पुस्तक मेले में कई मित्रों की पुस्तके थीं। उनके विमोचन हो रहे थे। उन पर बातचीत हो रही थी। पुस्तक मेले में ऐसे तमाम रचनाकार उपस्थित थे जिनकी रचनाएं पुस्तकों के रूप में मौजद थीं। ये रचनाकार कम चर्चित भले हों लेकिन अपने लोगों के बीच उनकी अहमियत और पहचान तो है ही। अपने इन रचनाकार मित्रों के बारे में सोचते हमको पंकज चतुर्वेदी Pankaj Chaturvedi जी की बात याद आती है:
ऐसी बहुवचन प्रतिभाओं की संगत में उनकी रचनाओं से रूबरू होते हुए पुस्तक मेले का आनंद लिया गया।
पुस्तक मेले में विमोचनबाजी का सिलसिला शुरू होते ही सामने से भाई प्रमोद Pramod Kumar से मुलाक़ात हुई। लगभग आठ साल पहले प्रमोद जी से मंडी हाउस में पहली मुलाक़ात हुई थी। उस मुलाक़ात का जिक्र करते हुए लिखा था (लिंक टिप्पणी में ):
"....वहां प्रमोद कुमार जी भी आ गये। प्रमोद जी से भी पहली मुलाकात थी। आलोक जी Alok Puranik के पुराने मुरीद और पाठक। दस साल पुराने ’गुप्त पाठक’ से मिलकर आलोक जी भी खुश हो गये। हमारे मामा नदन जी कई कवितायें प्रमोद जी को याद हैं और वे उन्होंने जिस तरह वहां दोहराई उससे लगा कि कितने गहरे साहित्य प्रेमी हैं प्रमोदजी। फ़तेहपुर, कानपुर की कितनी यादे हैं उनके। ऐसे प्रेमी पाठक मित्र से मिलकर मन खुश हो जाना सहज बात है। इस चक्कर में आलोक जी विदा लेने के बाद फ़िर रुक गये कुछ देर के लिये।"
प्रमोद जी अपनी फेसबुक वाल पर नियमित रूप से बेहतरीन शेर साझा करते हैं। आज उन्होंने बशीर बद्र का ये शेर साझा किया है:
भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियां वही फासले !
न कभी हमारे कदम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गई !!
बशीर बद्र के शेर के उलट हमारी जब मुलाक़ात हुई तो लपक कर हाथ मिलाते हुए प्रमोद जी ने कन्हैयालाल नंदन जी कविता सुनानी शुरू की जिसे हमने भी साथ दोहराया। चुनाव शीर्षक यह कविता नंदन जी अक्सर मंचो पर सुनाया करते थे:
"पहाड़ी के चारों तरफ
जतन से बिछाई हुई सुरंगों पर
जब लगा दिया गया हो पलीता
तो शिखर पर तनहा चढ़ते हुए इंसान को
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
कि वह हारा या जीता।
उसे पता है कि
वह भागेगा तब भी
टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा
और अविचल होने पर भी
तिनके की तरह बिखर जायेगा
उसे करना होता है
सिर्फ चुनाव
कि वह अविचल खड़ा होकर बिखर जाये
या शिखर पर चढ़ते-चढ़ते बिखरे-
टुकड़े-टुकड़े हो जाये।"
नंदन जी की याद आई तो यह भी याद आया कि वे बाद के दिनों में ईश्वर से अपना उलाहना देते हुए पढ़ते थे :
सब पी गए , पूजा नमाज बोल प्यार के,
ज़रा नखरे तो देखिये,परवरदिगार के।
प्रमोद जी से थोड़ी देर बातचीत के बाद वो मेला देखने निकल लिए । अपन भी इधर - उधर विमोचनबाजी में व्यस्त हो गए।
थोड़ी देर बाद प्रभात गोस्वामी जी Prabhat Goswami और फारुख अफ़रीदी जी Farooq Afridy Jaipur स्टाल पर आये। जयपुर से सुबह चलकर मेले में पहुंचते-पहुंचते शाम सी हो गई थी। प्रभात जी और फारुख जी की किताबें भी न्यूवर्ल्ड पब्लिकेशन पर मौजूद थीं। उनका भी विमोचन हुआ । शाम को मैंने फोन किया तो दोनों जयपुर के रास्ते पर थे।
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन पर तमाम व्यंग्यकारों की चयनित व्यंग्य रचनाएं मौजूद थीं। सबके कवर पेज लेखक की फोटो को छोड़कर एक जैसे थे। अनुशासित जैसे कवर पेज। आजकल अधिकतर व्यंग्य लेख एक जैसे लगते हैं तो कवरपेज एक जैसे लगना सहज सा है।
मेले में ज्योति त्रिपाठी से भी मुलाकात हुई। करीब दस साल की फेसबकिया मित्रता के बाद पहली मुलाक़ात। कभी ज्योति हमारे लेखन को बहुत पसंद करतीं थी। एक बार टिप्पणी करते हुए लिखा -' आपकी पोस्ट पढ़ते हुए समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला।'
