यू ट्यूब चैनल रागिनी टाइम्स के माध्यम से Ragini शाहजहाँपुर और आसपास की खबरों की जानकारी देती रहती हैं।रागिनी शाहजहाँपुर की अकेली रजिस्टर्ड महिला पत्रकार हैं। पिछले दिनों मुलाक़ात हुई तो रागिनी ने पत्रकारिता जीवन के अनुभव और संघर्ष के बारे में जानकारी दी। एयरहोस्टेस बनने के सपने के साथ जीवन शुरू करने वाली रागिनी का सपना है कि वो कुछ ऐसा कर जाएँ की लोग उनको याद करें। “किसके जैसा बनना चाहती हैं?” के जबाब में रागिनी ने जो बताया उससे कानपुर के भगवती चरण दीक्षित ‘घोड़ेवाला’ की बात याद आ गई:
Thursday, October 31, 2024
रागिनी टाइम्स से बातचीत
Monday, October 28, 2024
पंकज बाजपेयी से मुलाक़ात
कल शहर गए। कुछ काम से। वैसे शहर जाना भी के बड़ा काम है आजकल। चलने से पहले सोचना पड़ता है -किधर से जाएँ? सड़क पर वाहनों की भीड़। कारें ही कारें, आटो ही आटो, ई रिक्शे ही ई रिक्शे। हर सवारी दूसरी से हलकान। कार वाले ई रिक्शों से परेशान कि कहीं भी घुसे चले जाते हैं। बड़ी-बड़ी कारें, आटो और ई रिक्शों से अपने शील की रक्षा करते हुए चलती हैं। उनको डर है कोई रिक्शा उनको 'बैड टच' करते हुए न निकल जाए। पुरानी गाड़ियाँ अलबत्ता बिंदास चलती हैं। वे राणा सांगा हो गयी हैं -' जहां इत्ते लगे हैं वहाँ एक घाव और सही।'
ई रिक्शे वाले सोचते होंगे -इत्ती बड़ी गाड़ी में अकेला इंसान जा रहा है। इससे अच्छा तो हमारे साथ ही चलता। हमको सवारी मिलती। उसके पैसे बचते।
आज के दिन शहर में सड़क पर चलना भी एक युद्द में भाग लेने जैसा है। न जाने कौन गली में जाम मिल जाए। न जाने कौन सड़क पर ट्रैफ़िक डायवर्जन मिल जाए। कल तक आने-जाने वाली सड़क एकल मार्ग हो जाए। कुछ कहना मुश्किल।
बड़े शहरों में आज ट्रैफ़िक के हाल हैं उसको देखते हुए बड़ी बात नहीं कि आने वाले दिनों में घर से निकलते हुए लोगों की आरती करके, टीका लगाकर विदा करने लगे जैसे पुराने जमाने में युद्ध पर जाने वाले योद्धाओं को लोग घर वाले विदा करते थे। सड़क पर चलना युद्ध लड़ने से कम जोखिम का काम नहीं है।
रास्ते में पंकज बाजपेयी के ठीहे के पास से निकले। पहली बार जब मिले थे पंकज तो सड़क के बीच डिवाइडर पर बैठे मिले थे। ऐसे जैसे देशी कमोड पर बैठे हों। आते-जाते कई दिन देखने के बाद उत्सुकता हुई। बातचीत शुरू हुई। उनके बारे में किस्से सुने। अब तो कई वर्षों की दोस्ती हो चुकी है। फिर भी हर मुलाक़ात में कोई न कोई नयी बात पता चलती है।
इस बीच सड़क के डिवाइडर भी डिवाइड हो गया है। बीच में लोहे के सरियों की जाली लग गयी है। अब डिवाइडर पर बैठना सम्भव नहीं। पंकज बाजपेयी का बैठने का ठीहा छिन गया है। अब पंकज बाजपेयी राजनीति में तो है नहीं जो इसके ख़िलाफ़ आंदोलन करने लगें। वो कोई वोटबैंक तो है नहीं। अकेले की कौन सुनता है।
सड़क के डिवाइडर पर लोहे की सरियों और सड़क किनारे लोहे की चद्दरों की खड़ी दीवार देखकर मुझे लगता है यह किसी लोहे के व्यापारी का माल खपाने के लिहाज़ से किया गया काम है। सड़क किनारे लोहे की चद्दर से सड़क आजकल के राजनीतिज्ञों की तरह सिकुड़ गयी है।
जाते समय तो पंकज दिखे नहीं अलबत्ता लौटते समय अपने ठीहे के पास सड़क किनारे खड़े दिखे। उनके बग़ल में गाड़ी खड़ी करके आवाज़ लगाई तो लपककर आए और हाथ तिरछे करके चरण स्पर्श का इशारा किया। बात और शिकायत एक साथ शुरू हो गयी। पंकज की बातचीत एकदम स्वतःस्फूर्त , बेसिरपैर की रहती है। एक वाक्य का दूसरे से कोई सम्बंध नहीं। ईरान के फ़ौरन बाद तूरान, आयें के फ़ौरन बाद दाएँ मुड़ जाती है उनकी बतकही। उनकी बात सुनकर उसका मतलब निकालना मुश्किल रहता है। ऐसे लगता है उनके मुँह में कोई रिकार्डर फ़िट है जो उलजलूल बातें उगलता रहता है। ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। ऐसे जैसे सामने लाखों का हुजूम हो और उसको सम्बोधित कर रहे हों। मज़े की बात उनको इस बेसिर पैर की हांकने के लिए किसी माइक या टेलिप्रामप्टर की ज़रूरत नहीं होती।
कल उनके डायलाग जो मुझे याद रह गए वो इस तरह हैं:
-गवाही देनी है खन्ना के केस में। दिल्ली चले जाना।
-कोहली भाग गया। उसका मर्ड़र केस ख़त्म हो गया। जिस लड़की के साथ उसने ग़लत काम किया था उसकी शादी हो गयी।
-मम्मी जी के पास चले जाना। उनसे बात हो गयी है।
-जलाने के लिए नोट दे जाना आज। हम तुमको सर्टिफिकेट दे देंगे।
-गाड़ी में परफ़्यूम लगवा लेना। बढ़िया ख़ुशबू आती है।
-कचहरी में मुक़दमा चल रहा है रामलाल का। उसको सजा हो जाएगी अगले हफ़्ते।
इसी तरह की और भी एक के बाद दूसरी बात। लेकिन पंकज की बात में हिंदू-मुसलमान नहीं आता। किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं। दिमाग़ फिर गया है लोग पागल कहते हैं लेकिन किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं। कोई कह सकता है -'पागल है इसीलिए किसी के किसी के प्रति कोई घृणा नहीं है। आज तो बिना घृणा के काम ही नहीं चलता समाज का।'
आगे बात करते हुए उन्होंने पूछा -'माल नहीं लाए इस बार भी?'
