Saturday, November 16, 2024

जीवन बदल देने वाली घटनायें

'जीवन बदल देने वाली घटनायें'  कानपुर के यायावर गोपाल खन्ना के जीवन के कुछ संस्मरणों का संकलन है। गोपाल खन्ना जी मूर्तिकला, चित्रकला, फ़ोटोग्राफ़ी ,काष्ठकला , रोमांचक भ्रमण एवं रोमांचक खेलों से जुड़े रहे हैं। काव्य एवं कथा लेखन से भी संबद्ध रहे है। घुमक्कड़ी से लम्बे समय तक जुड़ाव और विभिन्न अभियानों के चलते नाम के पहले यायावर स्थाई रूप से जुड़ गया। यायावरी से संबंधित लेख और संस्मरण भी लिखते रहे हैं। एकल एवं सामूहिक कला प्रदर्शनियों में प्रतिभाग करते रहे हैं। उनके    100 से अधिक मूर्तिशिल्प अमेरिका, कनाडा , इंग्लैंड , स्विट्ज़रलैंड ,दुबई ,पाकिस्तान व जापान आदि देशों के व्यक्तिगत संग्रहालयों में संग्रहीत हैं। 


 2008 में बैंक आफ बड़ौदा से सेवानिवृत्त 76 वर्षीय गोपाल खन्ना जी के संग्रह ख़ज़ाने ने 2000 से अधिक प्राचीन एवं समकालीन खिलौने , सिक्के , शंख , सीप ,पत्थर ,मेडल्स , पिक्चर पोस्टकार्ड और अनेक प्राचीन वस्तुएँ  शामिल हैं। निरंतर सृजन शील यायावर गोपाल शहर के लगभग हर सांस्कृतिक ,सामाजिक आयोजन में शामिल होते रहते हैं। उनकी सक्रियता अनुकरणीय है।

 खन्ना जी ने दो दिन पहले फ़ोन पर सूचित किया कि उनकी संस्मरण पुस्तक 'जीवन बदल देने वाली घटनायें' का विमोचन 15.11.2024 को यूनाइटेड पब्लिक स्कूल में होना हैं। आने का अनुरोध किया। हमने हामी भारी और जाने का तय किया।

यूनाइटेड पब्लिक स्कूल में दो साल पहले मृदुल कपिल की किताबों 'मोहब्बत 24 कैरेट' का भी  विमोचन हुआ था। वह किताब अपने में अनूठी है। 

कल समय पर पहुँचे। कुछ ही लोग आए थे उस समय तक। धीरे-धीरे सभागार भर गया।  कानपुर के  माननीय सांसद रमेश अवस्थी जी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। व्यस्तता के कारण वे थोड़ा विलम्ब से आए और कुछ देर सुनकर अपनी बात कहकर चले गए। 

कार्यक्रम में विभिन्न वक्ताओं ने किताब में सम्मिलित संस्मरणों के बारे में अपनी राय व्यक्त की। कुल जमा 110 पेज की किताब में कुल 57 संस्मरण हैं। अधिकतर संस्मरण गोपाल खन्ना जी के बचपन और नौकरी के समय के हैं। रोज़मर्रा के जीवन के ये संस्मरण  एक संवेदनशील मन के संस्मरण हैं। इनमें घर परिवार से जुड़े लोग हैं, दोस्त हैं, अध्यापक हैं, पड़ोसी हैं, बच्चे हैं , बुजुर्ग हैं। एक तरह के  'सामाजिक संदेश' हैं ये संस्मरण। 

वक्ताओं के विचार के बीच में माननीय सांसद जी का वक्तव्य हुआ। लगभग हार बात में माननीय प्रधानमंत्री जी और माननीय मुख्यमंत्री जी का ज़िक्र। राजनीति से जुड़े लोगों की यह मजबूरी सी होती है कि वे हर मंच को अपनी पार्टी के प्रचार के लिए उपयोग करें। सांसद जी ने शहर में नए पुस्तकालय खुलवाने की योजना बनाकर देने की बात कही। इस पर वहाँ मौजूद वक्ताओं में से एक सुरेश अवस्थी जी ने शहर के मौजूदा पुस्तकालयों जैसे मारवाड़ी पुस्तकालय, फूलबाग पुस्तकालय आदि के सुचारु संचालन की व्यवस्था करने का आग्रह किया। सांसद महोदय जी ने आश्वासन दिया। विदा हुए। 

