Friday, March 31, 2023

गरीबी के मारे बुरा हाल है



कल रामनवमी थी। सुबह-सुबह दौड़ा दिए गए जलेबी लेने। छुट्टी के दिन सुबह ज्ल्दी उठने का मन कम करता है। लेकिन मन की बात करने का हक हरेक को
थोड़ी होता है।
पंडित होटल गए। सोचा था जलेबियां निकल रहीं होंगी। लोग लाइन लगाए खड़े होंगे जलेबी के इंतजार में। लेकिन वहाँ बन्द दुकान के बाहर मोबाइल पढ़ता चौकीदार दिखा। आजकल अखबार नहीं पढ़े जाते। मोबाइल पढ़ने का ही चलन है। चौकीदार ने बताया -' 9 बजे खुलेगी दुकान।'
गाड़ी घुमाकर बिरहाना रोड आये। सब मिठाई की दुकाने बन्द दिखीं। तिवारी स्वीट्स, बनारसी मिष्ठान, आर एम बी सबका शटर डाउन। याद आया आगे एक और प्रसिद्द दुकान है। नाम याद नहीं आया। आहिस्ते-आहिस्ते गाड़ी चलाते हुए बढ़े। लेकिन न दुकान दिखी न उसका नाम याद आया। काफी आगे बढ़कर फिर लौट लिए। लौटते में दुकान दिखी -बुधसेन मिष्ठान भंडार। दुकान दिखने के साथ ही नाम भी याद आ गया।
दुकान की तरह लोगों के नाम के साथ भी ऐसा ही होता है। किसी खास समय में कितना भी नाम हो जाये , समय के साथ सब धुंधला जाता है।
लौटते में एक मंदिर के बाहर पूजा करने वालों की भीड़ दिखे। लोग पूजा कर रहे थे। बाहर प्रसाद, फूल-माला, पूजा सामग्री वालों के साथ बड़ी संख्या में मांगने वाले भी मौजूद थे। सब अपने-अपने काम में मशगूल।
लौटकर पंडित होटल के सामने गाड़ी खड़ी कर दी। दुकान के सामने एक रिक्शा वाला अंगड़ाई ले रहा था। हमको देखकर उसने अंगड़ाई लेना स्थगित कर दिया। सावधान मुद्रा में खड़ा हो गया। हमने पूछा -'ये दुकान कित्ते बजे खुलती है?'
वो बोला -'हमका नाय पता। हम हियां नाई रहत हन।'
कोई पुलिसिया जवान होता तो हड़का देता -'यहां नहीं रहता तो फिर यहाँ खड़ा क्यों है?' हम उससे बतियाने लगे। बात की शुरुआत घर कहां है से हुई।
बताया -'हरदोई के रहने वाले हैं। प्रकाश नाम है।'
हरदोई कोई बताता है तो अगला जुमला हमेशा होता है -'हरदोई नहीं हददोई।' हरदोई को हददोई कहने का चलन है। र नहीं बोला जाता। लिखने और औपचारिक बातचीत में भले हरदोई कहा जाए। लेकिन हमने यह जुमला नहीं बोला। बातचीत करते रहे।
प्रकाश के हाथ में कुष्ठ रोग के निशान थे। उंगलियां गली हुई। एक उंगली छिली हुई। बोले -'गिर गए थे हाथ के बल। चोट लग गयी। उसी का घाव बाकी है।'
हरदोई में परिवार है। तीन बच्चे। पत्नी । वहीं रहते हैं। गांव में। जमीन थी वो बिक गई। पुरनिया लोगन बेंच डारिन। घर बचा है गांव में। वहीं रहते हैं बच्चे। महीना, पन्द्रह दिन में आते-जाते रहते हैं।
कानपुर में किराए पर रहते हैं प्रकाश। पडउवा में। शुक्लागंज की तरफ जाने वाले पुल के पास।
घर पास ही है फिर भी यहां रिक्शे पर ही सो गए। शायद नींद आ गयी हो। कमरे और रिक्शे पर सोना बराबर लगा हो। नींद कहीं भी आ जाती है।
