पांडिचेरी में रहने का ठिकाने का जुगाड़ हो गया तो तसल्ली हुई । समुद्र की तरफ वाले कमरे के यहाँ एक हजार रुपये अतिरिक्त लगे थे। हमें लगा कि जो लोग समुद्र के किनारे रहते हैं वो साल भर में तीन लाख पैसठ हजार तो बचा ही लेते हैं।
अपने रहने के इंतजाम के बाद ड्राइवर के लिए जुगाड़ किया गया। होटल में कोई इंतजाम नहीं था। पास ही गाडी रखने और रुकने का इंतजाम बताया ड्राइवर ने। अगले दिन मिलने की कहकर चला गया ड्राइवर।
बालकनी से समुद्र साफ़, एक दम नजदीक दिखता था। लोग किनारे की बेंचो, पत्थरों पर बैठे समुद्र की लहरों को उठते-गिरते , किनारे तक आते , किनारे से टकरा कर लौट जाते देख रहे थे। हमने भी देखा। हमको लगा समुद्र की लहरें उत्साह और उमंग से किनारे की तरफ आती हैं । ऐसे लगता है मानों लहरें किनारे से गहन आलिंगन के लिए व्याकुल होकर भागती चली आ रहीं हैं। लौटते समय वह उत्साह नहीं दिखा लहरों में। ऐसे लौटती दिखीं मानो बेमन से वापस जा रही हों। मिलन और विछोह का अंतर दिखा लहरों के आने -जाने में।
कुछ देर आराम करने के बाद खाना खाने निकले। पास ही स्थित उडुपी होटल बंद हो चुका था। थोड़ा और आगे एक रेस्टोरेंट , जिसका नाम होटल वाली बालिका ने बताया था, खुला था। पहली मंजिल पर मौजूद भोजनालय में लंचार्थियो की भीड़ थी । एक किनारे की मेज पर जगह मिली। बैठकर आर्डर दिया। बालक मोबाइल में आर्डर नोट करके चला गया। जबतक वह वापिस आया , हम अगल-बगल के और सामने मनचले समुद्र के नज़ारे देखते रहे।
आसपास अधिकतर लोग अपने मोबाइल में डूबते-तैरते-उतराते दिखे। बगल वाली टेबल वालों के साथ छोटे बच्चे थे। उन्होंने आते ही मोबाइल में वीडियो लगाकर बच्चे को थमा दिया। बच्चे मोबाइल में और वो लोग अपने में मशगूल हो गए। आने-वाले समय में मोबाइल दादी-नानी की भूमिका निभायेंगे।
खाना खाकर होटल लौटे। कुछ देर आराम फर्माने के बाद घुमने निकले। अधिकतर घूमने की जगहें, जिनका जिक्र इधर-उधर दिखा, आसपास ही , एक-दो किलोमीटर के दायरे में थीं। पैदल ही निकले। समुद्र की लहरों और आते-जाते लोगों को देखते हुए।
सड़कें लोगों, गाडियों और सड़क किनारे ठेलियों से भरी-पूरी थीं। दोनों किनारे गाड़ियों , सामान के ठेलों की लाइन। दूर-दूर तक ऐसा कोई हिस्सा नहीं दिखा सड़क का जिसके दोनों किनारों पर गाड़ियां , ठेले न खड़ी हों। सड़क के बीच में थोड़ी जगह गाड़ियों और लोगों के आने-जाने के लिए भी छोडी गयी थी। इतनी भीड़ के बावजूद कहीं कोई अफरा-तफरी, हल्ला-गुल्ला या हडबडी नहीं दिखी। लगता है सब यहाँ शान्ति के साथ ही आये हैं।
सबसे पहले अरविन्द आश्रम देखने की बात तय हुई। रास्ते में मिलने वाले भारती पार्क , म्यूजियम, रोम्या रैला लाइब्रेरी, आर्ट गैलरी से कहते गए –‘आते अभी लौटकर, कहीं जाना नहीं, इन्तजार करना।‘
अरविन्द आश्रम में अन्दर जाने के पहले जूते-चप्पल बाहर ही उतारने थे। आश्रम के सामने फुटपाथ पर मुफ्त जूते-चप्पल रखने की व्यवस्था थी। एक बुजुर्ग महिला निर्लिप्त जिम्मेदारी वाले भाव से लोगों के जूते रैक में रखकर टोकन देती । लौटने पर टोकन के हिसाब से जूते-चप्पल वापस लौटा देती।
कहीं कोई साम्य नहीं लेकिन वहां जूते-चप्पल रखने की व्यवस्था देखकर मुझे शरीर-आत्मा-यमदूत के सुने किस्से याद आये। क्या पता यमदूत इसी शरीर को आत्मा से अलग करते हुए आत्मा को एक टोकन थमाते हों। अगले जन्म में आत्मा अपने टोकन के हिसाब से शरीर धारण करके नया जीवन शुरु करती हो।