'माल' मतलब -'जलेबी, दही, समोसा।'
हमने कहा -'घर से नहीं लाए। लेकिन यहीं दिला देंगे।'
वो बोले -'देता नहीं है नीरज। तुम पिछली बार कह गए थे फिर भी नहीं दिया।'
नीरज वहीं पंकज के ठीहे के सामने, अनवरगंज की तरफ़ जाने वाली सड़क के नुक्कड़ की मिठाई की दुकान पर काम करने वाले लड़के का नाम है। हमने उससे पूछा तो हंसते हुए बताया उसने -'अपने लिए लेते हैं रहते हैं पंकज सामान। रोज़ सौ-दो सौ रुपए खर्च करते हैं।'
ये सौ-दो सौ रुपए पंकज से मिलने वाले लोग देते उनको देते रहते हैं। हमारी मुलाक़ात तो अब कभी-कभी ही होती है। लेकिन कई नियमित मिलने वाले हैं जो उनको 'जेबखर्च' टाइप देते रहते हैं। 'जेबखर्च' टाइप इसलिए कि पंकज आम लोगों से माँगते नहीं। उन लोगों से जो उनसे बात करते हैं हक़ से लेते हैं। लपककर मिलते हैं। पैसे लेते हैं लेकिन रिरियाते नहीं। दैन्य भाव नहीं है। इठलाहट है उनके माँगने में। ठुनककर माँगते हैं -' सौ रुपए देना अबकी बार। नहीं सौ ही लेंगे। पचास नहीं। बीस नहीं।'
नीरज की शिकायत की तो मैंने नीरज को कुछ पैसे दिए। कहा -'जो मिठाई ये कहें दे देना।'
पंकज ने मिठाई की दुकान के काउंटर पर रखी एक मिठाई की तरफ़ इशारा करते हुए कहा -'ये लेंगे।' इसके अलावा एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल 'माउंटेन ड़्यु' की फ़रमाइश की। हमने कहा -'ले लेना। पैसे हमने दे दिए हैं नीरज को।'
इसके बाद चाय पीने के इसरार किया पंकज ने। हम गए चाय की दुकान पर। मामा की चाय की दुकान। वहाँ से चाय लेकर फिर मिठाई की दुकान के सामने आ गए सड़क पर। बात करने लगे।
हमने कहा -'पंकज तुम चलो हमारे साथ। हमारे घर रहो चलकर।'
बोले -'हम कानपुर में नहीं रहेंगे। यहाँ पालूशन बहुत है।'
हमने पूछा -'फिर कहाँ रहोगे ?'
बोले -'बम्बई में। वहाँ हमारा घर है। तुमको भी ले चलेगें। चलना।'
हमने कहा ठीक। अब चलते हैं। पंकज ने फिर पैसे की ज़िद की। कुछ देर इत्ते नहीं इत्ते वाली तकरार होती रही। पंकज बच्चों की तरह ठुनकने भी लगे। उनके ऐसा करते हुए साथ साल के इंसान के चेहरे पर एक छोटा बच्चा सवारी करता दिखा। आख़िर में उनकी बात मान कर उनको जेब खर्च दिया।
पैसे मिलने के बाद पंकज हमको फ़ौरन विदा करने वाले अन्दाज़ में आ गए। बोले -'सेफ़्टी बेल्ट लगा लेना। सड़क पर भीड़ बहुत है। जल्दी जाओ। खाना खा लेना। गंदी चीज़ मत खाना।'
पहले हम सोचते थे कि पंकज का इलाज करवाया जाना चाहिए। अब सोचते हैं -'ये ऐसे ही ठीक हैं। कम से कम ज़िंदगी बसर तो कर रहे हैं। इलाज के बाद कहीं ठीक हो गए तो जिएँगे कैसे ?'
आपका क्या सोचना है इस बारे में ?
Saturday, October 26, 2024
शरद जोशी के पंच -19
1. किसी सामाजिक समस्या पर कोर्ट यदि मानवीय दृष्टिकोण अपना ले, तो संसद उसमें संसोधन लाकर, ऐसे अच्छे काम करने से रोक सकती है।
2. आजकल बैंक लूटना अंगूर के गुच्छे तोड़ने की तरह सरल हो गया है। यदि किसी बच्चे को पड़ोसी के बाग से अमरूद चुराने का अनुभव हो तो वह अपनी प्रतिभा का उचित विकास कर एक दिन पड़ोस का बैंक लूट सकता है।
3. हमारे देश में कौन नेता है ,जिसकी राजनीतिक आत्मा में मार्कोस नहीं पैठा है? मंत्री या मुख्यमंत्री-पद, अदना सरकारी निगम या सरकारी कमेटी की सदस्यता छोड़ते पीड़ा होती है। ऐन-केन कुर्सी पर अड़े ही रहते हैं। अवधि ख़त्म हो गई ,तो सोचते हैं, एक्सटेंशन मिल जाए। लगे हैं जोड़-तोड़ बिठाने।
4. आज़ादी के बाद से आज तक कुर्सी छोड़ना तो अपवाद ही है। असल क़िस्सा कुर्सी का तो कुर्सी से चिपका रहने का है। गहराई में न जाओ , इस गंदे तालाब को सतह से ही देखो। किटाने उखड़े हुए प्रधानमंत्री, गवर्नर, और मंत्री तैर रहे हैं। सड़ रहे हैं, मगर अंदर से पद की पिपासा भभक रही है। हे ईश्वर , कुर्सी दे ! बड़ी न दे , तो छोटी दे, पर हे भगवान कुर्सी दे!
