Saturday, October 26, 2024

शरद जोशी के पंच -19

 1. किसी सामाजिक समस्या पर कोर्ट यदि मानवीय दृष्टिकोण अपना ले,  तो संसद उसमें संसोधन लाकर, ऐसे अच्छे काम करने से रोक सकती है।

2. आजकल बैंक लूटना अंगूर के गुच्छे तोड़ने की तरह सरल हो गया है। यदि किसी बच्चे को पड़ोसी के बाग से अमरूद चुराने का अनुभव हो तो वह अपनी प्रतिभा का उचित विकास कर एक दिन पड़ोस का बैंक लूट सकता है।

3.  हमारे देश में कौन नेता  है ,जिसकी राजनीतिक  आत्मा में मार्कोस नहीं पैठा है? मंत्री या मुख्यमंत्री-पद, अदना सरकारी निगम या सरकारी कमेटी की सदस्यता छोड़ते पीड़ा होती है। ऐन-केन कुर्सी पर अड़े ही रहते हैं। अवधि ख़त्म हो गई ,तो सोचते हैं, एक्सटेंशन मिल जाए। लगे हैं जोड़-तोड़ बिठाने।

4. आज़ादी के बाद से आज तक कुर्सी छोड़ना तो अपवाद ही है। असल क़िस्सा कुर्सी का तो कुर्सी से चिपका रहने का है। गहराई में न जाओ , इस गंदे तालाब को सतह से ही देखो। किटाने उखड़े हुए प्रधानमंत्री, गवर्नर, और मंत्री तैर रहे हैं।  सड़ रहे हैं, मगर अंदर से पद की पिपासा भभक रही है। हे ईश्वर , कुर्सी दे ! बड़ी न दे , तो छोटी दे, पर हे भगवान कुर्सी दे! 

5. आजकल तो बड़ा संन्यासी भी वही माना जाता है , जो किसी पद पर बैठा हो। राजनीतिक पार्टियों में मुग़ल साम्राज्य की आत्मा वास करती है। बिना हटाए कोई हटता ही नहीं। 

6. बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना एक राष्ट्रीय कला है। आपको इसके लिए पहले  निस्संगता और ततस्थता की मुद्रा अपनानी पड़ती है। 

7. ईमानदार, तटस्थ  और सही प्रतिक्रिया इस देश में नायाब है। बजट के बाद जब देश-हित  की बात कही जा सकती है तब भी पार्टी-हित की बात कही जाएगी। चमचागिरी या थोथा विरोध दोनों में से कोई एक होगा।

8. सत्ताधारियों का नियम रहा है कि गुड़ न दे तो गुड़-सी बात तो कर। अब एक नेता और कुछ न दे तो आश्वासन तो दे ही सकता है। लोग उसी से काम चला लेंगे। इतने साल से चला ही रहे हैं। जैसे कोई नेता अपने भाषण में समाजवाद का आश्वासन दे तो उस पर यह बोझ नहीं डाला जाना चाहिए कि वह समाजवाद लाए भी।

9. बड़ों के बच्चे बड़े पदों पर पहुँचते हैं, तो कैसे पहुँचते हैं? बचपन से उनके लिए सच्चे-झूठे प्रमाण-पत्र जोड़े जाते हैं। 

10. वे लोग बड़े सुखी होते हैं जिन्हें जीवन में कभी बड़े पद नहीं मिले। वे बड़ा पद छूटने के दर्द से नहीं गुजरे। पता नहीं बयान से परे है यह पीड़ा। सब कुछ छूटता है। कुर्सी ,टेबल, सोफ़ा ही नहीं, बंगला ,कार भी। यह भी शायद इतना बड़ा दर्द न हो, पर अधिकार और प्रभाव हाथ से जाता है। प्रभाव , जिससे आप मार्क्स बढ़वा सकते हैं, रिश्तेदार को क़र्ज़ दिलवा सकते हैं और अपने प्रिय को पद्मश्री। राम जाने ,इस प्रभाव का दायरा और दबदबा कहाँ तक फैला रहता है ? बिना कुर्सी पर बैठे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। 

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