अक्सर मित्र लोग अपनी पोस्ट की रीच कम हो जाने की बात करते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया को कोसते हैं। चिंता व्यक्त करते हैं कि पाठक कम हो गए, टिप्पणी नहीं आती, लाइक नहीं मिल रहे।
जहां तक रीच कम होने की बात है तो हमको लगता है कि सोशल मीडिया इसका प्रयोग करने वालों के लिए सोशल है। इसको चलाने वालों के लिए यह कमाई का साधन है। कमाई बढाने के लिए तरह-तरह के जुगाड़ अपनाता है मीडिया। उसको इस बात से मतलब नहीं कि आपकी पोस्ट कितनी अच्छी है, कितनी समाजोपयोगी है। जिस भी तरह की पोस्टों से देखने वाले बढ़ेंगे उनको बढ़ावा देगा।
फेसबुक पर ही पहले मित्रों की तमाम पोस्टें एक के बाद एक दिखती थीं। अब उनकी जगह स्पॉन्सर्ड पोस्ट, विज्ञापन दिखते हैं। सजेस्टेड पोस्ट दिखती हैं। स्पॉन्सर्ड पोस्ट और विज्ञापन से पैसा मिलता है। सजेस्टेड पोस्ट खाता धारक की रुचि पर आधारित होती हैं।
फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया के हाल अब अखबार सरीखे हो गए हैं जिनमें कभी पहले पेज की शुरुआत प्रमुख खबरों से होती थी। उनकी जगह अब पहले, दूसरे, तीसरे पेज तक भी खबरों की हिम्मत नहीं होती जो छप जाएं। पूरे-पूरे पेज विज्ञापनों से भरे हैं। हर जगह बाजार का हल्ला है, समाचार चुपचाप कहीं अंदर छिपा है। बाजार ही आजकल प्रमुख समाचार है।
तो मुझे तो यही लगता है कि हमारी पोस्ट कम पढ़ी जा रही है तो इसका कारण पैसा कमाऊ पोस्टों का हमसे पहले पेश किया जाना है। यही सोशल मीडिया संचालकों के लिए फायदे का आधार है।
कुछ मित्रों का मानना है कि पोस्ट्स को मित्रों को टैग करना इससे मुकाबले का उपाय है। सही है। सौ-पचास मित्रों को टैग करेंगे तो वो हमारी पोस्ट फौरन देख लेंगे। शर्मा-शर्मी टिपिया भी देंगे। लेकिन वह सब मुंह देखी बात होगी।
अपनी हर पोस्ट को टैग करके पढ़वाने की कोशिश ऐसी ही लगती है मुझे मानो किसी ट्रेन को पकड़ने के लिए लपकते इंसान का कुर्ता घसीटकर हम कहें -'ये कविता अभी-कभी लिखे हैं। जरा सुनकर तारीफ तो करिए जरा। ट्रेन फिर पकड़ लीजिएगा।'
मुझे लगता है कि अगर लोग हमारी लिखाई पसंद करते हैं तो वो देर-सबेर पढ़ेंगे ही। अपने दोस्तों को टैग करना मतलब उनका ध्यान जबरियन अपनी तरफ खींचना। यह जबर्दस्ती का मसला कवि सम्मलेन/मुशायरों में कवियों/शायरों की उस अदा की तरह है जिसमें लोग जबरियन श्रोताओं से तवज्जो चाहते हैं, ताली लूटते हैं।
हम अपने जिन मित्रों का लिखा पढ़ना पसंद करते हैं उनको खोज कर पढ़ते हैं। छूट जाता है तो बाद में पढ़ते हैं। कुछ बहुत अच्छा पढ़ने में देर होती है तो अफसोस भी करते हैं कि देर हो गई पढ़ने में।
टिप्पणी/लाइक कम होने का कारण यह भी है कि आजकल नेट पर चमक-दमक और उलझावों का सैलाब आया है। यह दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। रील है, स्टोरी है, फ़ारवर्डेड सन्देश हैं, गुडमार्निंग है, सुप्रभात है। नित नए बनते ग्रुप हैं। आप अच्छे भले बैठे हैं, पता लगा आपको किसी ग्रुप में शामिल कर लिया गया। आप देओ हाज़िरी दिन रात।
लोगों के पास समय की कमी बहुत बड़ा कारण है टिप्पणी, लाइक कम होने का। अपन दिन भर ऑनलाइन भले रहते हों लेकिन लिखने-पढ़ने के लिए हद से हद घण्टे-दो घण्टे मिल पाते हैं। इतने में कुछ ही मित्रों का लिखा पढ़ पाते हैं। बहुत कम पर टिप्पणी कर पाते हैं। टिप्पणी के जबाब तो और भी कम , देना चाहते हुए हुए भी , बहुत कम दे पाते हैं। लाइक अलबत्ता जरूर कर देते हैं दिल वाले निशान के साथ। लाइक।किया मतलब पढ़ लिया।
कहने का मतलब यह कि अपन ऐसा सोचते हैं कि यह मुफ्त की सुविधा है। यह सुविधा कैसी मिलेगी, कितनी मिलेगी यह देने वाले की मर्जी और फायदे से तय होगी। एक बहुत बड़े बाजार में मुफ्त की ठेलिया लगाने का मौका मिलने जैसी बात है(फिलहाल यही सूझ रहा) यह अभिव्यक्ति की सुविधा। इससे यह आशा रखना कि यह हमें मुफ्त में प्रोत्साहित करेगा, खाम ख्याली होगी।
इसलिए मेरा तो यही मानना है कि लिखते-पढ़ते रहें। पढ़ने लायक लिखेंगे तो पाठक जरूर आएंगे। पढ़ेंगे भी देर सबेर।
बहुत ज्यादा तारीफ और लाइक मिलने से यह गलतफहमी भी हो सकती है कि अपन बहुत अच्छे लेखक हैं। इस गलतफहमी बचना बहुत जरूरी है।
यह हमने अपने समझाने के लिए लिखा। हो सकता है आप इससे अलग सोचते हों।
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