5. आजकल तो बड़ा संन्यासी भी वही माना जाता है , जो किसी पद पर बैठा हो। राजनीतिक पार्टियों में मुग़ल साम्राज्य की आत्मा वास करती है। बिना हटाए कोई हटता ही नहीं।
6. बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना एक राष्ट्रीय कला है। आपको इसके लिए पहले निस्संगता और ततस्थता की मुद्रा अपनानी पड़ती है।
7. ईमानदार, तटस्थ और सही प्रतिक्रिया इस देश में नायाब है। बजट के बाद जब देश-हित की बात कही जा सकती है तब भी पार्टी-हित की बात कही जाएगी। चमचागिरी या थोथा विरोध दोनों में से कोई एक होगा।
8. सत्ताधारियों का नियम रहा है कि गुड़ न दे तो गुड़-सी बात तो कर। अब एक नेता और कुछ न दे तो आश्वासन तो दे ही सकता है। लोग उसी से काम चला लेंगे। इतने साल से चला ही रहे हैं। जैसे कोई नेता अपने भाषण में समाजवाद का आश्वासन दे तो उस पर यह बोझ नहीं डाला जाना चाहिए कि वह समाजवाद लाए भी।
9. बड़ों के बच्चे बड़े पदों पर पहुँचते हैं, तो कैसे पहुँचते हैं? बचपन से उनके लिए सच्चे-झूठे प्रमाण-पत्र जोड़े जाते हैं।
10. वे लोग बड़े सुखी होते हैं जिन्हें जीवन में कभी बड़े पद नहीं मिले। वे बड़ा पद छूटने के दर्द से नहीं गुजरे। पता नहीं बयान से परे है यह पीड़ा। सब कुछ छूटता है। कुर्सी ,टेबल, सोफ़ा ही नहीं, बंगला ,कार भी। यह भी शायद इतना बड़ा दर्द न हो, पर अधिकार और प्रभाव हाथ से जाता है। प्रभाव , जिससे आप मार्क्स बढ़वा सकते हैं, रिश्तेदार को क़र्ज़ दिलवा सकते हैं और अपने प्रिय को पद्मश्री। राम जाने ,इस प्रभाव का दायरा और दबदबा कहाँ तक फैला रहता है ? बिना कुर्सी पर बैठे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
Friday, October 25, 2024
हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं- रमानाथ अवस्थी
हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं
इस समय आपके शहर में हैं ।
हमने लोगों को ध्यान से देखा
सबके चेहरे में दर्द की रेखा ।
कोई खुलकर मिला नहीं हमसे
मौत के मेघ हर नज़र में हैं।
हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं
इस समय आपके शहर में हैं ।
मौत के सौदागर नहीं डरते
कहते हैं देश बाँट दो फिर से।
राजा से कह दो होशियार रहे
इनकी आँखें उसी के घर में हैं।
हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं
इस समय आपके शहर में हैं ।
हम मुसाफ़िर हैं हमें जाना है
जाते-जाते तुम्हें बताना है।
जंगली लोग हंस रहे हम पर
वैसे तो हम सभी नगर में हैं।
हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं
इस समय आपके शहर में हैं ।
शोर में डूबे हुए सन्नाटे
पूजा के घर में भजन के घाटे।
रोज़ ही क़त्ल हो रहा है अमृत
हम अमृत पुत्र सब जहर में हैं।
हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं
इस समय आपके शहर में हैं ।
कोई कुछ भी कहे नहीं सुनिए
रास्ता आप अपना खुद चुनिए।
ख़त्म होगी नहीं कहीं पर जो
हम उसी प्यार की डगर में हैं।
हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं
इस समय आपके शहर में हैं ।
-रमानाथ अवस्थी
गीत यहाँ पर सुना जा सकता है ।
शरद जोशी के पंच -18
1. राजनीति में फँसे आदमी की दुर्दशा साहित्य में फँसे आदमी से अधिक होती है।
2. नेतागीरी का पूरा धंधा विचित्र सहकारी स्तर पर , एक-दूसरे पर आधारित , जिसे परम हिंदी में अन्योन्याश्रित कहते हैं, चलता है। पहले नहीं था ,मगर आजकल तो है ही। बड़ा नेतृत्व छोटे नेतृत्व पर टिका रहता है और छोटा नेतृत्व बड़े नेतृत्व पर। दोनों मिलकर समाज और देश को एक क़िस्म के नेतृत्व की हवा में बांधे रहते हैं। जड़ें दोनों की नहीं हैं ,पर वे किसी तरह एक-दूसरे पर टिके हैं।
3. गहराई से सोचा जाए तो पब्लिक अयोग्य और अविश्वसनीय व्यक्तियों को नेता मान जैसे-तैसे प्रजातंत्र क़ायम रखे है और सौभाग्य है कि उनमें कुछ अच्छे भी हैं।
4. एक बार आप राजनीति में फँस गए तो कारवाँ के साथ कुत्ते की तरह दुम हिलाते, दबाते, घिसटते, थकते, चलने के अलावा कोई ज़िंदगी नहीं रह जाती।
5. प्रदूषण को लेकर हमारी जो नीति और कार्य-प्रणाली है , साम्प्रदायिक मनमुटाव दूर करने के मामले में भी वही है। मतलब, हवा में थोड़े-बहुत जहर का घुलना हमें अनुचित नहीं लगता। उसे हम सहज-स्वाभाविक मान टाल देते हैं।
6. हर शहर में एक-दो कारख़ाने हवा में जहर घोलते हैं, व्यवस्था सहर्ष और सगर्व उन्हें ऐसा करने देती है। पर्यावरण विभाग को चिंता तब सताती है ,जब ज़हर अच्छा-ख़ासा घुल चुका होता है। हमारे देश में नालियों को नियमित करने की व्यवस्था है, नदियों को साफ़ करने की नहीं। नदी को हम शुद्ध-पवित्र मानकर चलते हैं।
7. यह चिंता तो सभी धर्मगुरुओं और भक्तों को रहती है कि चढ़ावा ज़्यादा चढ़े और धार्मिक कोष में वृद्धि हो। मगर उसके लिए बैंक लूट लेना, दुकानों या घरों में घुस कर नक़दी या ज़ेवर बटोरना, धर्म की सेवा के नए आयाम हैं , जो इन्हीं वर्षों में विकसित हुए हैं।
8. जो कुछ होना है, वह हो चुका होता है ,तब खबर के साथ एक पुछल्ला , एक जुमला या एक वाक्यांश हमेशा रहेगा कि स्थिति नियंत्रण में है।
9. किसी ने पूछा कि स्थितियाँ कहाँ हैं ? तो वह यदि अफ़सर हुआ तो कहेगा , नियंत्रण में हैं। नियंत्रण एक हास्टल है स्थितियों का। स्थितियाँ बाहर जाती हैं, जैसे गर्ल्स हास्टल की लड़कियाँ घूमने निकलें और वापस लौट आती हैं। उन्हें नियंत्रण में ही रहना है। दिन-दिन में नियंत्रण से बाहर गईं। रात तक लौट आईं। जैसे ही कर्फ़्यू लगा, स्थिति नियंत्रण में आ गई। कहाँ जाती? कर्फ़्यू में घूम-फिर तो सकती नहीं थीं।
10. लूटपाट ,हत्या, घमकियाँ, आतंक, भय, दंगे, चोरी ,तस्करी, डकैती, बलात्कार, मारपीट, लाठी, गोली, गिरफ़्तारी, ज़मानत, फ़ायर होने आदि खबरों में यह कितने सुकून और हौसला देने वाली बात है क़ि स्थिति नियंत्रण में है, मामले की सरगर्मी से जाँच हो रही है और कड़ा कदम उठने वाला है। सच कहा जाए तो आज भारतीय नागरिक इन वाक्यांशों , इन जुमलों के सहारे ही साँस ले रहा है।
Thursday, October 24, 2024
बेईमान क्यों हो जाती है नौकरशाही?
बेईमान क्यों हो जाती है नौकरशाही?
