अपनी आदत है, चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
आंसू नहीं छलकने देंगे
ऐसी कसम उठा रखी है
होंठ नहीं दाबे दांतों से
हमने चीख दबा रखी है।
माथे पर पत्थर सहते हैं,
छाती पर खंजर सहते हैं
पर कहते पूनम को पूनम
मावस को मावस कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हमने तो खुद्दार जिंदगी के
माने इतने ही माने
जितनी गहरी चोट अधर पर
उतनी ही मीठी मुस्कानें।
फ़ाके वाले दिन को, पावन
एकादशी समझते हैं
पर मुखिया की देहरी पर
जाकर आदाब नहीं कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हम स्वर हैं झोपड़पट्टी के
रंगमहल के फाग नहीं हैं
आत्मकथा बागी लहरों की
गंधर्वों के राग नहीं हैं।
हम चिराग हैं, रात-रात भर
दुनिया की खातिर जलते हैं
अपनी तो तैराकी उलटी है
धारा में मुर्दे बहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
-शिवओम ‘अम्बर’फ़र्रुखाबाद
अंबर जी की यह कविता पहली बार कब सुनी , याद नहीं। लेकिन यह याद है कि इसकी पंक्ति :
‘अपनी तो उल्टी तैराकी है, धारा में मुर्दे बहते हैं ‘
हमारे मित्र Vinod Tripathi की पसंदीदा पंक्ति थी और वह इसे नारे की तरह प्रयोग करते हुए अक्सर दोहरते थे।
वरिष्ठ कवि अंबर जी देश के कवि मंचों के सर्वश्रेष्ठ संचालकों में रहे हैं। शाहजहांपुर में होने वाले कवि सम्मेलन और मुशायरे के लिए संचालन के लिए शिवओम अंबर जी और मेराज फैजाबादी जी हमारे पहली पसंद होते थे। दोनों के संयुक्त संचालन कवि सम्मेलन और मुशायरा सफलता की गारंटी होता था।
पिछले दिनों आर्मापुर में हिन्दी पखवाड़े के अवसर पर संपन्न कवि सम्मेलन में अन्य कवियों के साथ अंबर जी को फिर से सुनने का मौक़ा मिला। हमारी फ़रमाइश पर उन्होंने मेरी पसंदीदा कविता भी सुनाई। आप भी सुनिए।
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