
उन्होंने कहा -‘ले लो। कोई समस्या नहीं।’
जब तक हम मोबाइल निकालकर कैमरा आन करते तब तक उनका इरादा बदल गया। फ़ोटो लेने की अनुमति निरस्त कर दी। बोली -‘ छोड़ दीजिए। मत लीजिए फ़ोटो।’
हमने छोड़ दिया। जाओ तुम भी क्या याद रखोगी। लेकिन कौन याद रखता है।
आगे घास पर एक सफ़ेद बगुला टाइप पक्षी तसली से घास पर टहल रहा था। ऐसे जैसे फ़ोटो शूट कर रहा हो।
सड़क और घास पर बिखरे पत्तों को साफ़ करने के लिए एक आदमी लगा हुआ था। पीठ पर मशीन और हाथ में तेल की बोतल थामे वह अपनी मशीन के मुँह से पत्तियाँ उड़ाता जा रहा था। उसको भी स्पेनिश ही आती थी। हमको एक-दूसरे का बोला कुछ समझ नहीं आया। लेकिन फ़ोटो खींचने की बात पल्ले पड़ गयी।
बाद में पता चला कि यहाँ मज़दूरी का काम करने वाले ज़्यादातर लोग मेक्सिको से आते हैं। उनमें से अधिकतर स्पेनिश ही समझ पाते हैं।
एक और कुत्ता टहलाती महिला का कुत्ता ढाई साल का निकला । उनको भी लगता है क़ि उनको कुत्ते की ट्रेनिंग की ज़रूरत है। फ़ोटो के लिए पोज देने के लिए कुछ पल रुकीं लेकिन मेरा नामुराद मोबाइल खुलने के लिए कोड माँगने लगा। जब तक कोड बताते तब तक कुत्ता ज़ंजीर खींच कर उनको आगे ले गया। वे चल दीं।
सड़क के बीच कुछ लोग लकड़ी का बुरादा टाइप डालते दिखे। यहाँ पेड़ों के चारों तरफ़ ज़्यादातर जगह लकड़ी की छीलन पड़ी देखी। इसीलिए धूल नहीं दिखती पेड़ों के पास। मेहनत करते लोग आपस में बतिया रहे थे। लगा भोजपुरी बोल रहे हैं। लगा छपरा, बलिया के होंगे। लेकिन पास पहुँचकर पता लगा कि वे कुछ और ही बोल रहे थे। उनसे पूछने की हिम्मत भी नहीं हुई। वे हमको देखते रहे। हम भी उनको काम करते देखते रहे। फिर आगे बढ़ गए।
आगे फुटपाथ पर जाने इक्का-दुक्का लोग दिखे। बगलिया के निकल गए। किसी ने हमारी तरफ़ देखकर मुस्करा दिया तो हमने भी ‘पलट-मुस्कान’ मार दी। चलते रहे आगे।
आगे एक स्कूल दिखा। फ़ोस्टर सिटी का प्राइमरी स्कूल। स्कूल के सामने अमेरिका का झंडा फहरा रहा था। चारों तरफ़ कारें खड़ीं थी। हिंदुस्तान के स्कूलों की तरह कहीं चाट वाला, चूरन वाला , भेलपूरी वाला नहीं दिखा। एकदम साफ़-सुथरा स्कूल।
स्कूल के बाहर कोई दिखा नहीं। दूर एक आदमी सफ़ाई कर रहा था। स्कूल का गेट बंद था। बग़ल में आफिस था। हम स्कूल के आफिस में डरते-डरते घुसे। वहाँ एक खूबसूरत महिला कम्यूटर के आगे बैठी कुछ काम कर रही थी।
हमने अपनी अंग्रेज़ी को यथासंभव मुलायम बनाते हुए पूछा -‘क्या मैं यह स्कूल देख सकता हूँ?’
वो बोली -‘क्या आपका बच्चा यहाँ पढ़ता है?’
हम बताए -‘नहीं। बस मैं ऐसे ही बग़ल से गुजर रहा था । मन किया स्कूल देखने का। इसलिए पूछा।’
महिला ने कहा -‘हमको अफ़सोस है लेकिन स्कूल देखने की अनुमति नहीं है किसी को।’
हमने कहा -‘इसमें अफ़सोस की क्या बात। ठीक है।’
शक्ल और बातचीत करते हुए हमको लगा महिला भारत से हैं। पूछा तो पता चला -‘ भारत में उत्तर प्रदेश (डालमिया नगर) की है। 22 साल पहले आई थी। अब यहीं है पति साफ़्टवेयर इंजीनियर हैं। बेटा हाईस्कूल में पढ़ता है। 17 साल का है।’
फिर तो खड़े-खड़े तमाम बातें हुई। दो-तीन मिनट में खूब हिंदी बोल ली दोनों ने। अंग्रेज़ी बेचारी किनारे खड़ी रही।
हमने पूछा -‘कितने दिन बाद हिंदी में बात हुई?’
वो बोली -‘बहुत दिन बाद। बहुत अच्छा लगा।’
हमने पूछा -‘बेटा हिंदी में बात कर लेता है?’