अन्दर आश्रम में फोटो लेना मना था। घुसते समय सबके मोबाइल बंद करा दिए गए। अन्दर लोग अरविंद जी और माँ मीरा की समाधि पास शान्ति से बैठे थे। समाधि पर ताजे फूल सजे हुए थे। कुछ देर वहां बैठने के बाद हम लोग बाहर आ गए।
बाहर आकर हमने अपने जूते -चप्पल वापस लिए और लौट लिए। रास्ते में अरविंदो आश्रम पोस्ट आफिस दिखा । पोस्ट ऑफिस के बाहर सूचना लिखी थी -'यह डाकघर महिला डाक कर्मचारियों द्वारा संचालित है।'
शाम होने के कारण डाकघर बंद हो चुका था। बाहर एक लड़की मोबाइल पर कुछ देख रही थी। वहीं चौराहे के नुक्कड़ पर एक महिला नारियल पानी बेंच रही थी। मन किया नारियल पानी पिया जाए। लेकिन फिर बिना पिये आगे बढ़ गए।
आगे म्यूजियम , लाइब्रेरी और आर्ट गैलरी देखी। म्यूजियम में मूर्तियाँ , सिक्के, कलाकृतियाँ , फर्नीचर, पुराने जमाने के वाहन और तमाम चीजें रखीं थीं। बाहर रखी मूर्तियों के साथ लोग फोटो खिंचा रहे थे। म्यूजियम का टिकट दस रुपये था।
म्यूजियम से बाहर बगल आर्ट गैलरी में कुछ पेंटिंग्स लगी थी। पेंटर के फोटो बाहर लगे थे। अंदर घुसकर पेंटिंग्स देखते हुए एक का फोटो भी ले लिए। गेट पर बैठे आदमी ने टोंका -'डोंट टेक फोटो।' हम थम गये। पेंटिंग्स बिक्री के लिए भी उपलब्ध थीं। हमने दाम नहीं पूछे। देखकर ही लौट आये।
बगल की रोम्यां रैला लाइब्रेरी में लोग लम्बी मेज के दोनों तरफ बैठे अखबार पढ़ रहे थे। ज्यादातर अखबार तमिल के थे। हमने वहां बैठकर फोटो खिंचाया।हमको फोटो खिंचाते देखकर सामने वाले ने हमारी तरफ अंग्रेजी का अखबार सरका दिया। उसको पता लग गया होगा कि अपन तमिल नहीं जानते।
किताबों की तरफ वाले सेक्शन ने नीचे तमिल की ही किताबें थीं। ऊपर गए तो अंग्रेजी और हिंदी के अलावा और भाषाओं की किताबें भी दिखीं। हिंदी की ढेर सारी किताबें थीं। एक किताब नामवर सिंह जी से बातचीत की थी। किताब पलटते हुए जो पन्ना खुला उसमें एक जबाब में नामवर जी ने बताया था कि उनके गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी जी मुक्तिबोध जी की कविता को पसंद नहीं करते थे। उस समय तय किया था कि यह किताब मंगवाएँगे।
लाइब्रेरी से वापस आते हुए वहां मौजूद लोगों से पूछा-'लाइब्रेरी कितनी पुरानी है।' सबने एक दूसरे की तरफ देखा। इधर-उधर देखते हुए एक ने दराज से एक किताबिया निकालकर हमको थमा दी। मतलब इसमें लिखा है लाइब्रेरी के बारे में। पढ़ लो।
पढ़ने पर पता चला कि पांडिचेरी में, जहां करीब तीन शताब्दियों तक फ्रांसीसियों का शासन रहा, लाइब्रेरी मूवमेंट की शुरुआत 1827 में हुई। पब्लिक लाइब्रेरी होने के बावजूद शुरुआत में इसमें केवल यूरोपीय लोगों को आने की अनुमति थी। सन 1850 में यहां किताबों की संख्या 6500 थी। आज की तारीख में करीब 334865 किताबें हैं। करीब 35000 लोग लाइब्रेरी के सदस्य हैं। साल भर में करीब 2 लाख किताबें पढ़ने के लिए इशू की जाती हैं। औसतन करीब एक हजार लोग लाइब्रेरी की सुविधा का उपयोग करते हैं।
1966 में रोम्यां रैला जी की जन्मशताब्दी के मौके पर लाइब्रेरी का नामकरण उनके नाम पर किया गया।
लाइब्रेरी से बाहर निकल कर हम वापस लौटे। शाम को सड़क और गुलजार हो गयी थी। समुद्र किनारे लोग चहलकदमी करते हुए टहल रहे थे। तमाम लोग समुद्र की लहरों को देखते हुए फोटोबाजी कर रहे थे।
अपन भी टहलते हुए एक चट्टान पर बैठ गए और समुद्र और जनसमुद्र दर्शन में जुट गए।
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