पिछ्ले दिनों कलकत्ता जाना हुआ। लखनऊ से जहाज पकड़ना था। सबेरे की उड़ान थी। दस बजे की। घर से हवाई अड्डा ९० किलोमीटर है। दो घंटे लगते हैं । लेकिन आजकल जगह -जगह काम के चलते जाम लग जाता है। तीन घंटे पकड़ के चलना होता है।
सबेरे निकलते-निकलते साढ़े छह बज गए। लग रहा था आराम से पहुँच जायेंगे। लेकिन रास्ते में एक जगह लंबा जाम मिला। गाड़ियां बहुत धीमे सरक रहीं थीं। गूगल मैप में दिख रहा था लंबा जाम है। जैसे ही लगता अब छूटा जहाज वैसे ही गाड़ियां फिर सरकने लगती। थोड़ी देर बाद लगा अब तो पक्का रह जायेंगे। फिर उल्टी तरफ से आगे बढे। करीब आधा किलीमीटर। आगे रास्ता साफ़ था। जाम को पार करके फिर सरपट आगे बढे। पहुँच गए समय पर।
जहाज में हमारी सीट खिड़की के पास वाली थी। हमारी सीट पर एक लड़की बैठी थी। हमको सीट की तरफ बढ़ता देख उसने इशारे से पूछा -'हम बैठे रहें इस सीट पर?' हमने भी इशारे से हाँ कह दिया और उसकी सीट पर बैठ गए। इशारे में हुई बातचीत पर कोई गाना भी है शायद। आपको याद आया ?
लड़की फोन पर अपने घर में किसी से बतिया रही थी। वीडियो काल। उड़ान के पहले एयरहोस्टेस यात्रियों को सुरक्षा के बारे में जानकारी दे रही थी। एक यात्री ने एयरहोस्टेस से कहा -' ये बेल्ट बंध नहीं रही। आप बाँध दो।' लड़की ने फोन पर बात करते हुए बताये -'जहाज में बिहारी बतिया रहे हैं।'
जहाज उड़ने के बाद बात करते हुए लड़की से बात करते हुए पता चला कि वह भी बिहार से है। पढ़ाई नादिया (पश्चिम बंगाल ) में हुई। फिलहाल एक आई टी कंपनी में काम करती है। गुडगाँव में। बताया -' 15 हजार रूपये किराया है एक कमरे का। इतने में पटना में पूरा घर मिल जाता है।'
'पश्चिम बंगाल में रहते हुए बंगाली सीखी ? ' पूछने पर बताया -'बोल नहीं पाती लेकिन समझ लेती थी।'
भाषाएँ सीखने की हरेक की झमता अलग -अलग होती है। संगत के एक इंटरव्यू में इब्बार रब्बी जी ने एक यायावर का जिक्र करते हुए बताया कि वह अपने घर से निकला तो जहां गया वहां की भाषाएँ सीखकर आगे बढ़ता गया। अनेक भाषाएँ सीखकर आगे बढ़ते हुए अफगानिस्तान पहुंचा तो पकड़ लिया गया। लोगों को लगा यह इतनी भाषाएँ जानता है तो जरुर कोई जासूस होगा। इब्बार रब्बी जी उसकी जीवनी लिखना चाहते हैं।
थोड़ी देर में पटना पहुँच गए। अगली फ्लाईट पांच घंटे बाद थी। हम पटना टहलने के लिए बाहर आ गए।
पटना टहलने के इरादे के बारे में भी किस्सा मजेदार है। Pramod Singh प्रमोद सिंह जी की नई किताब आई है 'बेहयाई के बहत्तर दिन।' आजकल उनकी पोस्ट्स में किताब का जिक्र होता है। इसके अलावा और भी किताबो का उल्लेख। ऐसी ही एक पोस्ट में एक टिप्पणी में शाजी जमाँ द्वारा लिखी किताब 'अकबर' का जिक्र हुआ। प्रमोद जी ने उस किताब के लेखक की रवीश कुमार जी से हुई बातचीत का जिक्र किया। नेट से खोजकर बातचीत सुनी। उसमें अकबर की लिखाई का जिक्र किया गया था। लेखक ने बताया था कि अकबर की लिखाई का नमूना पटना की खुदाबक्श लाइब्रेरी में मौजूद है। फ़ौरन मन किया कि चला जाए देखने जिल्लेइलाही की लिखावट। इस लिहाज से फ्लाईट चुनी जिसका पटना में ठहराव था कुछ घंटे का।