वो बोली -‘समझ लेता है। बोल नहीं पाता।’
इतनी बात दरवाज़े पर खड़े-खड़े हुई। दरवाज़ा आधा खुला किए हम बतियाते रहे। अपने यहाँ बाहर से आकर कोई इतनी बात करता तो कहते -‘आओ बैठो। चाय पीकर जाना।’
कहते क्या मंगा लिए होते और ज़बरियन बैठा लिये होते कहते हुए -‘ऐसे कैसे चले जाएँगी बिना चाय पिए। इत्ती दूर से आए हैं। चाय तो पीनी ही पड़ेगी।
लेकिन यहाँ का चलन ही अलग है। काम के आगे और कुछ नहीं देखते लोग। सबसे पहले काम। हम बाहर आ गए। आफिस का फ़ोटो खींचने से भी मना कर दिया कहते हुए - ‘स्कूल का फ़ोटो बाहर से लेना हो तो ले लो।’
बाहर निकलकर स्कूल का फ़ोटो लिया। आगे एक पार्क था। बहुत सुंदर पार्क। बच्चों के झूले। टेनिस कोर्ट। फुटबाल का मैदान। मैदान में घास। फ़ुटबाल के गोल पोस्ट के पास एक बच्चा अपने पिता के साथ कुछ देर फ़ुटबाल खेलता रहा। पैर से इधर-उधर करता रहा कुछ देर। इस बीच बच्चे की माँ भी गई। सब फोटोबाज़ी करने लगे। बच्चा फ़ुटबाल को पैर के नीचे रखकर खड़ा हो गया जैसे पुराने जमाने राजा-महाराजा शेर का शिकार करके उसकी गर्दन पर पैर रखकर फ़ोटो खिंचाते थे। फ़ोटो खिंचाकर वो लोग कार में बैठकर चले गए।
मैदान में एक बुजुर्ग अपने नाती/पोते के साथ खेल रहा था। बच्चा ठुनकते हुए इधर-उधर टहल रहा था। बुजुर्ग उसके पीछे-पीछे लुढ़कते हुए चल रहे थे। बग़ल में तमाम सफ़ेद बतख़ अपने बच्चों के साथ फुदकती हुई टहल रहीं थी।
कुछ देर पार्क में टहलने के बाद हम बाहर आ गए। आगे फुटपाथ पर एक महिला अपने बच्चे को आगे गोद में एक बैग में कंगारू की तरह लटकाए साथ में कुत्ते की ज़ंजीर थामे टहल रही थी। वो बच्चे और कुत्ते दोनों को पुचकारते हुए धूप में टहलते हुए जा रही थी।
आगे एक जगह मनोरंजन केंद्र दिखा। हम घुस गए उसमें। कई तरह की गतिविधियों की सूचनाएँ लगी थी वहाँ। फ़ोटो प्रदर्शनी, मिट्टी की कलाकारी और भी न जाने क्या-क्या।
एक बड़े हालनुमा कमरे में तमाम लोग मिट्टी का काम कर रहे थे। एक बुज़ुर्गवार एक बाल्टी में बने रखे रंग में ब्रश डुबाकर एक मिट्टी का पात्र रंग रहे थे। एक लड़की अपने बर्तन एक बड़े बर्तन में रखे मोम में रख रही थी। गरम करने की व्यवस्था भी थी उसे। पता चला वैक्सिंग कर रही है बर्तन की। हमने बुजुर्ग से पूछकर फ़ोटो खींची। देखकर बोले -‘ बहुत अच्छी नहीं आई।’ हमने फिर ली। दिखाई। मुस्कराए। अपने काम में जुट गए।
आगे हाल में कुछ लोग अलग-अलग डिज़ाइन के मिट्टी के बर्तन और आकृतियाँ बना रहे थे। एक मशीन से मिट्टी की मोटी सेवईं सरीखी निकाली। ब्रश से उसको आकृति बनाने लगी।
एक महिला स्टील की चाक पर कुल्हड़ जैसा बर्तन बना रही थी। उसकी फ़ोटो और वीडियो बनाया तो बग़ल की महिला जो दिखने में जापानी लग रही थी, बोली -‘ये इंडिया की मैगजीन में छपेगा तुम्हारा फ़ोटो।’ उसके इतना कहने के बाद सब खिलखिलाकर हंसने लगे।
बाद में पता चला चला कि ये सभी यहाँ मिट्टी का काम सीखने आते हैं। हाबी के रूप में। हफ़्ते में एक दिन सिखाने के एक सत्र के अलग-अलग कोर्स के हिसाब से फ़ीस पड़ती है।100 से 300 डालर तक।
उन लोगों को मिट्टी का काम सीखते देखकर लगा कि नया काम शौक़िया सीखने का कितना चलन है यहाँ। हर उमर के लोग थे वहाँ। नई उमर से वरिष्ठ नागरिक की उमर के लोग। पूरे मन से सीखते हुए लोग। अपने यहाँ इस तरह नयी चीजें सीखने का चलन कम है। नई चीजें सीखने की ललक इंसान को चैतन्य और युवा बनाए रखती है। यह जानते हुए भी हम लोग कहाँ कुछ नया सीखते हैं। तमाम चीजें सीखने की लिस्ट बनाते रहते हैं लेकिन अमल में कम ला पाते हैं!
अमेरिका आए थे तो सोचा था कि यहाँ एक महीने में उर्दू के अक्षर लिखना सीख लेंगे लेकिन अभी तक एक-दो बार ही अभ्यास कर पाए।
मनोरंजन केंद्र में थोड़ी देर टहलने के बाद हम बाहर निकलकर टहलते हुए वापस आ गए। धूप अभी भी खिली हुई थी। चमकदार धूप। एक चमकीली सुबह थी यह।
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