यह शीर्षक है उस किताब का जिसे उत्तर प्रदेश में सेवा के अधिकारी रहे डा. हरदेव सिंह जी ने लिखा था। उन्होंने अपनी सरकारी सेवाओं के विविध अनुभवों का ज़िक्र करते हुए नौकरशाही के बेईमान हो जाने के कारणों की पड़ताल की थी। सरकारी सेवा में आने से पहले हरदेव सिंह जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र की पढ़ाई की थी इसलिए उनके विवरणों में दर्शन के आधार पर व्याख्याएँ भी थीं।इस किताब का ज़िक्र स्माल आर्मस फ़ैक्ट्री में हमारे महाप्रबंधक रहे Suresh Yadav जी ने किया था। उन्होंने बताया था कि फ़ील्ड गन फ़ैक्ट्री में पोस्टिंग के दौरान उन्होंने वहाँ के राजभाषा विभाग में उपलब्ध यह किताब पढ़ी थे।
मैंने किताब की खोज तो बाज़ार में मिली नहीं। किताब वाणी प्रकाशन से छपी थी। फ़ील्ड गन फ़ैक्ट्री के राजभाषा विभाग से किताब पढ़ने के लिए मँगवाई। किताब में जगह-जगह कई प्रसंगों को अंडरलाइन किया गया था। Suresh Yadav सर ने किताब पढ़ते हुए ऐसा किया था।
किताब इतनी अच्छी लगी थी मुझे कि उसको लौटाने के पहले मैंने उसको फोटोकापी करा के रख ली थी- बाद में पढ़ने के लिए। अभी वह किताब मेरे घर में ही कहीं किताबों के बीच है। कहाँ है खोजना है उसे।
नौकरशाही के बेईमान होने के कई कारणों का ज़िक्र करते हुए हरदेव सिंह जी ने एक कारण पारिवारिक भी बताया था। उनका मानना था कि सिविल सेवाओं में आम तौर पर गरीब, मध्यम वर्गीय घरों के प्रतिभाशाली, मेहनती बच्चे आते हैं। जैसे ही उनका चयन इन सिविल सेवाओं में होता हैं, उनको सम्पन्न, ऊँचे पदों पर तैनात लोग अपनी बेटियों के लिए चुन लेते हैं। अपनी बेटियों की शादी उनसे करा देते हैं।
नौकरशाही में काम करने के दौरान अधिकारियों को जनहित में कई अप्रिय फ़ैसले लेने पड़ते हैं। अक्सर उन फ़ैसलों से सत्ता के हित प्रभावित होते हैं। ऐसे में अधिकारियों को कई तरह से प्रताड़ित करना अब आम बात हो गयी है। उनका तबादला, प्रतिकूल प्रविष्टि और अन्य तमाम साज़िशें होती हैं। पहले ऐसे अधिकारियों को उनके वरिष्ठ अधिकारी बचाते थे। बदलते हालत में वे भी इसी खेल में शामिल हो गए हैं।
हरदेव सिंह जी का मानना है कि अधिकारी स्वयं तो इन अभावों, कष्ट साध्य जीवन जीने के आदी होने के कारण ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों का आसानी से मुक़ाबला कर सकता है लेकिन उनका परिवार जिसको अपने बचपन और बाद में आराम तलबी के जीवन की आदत पढ़ चुकी होती है ये कष्ट झेलने की आदत नहीं होती। अधिकारी अपने परिवार को परेशान नहीं देख पाते। इस परेशानी से बचने के लिए वे ऐसे निर्णय लेने से बचते हैं जिनके कारण उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही की आशंका हो और उनका परिवार कष्ट झेले ।
अधिकारियों की इस तरह की प्रताड़नाओं के अनेक उदाहरण हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरागांधी जी के ख़िलाफ़ निर्णय सुनाने वाले जस्टिस खन्ना को आगे पदोन्नत नहीं किया गया। ऐसा सुनने में आता है कि उन्होंने फ़ैसला सुनाने वाले दिन अपनी पत्नी से कहा था -'आज मैं यह फ़ैसला सुनाने जा रहा हूँ, अब मेरा आगे प्रमोशन नहीं होगा।' उनका परिवार उनके साथ था।
आज तमाम न्यायाधीशों के लोगों के नाम किसी को भले याद न हों लेकिन जस्टिस खन्ना का नाम आदर से लिया जाता है। एक ऐसा न्यायाधीश जिसमें तत्कालीन सत्ता के ख़िलाफ़ फ़ैसला लेने की हिम्मत थी।
हरदेव सिंह जी ने जब यह किताब लिखी थी तब उनके सामने उदाहरण के लिए केवल परिवार ही था। वे मानते थे कि परिवार के लोगों के कारण अधिकारी अपने उसूलों से समझौता करते हैं।
गए वर्षों में इसमें परिवार के साथ स्वयं अधिकारी भी शामिल हो गए हैं। उनको अपने सेवा काल के साथ सेवा के बाद भी आरामतलब जिंदगी का लालच हो गया है। इसीलिए सर्वोच्च पदों पर पहुँचने के बाद वे रिटायर होने के बाद भी कोई अच्छा माना जाने वाला पद पाने के लिए सत्ता की चापलूसी करते हैं। उसके हिसाब से निर्णय लेते हैं। काम करते हैं। ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि भविष्य में उनको, बावजूद तमाम प्रतिभा और ज्ञान के, एक अवसरवादी, चापलूस अधिकारी के रूप में ही याद किया जाएगा।
अपने 36 साल के सेवाकाल में मैंने ऐसे तमाम लोगों को देखा जो व्यक्तिगत तौर स्वयं बहुत अच्छे, ईमानदार अधिकारी थे लेकिन अक्सर ग़लत बात का विरोध करने से बचते रहे ताकि उनके आगे की राह में रोड़े न आएँ। दुनियावी सफलताएँ तमाम बलिदान भी माँगती हैं।
पिछले दिनों अपने न्यायाधीश महोदय के बाबरी मस्जिद के निर्णय के समय ईश्वर की शरण में जाने वाला बयान और उस पर जस्टिस काटजू जी का मत सुना तो किताब में वर्णित यह प्रसंग याद आया। जस्टिस काटजू ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा -' भगवान वाली बात सही नहीं है। फ़ैसले के पीछे न्यायाधीश महोदय का करियरिस्ट होना है।' ( माननीय जस्टिस काटजू साहब की बातचीत की कड़ी टिप्पणी में है)।
आज दुनिया एक बाज़ार में तब्दील हो चुकी है। इंसान भी आइटम में बदलता जा रहा है। उसको भी अपनी क़ीमत चाहिए - जितनी मिल जाए, जितने में निकल जाए। कानपुर के गीतकार 'अंसार कंबरी' कहते हैं:
'अब तो बाज़ार में आ गए 'कंबरी'
अपनी क़ीमत को और हम कम क्या करें?'