ज्योति अपने आसपास के जीवन के बारे में कवितायें लिखती हैं। कविताओं में स्त्री विषयक मसलों पर अपनी राय व्यक्त करती हैं। उनकी कविताओं का बड़ा पाठक वर्ग है। कविताओं के साथ ज्योति ने कई धारावाहिक उपन्यास भी अपनी फेसबुक वाल पर पोस्ट करते हुए लिखे हैं। इन उपन्यासों में जनता की राय का ख्याल रखते हुए भी पात्रों के साथ ट्रीटमेंट किया गया है। इनमे से एक उपन्यास 'रुप्पू' प्रकाशित भी हुआ है। यह उपन्यास जब छपा था तब मैंने इसे खरीद कर इस पर अपनी टिप्पणी भी लिखी थी। मेले में ज्योति से मुलाक़ात होने पर अगले दिन यह उपन्यास फिर से खरीदा गया और लेखिका के आटोग्राफ लिए गए।
ज्योति के साथ उनके चाचा कमलाकर मिश्र जी भी थे। पता चला उन्होंने भी एक उपन्यास लिखा है जो कि उनके खुद के अदालती अनुभवों पर आधारित है -'पिताजी और तारीख।' पता चलने पर हमने हिन्द युग्म स्टाल पर उनके साथ जाकर किताब खरीदी और कमलाकर जी के आटोग्राफ लिए। इसके बाद सबने साथ में मिलकर चाय पी।
मेले में पता चला अनूप मणि त्रिपाठी Anoop Mani Tripathi भी मौजूद थे अपनी नई किताब के साथ। साथ में 'जे बिनु काज दाहिने बाएं' संतोष त्रिवेदी भी थे। संतोष त्रिवेदी ने इस बार व्यंग्य पर एहसान करते हुए इस बार कोई किताब नहीं छपवाई ।
अनूपमणि त्रिपाठी के स्टाल पर उनकी किताब के साथ फोटो खिंचाया और किताब खरीदी भी। अनूप मणि की यह तीसरी किताब है। पहली दो किताबों हमने खरीदकर पढी भी हैं लेकिन उनके बारे में लिखना अभी तक उधार है। इस किताब से एक और उधर चढ़ गया।सब चुकाया जाएगा आहिस्ते-आहिस्ते।
अनूप मणि के साथ राजीव तनेजा जी से भी मुलाक़ात हुई । राजीव तनेजा आजकल नियमित रूप से किताबें पढ़कर उनके बारे में नियमित रूप से लिखते हैं। ऐसा काम जो कम लोग करते हैं। बल्कि बहूत कम लोग करते हैं।
लौटते हुए पंकज सुबीर और मनीषा कुलश्रेष्ठ जी से शिवना प्रकाशन पर मुलाक़ात हुई। कुछ दिन पहले मनीषा जी की संगत में हुई बातचीत की तारीफ़ की शुरुआत करते कुछ और तारीफ़ की। पंकज सुबीर जी ने भी तारीफ़ में कुछ और जोड़ा। इसके बाद हम पंकज सुबीर जी से अगले दिन आने के लिए कहकर चले आये। बगल की दूकान पर नीरज शर्मा Neeraj Sharma और डा शर्मा मौजूद थे। उनको भी अगले दिन आने की बात कहकर निकल लिए।
पुस्तक मेले Abhishek Awasthi से भी मुलाक़ात हुई। अभिषेक की मृगया के बाद दूसरी किताब आनी है। किताब तो सौरभ जैन सौरभ जैन की भी आनी है दूसरी। अभिषेक और सौरभ दोनों इस मामले में लखनउवा अंदाज में पहले आप , पहले आप कहते पाए गए। सौरभ इस बीच डाक्टर भी हो गये हैं पीएचडी वाले। सौरभ के बनाये मीम के जलवे दैनिक भास्कर में दिखते रहते हैं।
जब हम न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन पर थे तो वहीं कनपुरिया पत्रकार , रचनाकार संजीव मिश्र Sanjiv Mishra भी आये। मिलते ही हमारे नामराशि अनूप शुक्ला Anoop Shukla के हिस्से की तारीफ़े हमारे लिए करनी शुरू की। हमने बताया कि हम वो वाले अनूप नहीं हैं तो उन्होंने कुछ कम करके नये सिरे से हमारे लेखन की तारीफ़ की। नामराशि मित्रों के साथ का यह फ़ायदा तो होता है कि तारीफ़ मुफ़्त में मिल जाती है।
संजीव मिश्र जी ने हाल में कानपुर के चर्चित माफिया विकास दुबे पर किताब लिखी है -बवाली कनपुरिया। इसमें विकास दुबे के अपराध जगह में प्रवेश करने से शुरू करके उसके दबदबा बनने और मारे जाने की विस्तार से चर्चा है। पठनीयता ग़ज़ब की है। किताब के बारे में अलग से। किताब पेंगुइन बुक स्टाल पर मौजूद थी। हमने स्टाल पर जाकर किताब ली और संजीव जी के ऑटोग्राफ़ भी लिए।
पुस्तक मेले में हमारे आने की सूचना पाकर हमारे कालेज के मित्र विनोद अग्रवाल जी Vinod Kumar Agrawal भी आये मिलने। उस समय तक मेले के टिकट मिलने बंद हो गए थे। हमने जब सबेरे आनलाइन टिकट खरीदा था तो रास्ते में किसी ने चेक नहीं किया था। विनोद भाई ने जब बताया कि टिकट मिला नहीं है तो अपने ने अपना टिकट व्हाट्सेप से उनको भेज दिया। हमको आशा नहीं थी कि उनको उस पर आने को मिलेगा लेकिन कुछ देर बाद वे हमारे स्टाल पर मौजूद थे। हमारे साथ काफी देर रहे। तमाम पुरानी यादें साझा की गईं। लौटते में घर तक छोड़ने भी आये।
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