सुबह नीद खुलते ही चाय मंगाई। कड़क चाय। चाय पीकर टहलने निकले। साथी लोग अभी सो रहे थे शायद। कोई बाहर दिखा नहीं। हो सकता है वे भी चाय-वाय पीते हुए या इन्तजार करते हुए जगने की/उठने की कोशिश में लगे हों। जड़त्व का नियम जड़/चेतन सब पर सामान रूप से लागू होता है। जो वस्तु जिस अवस्था में है उसी में बनी रहती है जब तक उस पर बाहरी बल न आरोपित किया जाए।
सर्वहारा पुलिया पर राजनीति का चैनल चालू थी। स्वत: स्फूर्त। किसी एंकर की जरूरत के बिना ही बहस/ बतकही जारी थी। बतकही काफी देर से चालू थी। हमने जब श्रोता के रूप अपनी मौजूदगी दर्ज की तो सुनाई पड़ा :
-नीतीश कुमार की तो लाटरी लग गयी।
-खुद मुख्यमंत्री ही रहेगा। केंद्र में अपना आदमी बैठायेगा। मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ेगा। यहीं से चलाएगा अपना दांव।
-मोदी का मुंह इत्ता सा रह गया एक ने हथेली को चोंच की शक्ल में दिखाते हुए कहा।
-बहुत अकड़ता था। बहुत बोलता था। दूसरी पार्टी के लोगों को छोड़ दो, अपनी पार्टी तक के लोगों से कायदे से बात नहीं करता था। अब सब नचाएंगे। देखना खेल। मजा आयेगा।
बातचीत करते हुए नेताओं का नाम आत्मीयता से लेते हुए उनके नाम के आगे ‘वा/या’ लगाते हुए राजनीतिक कमेंट्री करते रहे पुलिया पर बैठे लोग।
पुलिया, नुक्कड़, चौराहे ,चौपाल किसी भी समाज के थर्मामीटर , बैरोमीटर होते हैं। समाज का ताप और दाब बताते हैं।
बतियाने वाले वीएफजे, जीआईऍफ़, जीसीऍफ़ और खमरिया से रिटायर्ड लोग थे। कामगार। बातचीत से अंदाज लग रहा था कि बिहार के मूल निवासी हैं। काम-धाम के लिए जबलपुर आये और फिर यहीं बस गए। रोजी-रोजगार के लिए इंसान कहाँ –कहाँ नहीं भटकता है। दुनिया में विस्थापन का सबसे बड़ा कारण नौकरी रहा है। स्थायित्व की तलाश में इंसान स्थाई रूप से भटकता रहता है।
हमने उन लोगों से छट्ठू सिंह और उनके साथियो के बारे में पूछा जो आठ साल पहले यहाँ टहलते हुए मिलते थे। किसी को उनके बारे में पता नहीं था। पुलिया और उसके आसापास के तमाम किरदारों के बारे में सोचते रहे कि शायद कहीं टहलते हुए दिख जाएँ। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। रोहिणी सिंह जो अक्सर यहाँ टहलती दिखती थीं वो भी शायद कहीं और चली गयीं हों। अब तो वो पीएचडी करके डाक्टर हो गयी हैं। मिलती तो चाय पीते, मिठाई खाते ।
सामने सर्वहारा पुलिया पर एक अकेला इंसान बैठा था। कुछ अनमना सा। नाम बताया ओमप्रकाश। वीएफजे रिटायर हुए थे। कुछ देर उनसे बतियाने के बाद आगे बढ़ गए।
टहलते हुए मेन रोड तक चले गए जो बाईं तरफ रांझी , खमरिया चली जाती है। दायीं तरफ जीसीऍफ़ होते हुए रेलवे स्टेशन। यहीं दायीं तरफ पंकज टी स्टाल पर बजाते रेडियो पर गाना सुनते हुए चाय पीते थे। एक के बाद दूसरा गाना सुनते हुए चाय पीते। अक्सर एक चाय खत्म करने के पहले ही दूसरी आर्डर कर देते थे। यहीं कई चरस पीने वाले मिलते थे और चरस वाली बीडी पीते हुए चरस की खासियत बताते थे। एक चरस प्रेमी ने धुँआ उड़ाते हुए बयान जारी किया था –‘चरस दिलखुश नशा है।‘
पंकज की चाय की दूकान बंद थी। बोर्ड भी नदारद। काउंटर पर चाय की केतली की जगह एक आदमी बैठा था। बगल की दूकान वाले ने बताया कि बहुत दिन हुए बंद हो गयी उनकी दूकान। अगल-बगल की दुकाने अलबत्ता आबाद थीं। सामने ही जलेबी छन रहीं थी। बगल में पोहा जलेबी का काउंटर भी खुला था। लेकिन अपन तो चाय पीने आये थे। पंकज टी स्टाल जो कि भूतपूर्व हो चुकी थी उसकी दूकान के बगल वाली दूकान से चाय पी और पलट लिए।
रास्ते में एक दुकान में रुके। सोचा दीपा के लिए चाकलेट ले लें। पहले कभी –कभी ले जाते थे। आठ साल बाद मुलाक़ात के जाते हुए यह बात याद आई। दूकान पर चाकलेट थी नहीं। साँची के पड़े थे , ले लिए और कुछ टाफी। आठ साल का समय बीत गया इस बीच। अब बड़ी हो गयी है लेकिन हमारी याद में वह बच्ची ही थी अभी तक।
शोभापुर क्रासिंग के आगे दायीं तरफ मुड़कर थोड़ी ही दूर पर रहती है दीपा। उसके घर की तरफ जाते हुए एक नल पर कुछ लोग पानी भरते हुए दिखाए दिए। एक महिला अपना प्लास्टिक का डब्बा नल के मुंह से सटाए हुए बैठी थी। पास से देखा तो नल का पानी डब्बे में भरता जा रहा था। हम आगे बढ़ गए। दीपा से मुलाक़ात की उत्सुकता हो रही थी हमको।
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