ऐसे विकट समय भी तमाम ऐसे लोग हैं सब जगह जो बिकने से इंकार करते हैं। अपने उसूलों से समझौता नहीं करते। इसकी क़ीमत भी चुकाते हैं।
ऐसे लोगों से ही दुनिया ख़ूबसूरत बनी हुई है।
Wednesday, October 23, 2024
ज़रा बच कर रहो बे
जो दिखाई देता है सबको, वो सब सच मत कहो बे,
बड़ा बवाल समय है चल रहा , ज़रा बच कर रहो बे।
उकसा रहे हैं आज जो तुमको , कल वही फँसा देंगे ,
लीडरों, हुक्मरानों से, दूर का रिश्ता ही भला है बे ।
धमकाता रहता है हरदम ही ,दीगर अवाम को
बड़ा कमसिन दिमाग़ , बुज़दिल रहनुमा मिला है बे ।
-कट्टा कानपुरी
शरद जोशी के पंच -17
1. नेताओं के सामने दो विकल्प हैं। या तो आप उनसे पार्टी मज़बूत करा लो या सरकार। वे दोनों एक साथ मज़बूत नहीं कर सकते।
2. पद्मश्री पर शहद लगाकर चाटा जाए तो शहद बड़ा फ़ायदा करता है। पद्मश्री के बहाने शहद चाटने में आ जाएगा।
3. कुछ लोग इस योग्य हो जाते हैं कि पद्मश्री के अलावा किसी योग्य नहीं रहते।
4. ख़ुशी की बात यह है कि पद्मश्री के बाद आदमी किसी काम का नहीं रहता और पद्मश्री उसे किसी काम का नहीं रखती। बल्कि उसे के पद्मश्री इस बात के लिए मिलनी चाहिए कि उसने पद्मश्री मिलने के बाद कुछ नहीं किया।
5. सहन करें क्योंकि सहन करने के अलावा हम क्या कर सकते हैं ? हम सहनशीलता के नमूने हैं। जिन्हें कुछ करना चाहिए, वे सहनशीलता के और बड़े नमूने हैं। हमारी रीढ़ पूरी तरह झुकी हुई कितनी खूबसूरत लगती है।
6. महंगाई एक ऐसी आग है जिसके बुझने का डर बना रहता है। वातावरण में ऊष्मा बनाए रखने के लिए सरकार और व्यापारी निरंतर उसकी आँच उकसाते रहते हैं। वस्तु का सम्मान बनाए रखने के लिए लगातार कोशिशें जारी रहती हैं। अभाव बना रहे ,तो भाव बने रहते हैं।
7. महंगाई से आदमी को अपनी औक़ात का पता चलता है। आदमी जितना ऊँचा है, महंगाई उससे ऊँची रहती है।
8. अधिकांश लोग जब अपनी आर्थिक ऊँचाई से महंगाई की ऊँचाई नापते हैं, उन्हें लगता है कि वे ताड़ के वृक्ष के नीचे खड़े हैं।
9. आज़ादी के बाद एक अद्भुत आर्थिक संसार विकसित हुआ है। आदमी वस्तुओं को देखता है और ठिठका हुआ खड़ा रहता है। अधिकांश भारतवासियों के पास केवल सड़क पर चलने के अधिकार हैं। उनके दुकानों में घुसने के अधिकार समाप्त हो गए हैं।
10. पेट्रोल के दाम बढ़ने से टैक्सी का भाड़ा बढ़ा। गरीब तो टैक्सी में बैठता नहीं। देश में असली गरीब के पास तो लोकल ट्रेन या बस में चलने के भी पैसे नहीं। सब्ज़ी महँगी होगी। गरीब सब्ज़ी खाता ही नहीं। गरीब आदमी को इस हालत में पहुँचा दिया गया है कि उसका मंहगाई से संबंध ही नहीं रहा।
अदालती फ़ैसले
प्रसिद्ध कथाकार हृदयेश जी शाहजहांपुर की अदालत में काम करते थे। अदालत के अनुभव के आधार पर उनका लिखा उपन्यास 'सफ़ेद घोड़ा काला सवार' भारतीय न्याय व्यवस्था पर लिखा और उसकी पोलपट्टी खोलने वाला अद्भुत उपन्यास है। इस उपन्यास में छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से अपने देश की अदालतों में हो रहे न्याय के प्रहसन पर सटीक कटाक्ष किए गए हैं।
Monday, October 21, 2024
शरद जोशी के पंच -16
1. अधिकांश भारतवासियों के लिए अब एक जगह से दूसरी जगह, एक चलता-फिरता प्रधानमंत्री ही राष्ट्र-गर्व का मामला रह गया है। उसे देखते रहिए और सीना फुलाए रहिए कि हमारा भी एक देश है।
2. सोचने वाले सौभाग्य से ,गहराई से नहीं सोचते अन्यथा पागल हो जाएँ कि देश में पहले क्या मज़बूत होना चाहिए। उनमें अधिकांश अपनी पार्टी मज़बूत करने में और पार्टी से ज़्यादा कुर्सी मज़बूत करने में लगे रहते हैं। उनका जीवन -दर्शन यह है हमारी पार्टी चुनाव में जीतती रहे और हम पद पर बने रहें तो समझिए , सब मज़बूत है।
3. बड़ी जल्दी हमें इस देश को एक प्लेटफ़ार्म मान लेना होगा, जहां हर नागरिक को अपने इरादों की रेल पकड़ने का हक़ है। जितने यात्री समूह ,उतनी मंज़िलें। कोई ब्राउन सुगर बेच रहा है , कोई रैली निकाल रहा है, कोई बम बना रहा है। सबके अपने धार्मिक इरादे हैं। और देश की सरकार न हुई एक धंधा करने वाली औरत हुई कि चूँकि उसे वोट लेने हैं , यश बटोरना है, कुर्सी पक्की रखनी है ,प्रगतिशील कहलाने की मजबूरी में सहिष्णु रहना है , सब कुछ सहन कर रही है।
4. बड़ों के प्रेम-प्रसंग अधिक देर तक छिपे नहीं रहते या बड़े देशों के सुरक्षा के रहस्य दूसरे बड़े देशों को फ़ौरन लीक हो जाते हैं। लीक इसलिए होते हैं, क्योंकि जो लीक हो सकता है वह अवश्य लीक होता है।
5. हिंदू धर्म के प्रभाव का क्षितिज चाहे दिन-प्रतिदिन सिमट रहा हो ,पर हिंदू धर्म के महंत, मठाधीश स्वामियों के प्रभाव का क्षितिज भारतीय सीमा से कहीं आगे है। किसी भी गुरु से पूछो तो वह कहेगा कि ईमानदार चेले और समर्पित चेलियां भारत में आजकल मिलते कहाँ हैं?
