Friday, July 19, 2024

कालेज स्ट्रीट से अलीपुर

 कॉलेज स्ट्रीट पर हम लोग (पोस्ट का लिंक टिप्पणी में ) अपनी गाड़ी का देर तक इंतज़ार करते रहे। ड्राइवर ने बताया कि वो जाम में फँसा है। जाम से छूटते ही आएगा। जाम का कारण उल्टी रथयात्रा होना थी। भगवान जगन्नाथ वापस घर लौट रहे थे। इसलिए सड़क पर भीड़ और जाम था।

ड्राइवर के आने तक हम सड़क पर टहलते रहे इधर-उधर। सामने हिंदू स्कूल के बच्चों की छुट्टी होने वाली थी। स्कूल 1817 से चल रहा है। बच्चों को लेने आये उनके अभिभावक सड़क पर इंतज़ार कर रहे थे।
एक बच्ची ने हम लोगों को कोलकता वासी समझते हुए कहीं जाने वाली बस के बारे में पूछा। हमको पता नहीं था। बता नहीं पाए। बच्ची वहीं खड़ी बस का इंतज़ार करती रही।
पीछे प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय था। वहाँ जाकर देखने का मन नहीं किया। थके थे। सोच रहे थे बस घर चला जाये।
सामने काफ़ी हाउस दिखा। लेकिन एक तो वह पहली मंज़िल पर था , दूसरे हमको ऐसा लगा कि वहाँ एसी नहीं होगा। गर्मी में वहाँ जाने का मन नहीं हुआ। आज Lili जी ने बताया कि वहाँ पैरामाउंट रेस्तराँ भी है जहां हमको जाना चाहिये था। इस बार तो छूट गए दोनों रेस्तराँ लेकिन अगली बार ज़रूर जाएँगे।
ऐसा अक्सर होता है। किसी जगह जाकर वहाँ के बारे में लिखें तो मित्र लोगों से पता चलता है कि पास की ही कोई और महत्वपूर्ण जगह रह गई देखने को।
गाड़ी के इंतज़ार में खड़े-खड़े एक ठेले वाले से क़ुल्फ़ी खाई। क़ुल्फ़ी वाला गया , बिहार का रहने वाला था। उससे गया के बारे में बात करते हुए क़ुल्फ़ी खाते रहे।
सामने एक बोर्ड लगा था जिसमें कॉलेज स्ट्रीट के हाकर्स को बिना उचित जगह दिये विस्थापित करने के विरोध में रैली का आह्वान किया गया था। अगर यह किताबों की दुकानों को हटाने की बाबत है तो ग़लत है। 200 साल से ऊपर की विरासत को ख़त्म करना ठीक नहीं।
सामने सड़क पर लोगों के साथ-साथ हाथ रिक्शे वाले भी आते-जाते दिखे। किसी में कोई सवारी थी। किसी में कोई सामान। कोई ख़ाली ही जा रहा था। हाथ रिक्शा और ट्राम कोलकता की ख़ासियत रही हैं। दोनों के ही दायरे सिमटते जा रहे हैं। हाथ रिक्शा चलाने वाले शायद पुराने लोग ही बचे हैं जिनके लिए कोई दूसरा काम करके आजीविका कमाना मुश्किल होगा।
कोलकता से संबंधित एक पिक्चर की शूटिंग के पहले बलराज साहनी द्वारा उसके रिहर्सल का क़िस्सा कहीं पढ़ा था। उसमें बलराज साहनी भीषण गर्मी ने नंगे पैर हाथ रिक्शा चलाते थे। यहाँ मैंने जितने हाथ रिक्शा वालों को देखा , वे सब चप्पल पहने थे। एक हाथ रिक्शा के पास खड़ी दो महिलायें देर तक रिक्शे वाले से बात करती रहीं। शायद कहीं जाने के लिए किराए का मोलभाव कर रहीं हों।
एक हाथ रिक्शे वाला ढेर सारी किताबें के जाता दिखा। जब तक हम हाथ में पकड़ी किताब और खाई जाती क़ुल्फ़ी को सम्भालकर मोबाइल निकालते फ़ोटो लेने के लिए तब तक वह कैमरे की सीमा के बाहर चला गया था।
देर तक ड्राइवर के न आने पर हमने फिर फ़ोन किया उसको। पता चला वह अभी तक जाम में फँसा था। उसको वापस चले जाने को कहकर हम लोग दूसरी सवारियों की तलाश में चल दिये।
सवारी के लिए पहले टैक्सी खोजी। पता चला वहाँ से कोई टैक्सी अलीपुर की तरफ़ नहीं जाएगी। हमने एक आटो किया। पंद्रह रुपया सवारी के हिसाब से उसने हमारी माणिक चन्द्र रोड तक छोड़ा। पता चला कि आटो वाला बालक अपने मामा का आटो चला रहा था। वैसे पढ़ाई करता है लेकिन कभी-कभी ऑटो चलाता है।
ऑटो के बाद फिर बस पकड़ी। दस रुपये की यात्रा करके धर्मतल्ला पहुँचे। वहाँ से अलीपुर की टैक्सी ली। टैक्सी पुरानी , कलकतिया एंबेसडर थी। उबर का किराया 250 बता रहा था। टैक्सीवाले ने तीन सौ बताये। हमने 250 कहा। उसने बैठा लिया कहते हुए कि यह महाराजा सवारी है। कुछ दिन बाद बंद हो जाएगी। इसका मुक़ाबला ओला/उबर से करना ठीक नहीं।
हम बैठ गये। रास्ते में धक्के और जाम का अनुभव लेते हुए टैक्सी वाले को ढाई सौ रुपये दिये तो उसने पचास और माँगे यह कहते हुए कि उसने तो तीन सौ रुपये ही माँगे थे। आख़िर में बात पास में फुटकर बचे बीस रुपये और देकर निपटी।
रास्ते में जगह-जगह तृण मूल कांग्रेस की पोस्टर लगे दिखे। मुट्ठी भींचे, ललकार मुद्रा में। ऐसा लगा ममता जी ही यहाँ की मोदी जी हैं।
रास्ते में जाम थोड़ा-थोड़ा मिला लेकिन इस कदर नहीं की खड़े रहें घंटों। रास्ते में पड़ने वाली नेशनल लाइब्रेरी को एक बार फिर से बाहर से ही देखा और तय किया कि कोलकता से वापस होने से पहले लाइब्रेरी देखनी है।

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