सुबह उठते ही लगता है कुछ लिखा जाए। बीते दिन, समय की कोई बात प्रमुख लगती है तो उसके बारे में लिखने की सोचते हैं। जब लिखने बैठते हैं तो लगता है कि तसल्ली से लिखेंगे। तसल्ली के चक्कर मे टल ही जाता है। ऐसी कई यादें जो कभी बहुत जरूरी लगती थीं लिखने के लिए वो लिखे जाने के इंतजार में धुंधलाती जाती हैं।
सड़क जो कभी खाली रहती थी, दुकानों से पट गयी है। दुकानें ही दुकानें। ज्यादातर दुकानें फुटपाथ पर कब्जा करके बनाई गई हैं। लोगों की चलने की जगह घेरकर बनाई गयी दुकानों ने लोगों को सड़क पर धकेल दिया है।
टहलते हुए कालपी रोड पर आ गए। चार-पांच किलोमीटर की टहलाई काफी दिन बाद हुई थी। मानो कोई किला जीत लिया हो।
नहर के पास सड़क थोड़ा ऊंची है। सड़क किनारे बनी पुलिया के पास खड़ा एक आदमी , अपनी साइकिल पकड़े, नहर के बहते पानी को देख रहा था। चुप खड़ा।
पास पहुंचकर बातचीत शुरू हुई। बात करते हुए साइकिल सवार साइकिल पकड़े हुए मेरे साथ पैदल चलने लगा। बताया कि हरसहाय इंटर कालेज के पीछे टूटी मस्जिद के पास रहता है। काम के सिलसिले में भौंती जाता है। करीब 28 किलोमीटर की दूरी। मतलब करीब 56 किलोमीटर की दूरी रोज साइकिल से रोजी-रोटी के सिलसिले में तय होती है।
हमने कहा -'यह तो बहुत दूर पड़ जाता है। तक जाते होंगे।'
'का करें? पेट के कारण सब करना पड़ता है।'- उसने निर्लिप्त भाव से जवाब दिया।
घर;परिवार और बाल-बच्चो के बारे में बातकरते हुए वह साथ चलता रहा। जिस सड़क पर हम चल रहे थे वह ऊंचाई पर थी। ढलान से नीचे उतरते हुए वह हमारे साथ पैदल चल रहा था।
हमने कहा -'अब तुम चलो। घर जाना है। ढलान भी है। इसी के सहारे दूर तक चले जाओगे। आराम रहेगा।'
इस पर वह बोला -'हां लेकिन साथ चलते हुए थोड़ा बोल-बतिया ले रहे हैं तो रास्ता अच्छा कट गया।'
कुछ इसी तरह की और बात कही उसने। फिर थोड़ी देर और साथ चलने के बाद साइकिल पर सवार होकर चला गया।
साथ जलते हुए बोलते-बतियाते हुए रास्ता आसानी से कटने की बात सुनकर एक बार फिर लगा कि दुनिया में अकेलेपन से मुक्ति की चाहना कितनी है लोगों में। लोग अकेलापन महसूस करते हैं। उससे मुक्त होना चाहते हैं। बोलना-बतियाना चाहते हैं। लेकिन तमाम कारणों से मौके नहीं मिलते।
सोशल मीडिया पर लोगों की भयंकर भागेदारी इस अकेलेपन से मुक्ति की चाहना का ही परिणाम है। अपने को अभिव्यक्त करके सामाजिक हो जाने का एहसास लोगों को इससे जोड़ता है। वह अलग बात है कि लोगों की सामाजिकता की चाहना को सोशल मीडिया अपनी कमाई के लिए उपयोग करता है। विज्ञापनों और प्रायोजित पोस्ट्स की भरमार होती जा रही है। आम लोगों की पोस्ट्स सिकुड़ती जा रहीं हैं।
साइकिल सवार की बात से एक और किस्सा याद आया। दो महीने पहले जाड़े में अर्मापुर में फुटपाथ पर कचरा जलाकर आग तापते मां-बेटी दिखे। पास से गुज़रते हुए हमने कहा -'आग ताप रही हो। जाड़ा भगा रही हो।'
इस पर उनमें से किसी ने कहा -'आओ, तुमहू तापि लेव।'
हम रुके नहीं। चले आये। अलबत्ता उनकी फोटो जरूर खींच लिए।
बात दो महीने पुरानी है लेकिन उसका लहजा अभी भी याद आ रहा है -'आओ तुमहू तापि लेव।'
यह सर्वहारा की सामाजिकता है जिसका सोशल मीडिया पर कोई खाता नहीं। उसको कोई फर्क नहीं पड़ता इस बात से कि फेसबुक, इंस्टाग्राम कब कितनी देर डाउन रहा।
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