6. शिक्षा एक ऐसी बिगड़ी मोटर है, जिसके उन हिस्सों को भी सुधारना या बदलना है , जो नए लगे हैं। और न सिर्फ़ मोटर बल्कि ड्राइवर में भी सुधार करना है, बल्कि हो सके तो ड्राइवर भी बदलना है।
7. अजीब गाड़ी है शिक्षा की, इसमें सब कुछ बदला जाना है। टूटी-फूटी इमारत फ़र्नीचर, पाठ्यक्रम, पढ़ाने की शैली , पढ़ाने की भाषा, पढ़ाने वाले, सामने खेलने का मैदान ,प्राप्त सुविधाएँ, दोपहर का नाश्ता ,टंकी का ख़राब पानी, बल्कि कुछ शिक्षकों और हेडमास्टरों से पूछो तो वे अपने छात्र बदलना चाहेंगे।
8. छिपाने के कौशल में हम भारतवासी संसार के देशों से कहीं आगे हैं। एक अभिनेत्री दूसरी अभिनेत्री से अपने प्रेम की जलन छिपाती है। एक कांग्रेसी दूसरे कांग्रेसी से अपना कुर्सी प्राप्त करने का इरादा छिपाता है। हीरो अपना प्रेम छिपाता है, सुंदरियाँ अपने को अधिकांश छिपा जाती हैं।
9. हमारे देश में अधिकांश लोगों की प्रतिभा कुछ न कुछ छिपाने में लगी रहती है। कुछ लड़कियाँ अपनी कविताओं को छिपाकर रखती हैं, जैसे वे प्रेम पत्र हों, जिनके लिखे जाने से पहले उनके छिपाए जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।
10. भारतीय प्रेमी-प्रेमिका की दूसरे से शादी हो जाती है, वे अपने मन की बात व्यक्त कर ही नहीं पाते। पति-पत्नी एक-दूसरे को चाहते हैं यह बात भी मोहल्ले वालों को सारे जीवन पता नहीं चल पाती। वे सोचते हैं कि बाल-बच्चेदार हैं तो चाहते ही होंगे।
Saturday, October 19, 2024
शरद जोशी के पंच -15
1. सुरक्षा गरीब देश का अधिकार है, जिसे क़ायम रखने के लिए अमेरिका सबको लड़ने के लिए ज़रूरत-बे-ज़रूरत शस्त्र देता है।
2. किसी देश के नेता और वहाँ की सरकार अपने को असुरक्षित मानना स्वीकार न करे तो गरीब देशों के सुरक्षा हितों को सही गहराई में समझने वाला अमेरिका सी.आई.ए. स्तर से प्रयत्न कर वहाँ की सरकार उलट देता है और एक ऐसी सरकार या डिक्टेटरशिप उत्पन्न करता है जो अपने गरीब देश के सुरक्षा हितों को प्राथमिकता दे, अमेरिका से शास्त्र माँगने लगती है।
3. जब चंदा बढ़ने लगता है ,तो उसे धंधे में लगाना पड़ता है।
4.वाणिज्य करने वाले बड़े चतुर , व्यावहारिक समझे जाते हैं। इसका मतलब है, लक्ष्मी सरस्वती के बेटों पर कृपा न करती हो, पर सरस्वती लक्ष्मी के बेटों पर कृपा करती है।
5.समाज सेवी जहां कम्बल बाँट गए, स्थानीय नेता वहाँ से वोट ले गया और पुलिस वाला वहाँ से हफ़्ता ले गया। अपराध अपनी जगह क़ायम रहा। झोपड़ी बनी रही।
6. बड़े लोगों में मनोवैज्ञानिक विकृतियाँ होना कोई आश्चर्य नहीं।
7. मोहल्ले में जो पैसा फूंक दीपावली मंगलमय नहीं बनाता ,लोग उसे थोड़ी हिक़ारत की नज़र से मुस्कराकर देखते हैं। औरतें ज़ेवरों से लदी हैं, पूरा राष्ट्र ज़ेवरों से लदा मिठाई खा रहा है। कोई दीपावली के दिन हमें देखकर नहीं कह सकता कि हमारे बदन में प्रोटीन और विटामिन की कमी है।
8. ऊँचे और पुख़्ता भवन बिना चोरी की कमाई के नहीं बनते। भवन का आधा हिस्सा सफ़ेद कमाई से बना हो, पर बाक़ी आधा बिना काली कमाई के पूरा नहीं होता।
9. बड़ा घर बनाने वाला बड़ी चोरी करता है और छोटा घर बनाने वाला छोटी चोरी।
10. इस देश में जो भी जल्दी सोकर उठता है ,वह स्वयं को नैतिक दूसरों से अधिक बलवान मानता है।
Tuesday, October 15, 2024
ब्लिंकइट मतलब -पलक झपकते
घर का सामान आमतौर पर हम ही लाते हैं। बाज़ार पास है। टहलते हुए चले जाते हैं। ले आते हैं। काफ़ी सामान कैंटीन से भी आ जाता है। जो सामान यहाँ नही मिलता उसके लिए मॉल चले जाते हैं। घर का सामान आनलाइन नहीं ही मंगाते हैं।
दो दिन पहले चना और कुछ और सामान लाना था। हमने जाने में कुछ देर की। तब तक बेटे का फ़ोन आ गया। बातचीत में उसको पता चला कि ये सामान लाना है तो उसने कहा -'अभी आर्डर कर देते हैं। दस मिनट में आ जाएगा।'
खाने-पीने का सामान, केक वग़ैरह बच्चे पहले भी मंगाते रहे हैं आनलाइन आर्डर करके। लेकिन दाल-चना परचून की दुकान वाली चीजें नहीं मंगाई गयीं थी अब तक।
बच्चे ने सामान आर्डर कर दिया। 'ब्लिंकइट' एप से। लिंक हमको दे दिया। बताया दस मिनट में आ जाएगा सामान। दस मिनट में सामान घर आ जाना एप के नाम को ही सार्थक करता लगा। 'ब्लिंकइट' मतलब -पलक झपकते।
दस मिनट से कुछ पहले ही डिलीवरी बालक का फ़ोन आ गया। वह मेरे घर से क़रीब दो किलोमीटर दूर था। फ़ोन किया तो मैंने उसको रास्ता बताया। वह आया तो मैंने उससे पूछा -' पता तो यहाँ का दिया था। दो किलोमीटर दूर कैसे पहुँच गए?'