पटना हवाई अड्डा साधारण सा है। कोई तड़क-भड़क नहीं। एकदम आम सी सड़क बाहर की तरफ जाती हुई। बाहर आये तो गाड़ियां भी इतनी नहीं दिखी कि लगे किसी राजधानी के हवाई अड्डे पर खड़े हैं।
खुदाबक्श लाइब्रेरी दस किलोमीटर दूर दिखी गूगल से। सोचा बाहर निकलकर टैक्सी करेंगे । उबर से दाम 350 रुपये दिखे। लेकिन हम टैक्सी करें तब तक कई लोग वाले एक हाथ में हेलमेट लटकाए, 'कहाँ जाना है चलिए छोड़ देंगे' कहते हुए मिले।
हमने दाम पूछे तो बताया 180 रुपये लगेंगे खुदाबक्स लाइब्रेरी तक के। न , न करते हुए हम एक मोटरसाइकिल पर बैठ ही गए। हेलमेट भी पहना दिया दीपक ने। बताया कि यहाँ पीछे वाली सीट पर बैठी सवारी के लिए भी हेलमेट जरुरी है। न लगाने पर फाइन लगता है।
बैठते ही लगा मोटरसाइकिल सड़क से चिपक गयी। हवा निकल गयी थी। दीपक ने हवा निकाल देने वाले अज्ञात लोगों के नाम कुछ गालियाँ दीं और पास की हवा भरने की जगह पर हवा भराने के लिए लपक लिए। अपन एक हाथ में हेलमेट और दूसरे में अपना झोला लटकाए पीछे -पीछे चलते रहे।
हवा भराने के बाद दीपक के साथ आगे बढे। थोड़ी देर बाद हवा फिर निकल गयी। दीपक फिर पंचर वाले को खोजने निकला। हम पीछे-पीछे। उसको चिंता थी कि कहीं सवारी बाइक से निकल न जाए। पंचर की दूकान पर पहिया खुला तो पता चला वह पहले से ही कई जगह पंचर युक्त था। हवा भी एक भूतपूर्व पंचर के बगल से निकली थी।
ट्यूब के हाल देखकर दीपक ने नया ट्यूब खरीदा। तीन सौ का। ट्यूब फिट करवा के हवा भरवा के फिर मोटरसाइकल तैयार हो गयी। हम आगे बढ़ लिए।
जिस सड़क पर हम चल रहे थे वह बेली रोड थी। जिसके बारे में अक्सर सुनते थे उस पर चलना भी मजेदार अनुभव।
लाइब्रेरी गांधी मैदान के आगे थी। रास्ते में पटना की तमाम ऐतिहासिक इमारतें दिखीं। गोलघर, पटना सचिवालय आदि। बहुत ऊँची इमारतें नहीं दिखीं। कुछेक माल्स दिखे अलबत्ता। सड़क पर आम लोगों की आवा-जाही। सुबह का समय था। लोग काम पर जा रहे थे। दुकाने खुलने लगीं थी। सारी इमारतों , जगहों के बारे में रनिंग कमेंट्री करते जा रहे थे दीपक। इस गाइडिंग के कोई अलग से पैसे नहीं मांगे दीपक ने ।
शहर में घूमते हुए हम उस पतली सड़क पर आये जिस पर लाइब्रेरी थी। ऊपर सड़क /ओवरब्रिज बन रहा था। सड़क पर भयंकर घिचपिच। भीड़ और जाम।
एक पुरानी इमारत तोड़ी जा रही थी। उसकी जगह नई बनेगी। इमारत पर लिखाई देखकर पता चला कि वह महिलाओं का अस्पताल था।
इस सब से गुजारते हुए दीपक ने हमको उस लाइब्रेरी के सामने उतार दिया जिसका जिक्र हम किताबों में पढ़ते आये थे। पटना की खुदाबक्स लाइब्रेरी।
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