रिक्शा रोज पचास रुपए किराए पर है। रिक्शा वाले मालिक के पास सैकड़ों रिक्शे हैं। रिक्शा चलाने के पहले मजदूरी करते थे प्रकाश। मजदूरी और रिक्शे में क्या बढिया लगता है पूछने पर प्रकाश ने बताया -'रिक्शा ठीक है। यहिमा पैसा रोज मिल जात है।' यह भी कि रोज लगभग 300-400 रुपये कमा लेते हैं।
उम्र पूछने पर बोले -'यही कोई 35-40 होई।' हमने कहा -'ठीक उम्र नहीं पता?' तो बोले -'पता है। 40 के हन।' 40 की जगह वो पचास, साठ सत्तर भी कहते तो ताज्जुब नहीं लगता। बल्कि तब ज्यादा सटीक लगती उम्र।
40 के प्रकाश के लगभग सब दाँत गायब थे। बताया कि मुंह के बल गिर गए थे रिक्शे पर तो सब टूट गए। हमने कहा -' बनवा लेव। खाना खाने में परेशानी होती होगी।'
इस पर बोले -'परेशानी तो होती है लेकिन पैसा कहां हैं दांत बनवाने के खातिर।'
गरीबी के मारे बुरा हाल है। हमने यह कहा तो बोले -'हां, गरीबी है तो बहुत।' गरीबी के बारे में बात मौसम की तरह हो रही थी।
बात गांव की होने लगी तो बताया -'वोट देने भी जाते हैं। प्रधानी के वोट , चुनाव के समय वोट।'
वोट की बात चली तो प्रकाश ने बताया कि प्रधानी के चुनाव में पैसा भी चलता है। लोग हर घर के पीछे पांच-पांच हजार रुपया तक देते हैं। जो हार जाते हैं वो भी पैसा देते हैं। हजार-दो हजार। सब उम्मीदवार पैसा देते हैं। चुनाव आम लोगों के लिए त्योहार की तरह आता है। पैसे वाले वोट खरीदते हैं। चुने जाते हैं। वोट के लिए पैसा चाहिये। पैसे से वोट , वोट से पैसा।
लोकतंत्र मेँ जनप्रतिनिधियो के पैसा लेकर पाला और पार्टी बदल लेने की बात कही जाती है। जनप्रतिनिधि अपना खर्च किया हुआ पैसा निकालने के लिये बेताब रहते होंगे। जनता के सेवा के लिये क्या-क्या नहीँ करते हैं लोग।
'हारा हुआ उम्मीदवार पूछता होगा कि पैसा लेने के बाद भी हमको वोट नहीं दिये'-हमने पूछा।
'अरे कोई पीछे थोडी लगा रहता है वोट देते समय। जेहिका मन आवै वहिका वोट देव' -प्रकाश ने बताया।
वोट का गणित बताकर प्रकाश इधर-उधर देखने लगे। हमने उनकी फोटो खींची तो गम्भीर हो गये। सहज बातचीत करता इंसान फोटो मेँ इतना अलग। दुबारा भी वैसा ही। हमने कहा -'थोडा मुस्कराओ।' इस पर वो चुप हो गये। हम भी चुप हो गये। सामने से लोग मंदिर से पूजा करके वापस आ रहे थे। दुकान भी खुल गयी थी। हम दुकान केअंदर दाखिल हो गये।
दुकान के अंदर दो लोग जमीन पर सोये हुये थे। शटर खुलने पर जमीन पर लेटे आदमी ने अंगडाई लेते हुये उठने का उपक्रम किय। हमको बैठने को कह। बगल मेँ रखी चुनौटी से तम्बाकू और चूना निकाला और रगडने लगा। कुछ देर रगडने के बाद बिस्तर सम्भालकर ऊपर चले गये। इस बीच हुई बातचीत से पता चला कि वो बिहार के गया जिला के रहने वाले हैं।
काम की तलाश में बिहार का आदमी कानपुर आकर काम करता है। कानपुर का आदमी कही और काम करता है। आदमी का पेट पूरी दुनिया में विस्थापन का कारण है।
कुछ देर में जलेबी बन गई। हम जलेबी लेकर घर चले आये।
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