पुस्तक मेला जाना हुआ कल। नोएडा में एक मांगलिक कार्यक्रम में रहना जरूरी था। गए भी। लेकिन फिर घण्टे भर बाद क्लास बंक करने की तरह निकल लिए प्रगति मैदान।जिन दोस्तों को सुचित भी किया था उनमें से कुछ पहुँच भी गए। बाकी ने हमारे इस विश्वास की रक्षा की कि किसी न किसी कारण पहुंच न पाएंगे। कुछ ने मेसेज रात में देख पाने की बात भी बताई।
इस बार हमारी किताब भी आई थी -चयनित व्यंग्य। न्यूवर्ल्ड पब्लिकेशन से। जितनी संख्या में व्यंग्यकारों के चयनित व्यंग्य आये हैं न्यूवर्ल्ड पब्लिकेशन से उससे यह कहे जाने की संभावना भी बनती है कि व्यंग्यकार वही जिसके चयनित व्यंग्य न्यूवर्ल्ड पब्लिकेशन से आ गए हैं। इस बात की तसदीक Alok Puranik जी ने करते हुए सूचना दी कि वे भी अपने चयनित व्यंग्य न्यूवर्ल्ड से छपवाने के लिए छाँट रहे हैं ताकि लोग उनको सिर्फ आवारा घुम्मकड़ ही न समझें।
चयनित व्यंग्य छपने के साथ ही अपन ने दो प्रतियां मंगवा ली थीं। आते ही श्रीमती जी से विमोचन करवा लिया था। विमोचन करने के बमुश्किल तैयार हुई श्रीमती जी ने कड़क हिदायत दी थी कि उनके विमोचन की फ़ोटो कहीं लगाई न जाये। उनको इस बात का अंदेशा था कि कहीं लोग उनको भी मिशनरी 'पुस्तक विमोचक' न समझ लें जो रोज किसी न किसी किताब को सीने से सटाये विमोचन करते पाया जाता है।
एक प्रति के साथ विमोचन के बाद दूसरी प्रति भेंट की गई आयुध निर्माणी कानपुर के कार्यकारी निदेशक अजय सिंह जी को। शनिवार को किताब भेंट करने के कारण उन्होंने इसे पढ़ने की तस्दीक़ करते हुए कुछ लेखों का ज़िक्र करते हुए मजे भी लिए यह कहते हुए कि आपके लेख पढ़ते हुए परसाई जी की याद आती है। हम कुछ बोले नहीं। मित्रों की बात का बुरा नहीं माना जाता।
अजय सिंह ने मजे लेते आगे भी कहा -‘आप इतने काम-धाम के साथ इतना सब लिख कैसे लेते हैं?’ इस मज़ाक़ का मतलब आप समझ ही गए होंगे।
नोयडा से प्रगति मैदान किराए की कार से गये। 20 किलोमीटर की दूरी के चार सौ रुपये खर्च हुए। मतलब 20 रुपया प्रति किलोमीटर । चयनित व्यंग्य की किताब 225 रुपये की किताब मेले में 200 रुपये में मिल रही थी। दो किताब के बराबर खर्च करके मेले में पहुंचे।
पुस्तक मेले में गेट पर ही यादव जी के मशहूर शुध्द शाकाहारी छोले के कई ठेले लगे हुए थे। सब पर दनादन छोले बिक रहे थे। बिना विमोचन।
गेट नम्बर 5 से जाना था पुस्तक मेले। लम्बी, घुमावदार, ढीली-ढाली टाइप लाइन लगी थी मेले के अंदर जाने के लिए। टिकट हमने पहले ही खरीद लिया था। आन लाइन। बड़ों का 20 रुपये का। बच्चों का 10 रुपये का। हमको लगा कि काश बच्चे होते तो दस रुपये बचते। बाद में जब पता चला कि सीनियर सिटीजन के लिये मुफ्त व्यवस्था है मेले में आने की तो लगा काश वरिष्ठ नागरिक हो गए होते। पहले दस और बाद में बीस रुपये के लालच में बच्चा और फिर बूढ़ा हो जाने की ललक लिए हम जैसे लोग ही अपने माननीयों के दलबदल की आलोचना करते हैं। कितनी खराब बात है।
मेले के अंदर पहुंचने तक किसी ने हमारा टिकट चेक नहीं किया तो लगा कि टिकट बेफालतू ही लिया। लेकिन बाद में काम आया वही टिकट। उसकी कहानी आगे।
मेले में हमारी कितबिया हाल नम्बर एक में थी। सबसे आखिर में हाल था। भीड़ भारी थी। लोग आते-जाते दिख रहे थे। हमको लगा कि मेला साल में कई बार लगना चाहिए। लेकिन हमारे लगने से क्या होता है।
मेले में मित्रों से हमने तीन बजे पहुंचने को लिखा था। पहुंचते हुए 4 मिनट कम तीन बजे गए थे। हाल में घुसते ही वाणी प्रकाशन के स्टाल के किनारे की बरामदे टाइप की जगह पर किसी किताब पर विमोचन के बाद वाली बातचीत हो रही थी। सवाल-जबाब का सिलसिला चल रहा था। हम बातचीत को उड़ती-उचटती निगाह से देखते हुए आगे बढे और न्यूवर्ल्ड पब्लिकेशन के स्टाल पर पहुंचे।
स्टॉल पर Arifa Avis मौजूद थीं। आरिफ़ा से वर्षो की फेसबुकिया मित्रता के बावजूद यह पहली मुलाकात थी। आरिफा के आग्रह के कारण ही यह चयनित व्यंग्य आया। वहीं पर एम.एम. चन्द्रा भी टहलते हुए पाए गए। एम एम चंद्रा पहले डायमंड बुक्स में थे। दो साल से न्यूवर्ल्ड पब्लिकेशन शुरू किया है। बताया कि करीब 500 किताबें निकाल चुके हैं। कई कवियों-व्यंग्यकारों के चयनित-संकलित संकलन दिखे स्टॉल पर।
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