बालक ने बताया कि लोकेशन वहीं की दिखा रहा था। इसीलिए वहाँ पहुँच गए।
बालक से ब्लिंकइट के काम करने के तरीक़े के बारे में पूछा तो पता चला -'पास ही आवास-विकास में बड़ा स्टोर है। आर्डर मिलते ही डिलीवरी बालक सामान लेकर लपकते हैं पहुँचाने के लिए। दस मिनट में डिलीवर हो जाता है। दस मिनट में नहीं डिलीवर होता है सामान तो कारण बताना पड़ता है।
बालक की मोटरसाइकिल पर ढेर धूल जमी थी। हमने कहा -'साफ़ रखा करो।' तो बोला बालक -'समय ही नहीं मिलता।'
समय न मिलने की कहानी बताते हुए बोला बालक -'काम बहुत करना पड़ता है। सुबह से शाम तक डिलिवेरी करते हैं। कम्पनी वाले पैसा बचाने के लिए लड़के कम रखते हैं।
सामान देकर बालक चला गया। हमको एक नई सामान सेवा की जानकारी हुई।
शाम को एक और सामान का आर्डर किया बेटे ने। सुबह यह रह गया था। सामान देने के लिए आया बालक फिर दो किलोमीटर दूर था। पता यहाँ का था लेकिन लोकेशन दो किलोमीटर दूर की। डिलीवरी बालक ने कहा -'लोकेशन यहाँ की ही है। आपके घर कैसे आएँ?'
हमने रास्ता समझाया। लेकिन बालक अपनी परेशानी बताता रहा। उसकी समस्या यह भी थी या सही समझे तो यह ही थी कि दो किलोमीटर अतिरिक्त चलने में हुए तेल का भुगतान कौन करेगा?
हमने कहा -'आ जाओ। देख लेंगे।'
बालक आया। सामान लेने के बाद हमने पूछा -'पता तो यहीं का है। तुम क्या वहाँ डिलीवर कर देते जहां लोकेशन के हिसाब पहुँचे थे ?'
उसने कहा -'आपकी बात सही है लेकिन हमको भुगतान लोकेशन के हिसाब से होता है। लोकेशन से अलग डिलीवरी करने पर तेल का पैसा अपने पास से लगता है। '
पता चला कि बेटे ने चूँकि बाहर से आर्डर किया था सामान इसलिए लोकेशन और पते में अंतर था। अगर हम करते घर से आर्डर तो लोकेशन और पता एक रहता।
बेटे ने चार सौ किलोमीटर दूर से किया था आर्डर। चार सौ किलोमीटर दूर से आर्डर करने पर लोकेशन और पते में दो किलोमीटर का अंतर आया। मतलब ब्लिंकइट एप में 0.5% की शुद्धता से दूरी का हिसाब करता है।
बालक ने बताया कि वह यह काम करते हुए पढ़ाई भी करता है। कुछ कंपटीशन की तैयारी भी कर रहा है। उसकी बहन भी नर्सिंग का कोर्स कर रही है। दोनों साथ रहते हैं। संघर्ष है लेकिन मेहनत जारी है।
आर्डर के हिसाब से एक डिलिवरी के लिए बालक को तीस रुपए मिलने थे। हमने आपने वायदे के मुताबिक़ उसे दे दिए। वह चला गया।
बालक के जाने के बाद हम काफ़ी देर से इस बारे में सोचते रहे कि आज हर काम के लिए सेवाएँ उपलब्ध हैं। आप पैसा खर्च कीजिए हर सुविधा आपके पास हाज़िर है। पैसे के ज़ोर पर लोग अपनी सरकार तक बनवा ले रहे हैं। एक से एक बदमाश लोग मसीहा बने बैठे हैं इधर-उधर के पैसे के बल पर।
लेकिन वो लोग क्या करें जिनके पास पैसे नहीं हैं? जिनके लिए ज़िंदगी जीना ही मुहाल है वे कौन सी सेवा लें? काश कोई ऐसा एप होता जो लोगों की न्यूनतम ज़रूरतों का इंतज़ाम करने में सहायक होता।
लेकिन हमारे सिर्फ़ सोचने से क्या होता है ? दुनिया तो अपने चलन के हिसाब चलती है।
Sunday, October 13, 2024
शरद जोशी के पंच -14
1. हमारे प्रजातांत्रिक देश में एक बड़ी सुविधा है कि आप महात्मा गांधी से सहमत होकर सत्तारूढ़ पार्थी चला सकते हैं और इसी महात्मा गांधी से सहमत होकर विरोधी दल बना सकते हैं।
2. मुझे बीड़ी पीता आदमी एक खादी पहने व्यक्ति से ज़्यादा गांधीवादी लगता है। इसमें भारतीय आत्मनिर्भरता है। बीड़ी की टेक्नोलाजी और पैकिंग, जिसे हम बंडल कहते हैं, भारत में परम्परा से विकसित टेक्नोलाजी है।
3. भ्रष्टाचार से परिचय बाल्यकाल में हो जाता है। जन्म लेते ही बच्चे को पता लग जाता है कि नर्स को कुछ लिए-दिए बिना उसकी सफलता से जचकी नहीं हो पाती।
4. पिछले वर्षों में व्यवस्था में मनुष्य के जीवन की सारी सुविधाएँ कम करते और छीनते हुए बाज़ार उपभोक्ता सामग्री से पाट दिया है। रिटायर्ड अफ़सर भी चैन से नहीं बैठता। वह प्राइवेट पार्टी के चक्कर काटता, चंद रुपयों के लिए सरकारी रहस्य बेचता, अपने पुराने प्रभाव को भुनाते हुए टेंडर मंज़ूर करवाता फिरता है। नौकरियाँ तलासता रहता है ,ताकि जीवन की सुरक्षा बनी रहे और जीवन की और ऐश की सामग्रियाँ ख़रीदी जा सकें।
5. जगह और परिस्थितियाँ पक्ष में हों ,तो शासन करने वाला हद दर्जा नीच हो सकता है।
6. जिसमें ख़रीदने की ताक़त होती है, उसका कभी कुछ नही बिगड़ता।
7. संसार के सभी देश एक कोण से दुकान होते हैं।
8. लू चली तो लोग मरे, ठंड बढ़ी तो लोग मरे, बाढ़ आयी तो कुछ डूब गए, तूफ़ान आया और इतनी मौतें हुई, प्रकृति संबंधी हर सूचना इस देश में मृत्यु की सूचना है।
9. हमारे देश में हेलिकाप्टर का यही महत्व है कि बाढ़ का तांडव देखा जाए। पानी जब जमा हो जाए तब उस पर आंसू बरसाकर पानी का स्तर और उठाया जाए।
10. सड़क से लेकर जंगल तक हमने आदमी को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। किसी के मरने से हमें कमी महसूस नहीं होती। हमारे देश के बड़े लोग शायद उसे माल्थस के सिद्धांत के अनुसार ज़रूरी और सही मानते होंगे।
11. सरकार यह मानकर चलती है कि मौसमी मौतें तो होंगी। जब सब कुछ नष्ट होने के साथ मौतें भी होंगी, तब हम भोजन के पैकेट गिराएँगे। जीवित को बचाने के लिए नहीं, मृतकों का श्राद्ध करने के लिए। हमारी यह संवेदना है, यही संस्कृति है।
एक युवा के साथ कुछ देर
Saturday, October 12, 2024
शरद जोशी के पंच -13
1. भारत व्यवस्थित रूप से अव्यवस्थित देश है। यहाँ आप जहां-जहां व्यवस्था देखेंगे,वहीं-वहीं अव्यवस्था उतनी अधिक देखेंगे। आप निश्चित नहीं कर पाएँगे कि आप जो देख रहे हैं ,उसमें व्यवस्था क्या है और अव्यवस्था कितनी है।
2. जहां बिना हड़ताल का डर बताए मज़दूरों को मंहगाई-भत्ता न देना रिवाज बन गया है, जहां मध्यम तबके के कर्मचारी कभी इज्जत नहीं पाते और जहां मैनेजमेंट कभी मानवीय दृष्टि से नहीं देखता ,वहाँ आप जापान छोड़ कोरिया के बराबर नहीं पहुँच सकते।
3. शिकायत की जाती है कि भारतवासी से पूरी तरह काम लेना कठिन है। पर कोई भारतवासी पूरी शक्ति से अपना श्रेष्ठ दे सके इसका बुनियादी इंतज़ाम भी नहीं है।
4. इस देश में मज़दूर को मजूरी करना आता हो या नहीं ,अफ़सर को अफ़सरी करना ख़ूब आता है। और इस अफ़सर में मानवीय तत्व का नितांत अभाव है।
5. इसे देश में बड़े पायेदार नेताओं की दो ही दुर्दशाएँ हैं। वे केंद्र में रहकर अपने राज्य के नाम पर रोते-झींकते रहें या राज्य के मुख्यमंत्री बन केंद्र के चरण पखारते रहें।
6. अधिक दहेज देना अपनी बहन या अपनी बेटी को अपने जीवन से सदा के लिए काट देने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
7. प्राचीनकाल में लड़कियाँ ब्याह देने के बाद भारतीय बाप वानप्रस्थ आश्रम में पड़ा संन्यास आश्रम के बारे में सोचने लगता था। कारण स्पष्ट है, नंगे को फ़क़ीर बनने की प्रेरणा आसानी से मिलती है।
8. महानगर का अर्थ गगनचुंबी इमारतें होता है, झोपड़ी नहीं। अमीरों को नौकर चाहिए पर नौकरों को घर दिए जाएँ ,यह मुनाफ़ों के अर्थशास्त्र के अनुकूल नहीं। ज़मीन की क़ीमत आदमी से ज़्यादा है। इमारत की क़ीमत इंसानियत से ज़्यादा है।
9. बम्बई बिल्डरों, मालिकों और धंधेबाज़ों का शहर है। हर कार्यालय उसकी एजेंसी है। रईसों का स्वार्थ जब व्यक्त होता है ,वह नगर की सुंदरता की बात करता है। वह नगर के पाप कम करने का जेहाद नहीं छेड़ता, वह नगर की सुंदरता की लड़ाई छेड़ता है।
10. जब सब बरबाद हो चुकेगा ,तब नेता अपने बिलों से निकलेंगे, दुःख-दर्द सुनेंगे, जुल्म पर आश्चर्य करेंगे। आश्वासन देंगे। तब राजनीति चालू होगी। गरीबों की सहानुभूतियां बटोरी जाएँगी ताकि वोटों की फसल उस मैदान से भी काटी जा सके ,जहां कभी झोंपड़े थे।
Friday, October 11, 2024
दशहरा मेला दिन में
सबेरे टहलने निकले। गेट के बाहर तीन गाएँ 'अनमन धरना मुद्रा' में बैठी ऊँघ सी रहीं थी। रात भर वहीं बैठी, सोयीं होंगी। गोबर के तीन-चार 'छोत' इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि गायों का कोई अलग शौचालय नहीं होता। जहां बैठ गयीं, वहीं निपट लीं। उनको हटाने की कोशिश की। दो तो तुरंत उठकर चल दीं। तीसरी वहीं बैठी रही। उसको बगलिया के सड़क पर आ गए। गायों को डिस्टर्ब करने में ख़तरा बढ़ गया है आजकल। क्या पता कई जानवर सोचते हों -'अगले जनम मोहे गईया ही कीजो।'
Thursday, October 10, 2024
शरद जोशी के पंच -12
रतन टाटा के अनमोल बोल
कल देश के जाने-माने परोपकारी उद्योगपति रतनटाटा का 86 वर्ष की अवस्था में निधन लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। स्व. रतन टाटा को विनम्र श्रद्धांजलि।
रतन टाटा के अनमोल बोल :
1. हम लोग इंसान हैं कोई कम्प्यूटर नहीं, जीवन का मज़ा लीजिए इसे हमेशा गम्भीर मत बनाइए।
2. जीवन में आगे बढ़ने के लिए उतार-चढ़ाव बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ईसीजी में एक सीधी रेखा का मतलब है कि हम जीवित नहीं हैं।
3. हम सभी के पास समान प्रतिभा नहीं है,लेकिन हम सब के पास समान अवसर हैं अपनी प्रतिभा को विकसित करने के लिए।
4. 'सत्ता' और 'धन' मेरे दो प्रमुख सिद्धांत नहीं हैं।
5. अगर आप तेज चलना चाहते हैं , तो अकेले चलिए लेकिन अगर आप दूर तक चलना चाहते हैं तो ,साथ-साथ चलें।
6. अगर लोग आप पर पत्थर मारते हैं तो उन पत्थर का उपयोग अपना महल बनाने में करें।
7. अच्छी पढ़ाई करने वाले और कड़ी मेहनत करने वाले अपने दोस्तों को कभी मत चिढ़ाओ। एक समय ऐसा आएगा कि तुम्हें उनके नीचे भी काम करना पड़ सकता है।
8. मैं सही फ़ैसले लेने में विश्वास नही करता। फ़ैसला लेता हूँ और फिर उसे सही साबित कर देता हूँ।
9. जिस दिन मैं उड़ान भरने में सक्षम नहीं हूँ , वो मेरे लिए एक दुखद दिन होगा।
10. टीवी जीवन का असली नहीं होता और ज़िंदगी टीवी सीरियल नहीं होती। असल जीवन में आराम नहीं होता ,सिर्फ़ और सिर्फ़ काम होता है।
11. अपना जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहता है , इसकी आदत डाल लो।
-हिंदी दैनिक हिंदुस्तान से साभार
Wednesday, October 09, 2024
फ़ेसबुक की सामुदायिक भावना
कुछ दिन पहले एक लम्बी पोस्ट लिखी थी। एक बातचीत का विवरण देते हुए रपट लिखी थी ।
शरद जोशी के पंच -11