 गोपाल खन्ना जी ने भी अपने किताब में सम्मिलित संस्मरण में से कुछ सुनाए। एक रोचक संस्मरण में उन्होंने बताया कि पहाड़ की एक यात्रा के दौरान उन्होंने एक युवा महिला का फ़ोटो खींचा था। उसको फ़ोटो भेजने की बात भी कही थी। किसी कारणवश फ़ोटो भेज नहीं पाए। भूल गए। फिर जाना नहीं हुआ। संयोगवश क़रीब बीस-बाइस साल बाद वहीं गए तो फ़ोटो साथ लेते गए। उस महिला की खोज की जिसकी फ़ोटो खींची थी उन्होंने। पता चला उसकी शादी हो गयी और वह कहीं दूर रहती है। लेकिन उसकी बेटी पास ही रहती है। बेटी से मुलाक़ात हुई। बेटी एकदम उसी तरह लग रही थी जैसी बीस बाइस साल पहले उसकी माँ दिखती थी। गोपाल खन्ना जी ने फ़ोटो बेटी को दे दिए कि वो अपनी माँ को देगी। विदा होने के पहले लड़की ने पूछा -'माँ से कुछ कहना तो नहीं है?' इसका कोई जबाब यायावर जी के पास नहीं था। 

और भी किस्से सुनाए गोपाल खन्ना जी ने। अच्छा लगा उनको सुनना। उनके संस्मरण एक उदात्त मन के सहज व्यक्तित्व के संस्मरण हैं। सभी में यह ध्वनित होता है कि दुनिया भले ही कितनी ही बदल रही हो , कितनी ही व्यावसायिक  मतलबी हो रही हो लेकिन आज भी संवेदनशील भावों का महत्व है। अच्छाई , उदारता और अच्छा समझा जाने वाला काम तुरंत करने के लिए प्रेरित करने वाले संस्मरण हैं 'जीवन बदल देने वाली घटनायें' में। 


हमने सोचा था कि समारोह के बाद किताब ख़रीदेंगे। लेकिन समारोह ख़त्म होने के पहले ही सभी को एक-एक किताब भेंट की गई। साथ में नाश्ता भी। 

घर लौटकर किताब पढ़नी शुरू की। कल रात से लेकर आज सुबह तक सभी   57 संस्मरण पढ़ लिए।    110 पेज की किताब 24 घंटे से कम के समय में पढ़ ली जाए यह अपने आप में उसकी पठनीयता और रोचकता का परिचायक है। सभी संस्मरण पाठक के जीवन से जुड़े संस्मरण लगते हैं। यह यायावर गोपाल खन्ना जी के लेखन की सफलता है। मैं इसके लिए उनको बधाई देता हूँ। 






Friday, November 15, 2024

शरद जोशी के पंच -22

 1. कुछ धक्के पाप की श्रेणी में नहीं आते। वे पुण्य की श्रेणी में आते हैं। उसे कहते हैं धरम-धक्का। मतलब, जब आप दर्शन के लिए ,प्रसाद लेने के लिए या नदी में स्नान करने के लिए दूसरों को धक्का देते हैं, तो वह धरम-धक्का कहलाता है।

2. अमेरिका के क्या कहने ! वह बड़ा पाक-साफ़ दूध का धुला है। वह छोटे-बड़े सभी शास्त्रों का प्रसारक है। हर जगह आग उसके ही भड़काए भड़कती है। उसकी एजेंसियाँ सर्वत्र मौत की सौदेबाज़ी और सुविधाएँ उत्पन्न करने में प्रवीण हैं। वह हत्यारा बनने की आकांक्षा पाले है। मौक़ा मिलते ही वार करता है। फिर भी वह न्यायाधीश की ऊँचाई पर बैठ अंतिम निर्णय देता है।

3.  छोटा आतंक ज़मीन पर खड़ा हथगोला फेंकता है, बड़ा आतंक समुद्र और आकाश से शहरों पर बमबारी करता है। 

4. जो कारण-अकारण, काम की बेकाम की , फिर चाहे समझदारी या मूर्खता की बात करता रहता है, उसकी नेतागीरी मज़बूत रहती है। 

5. इस देश की जनता से जुड़े रहने के लिए एक नेता को कितने अख़बारों में क्या-क्या नहीं कहना पड़ता है। पत्रकार को आते देख मुस्कराना पड़ता है, फ़ोटोग्राफ़र को आते देख गम्भीर होना पड़ता है। दूसरे दिन उस अख़बार में अपनी बात तलाशनी पड़ती है क़ि जो उसने कहा वह छपा या नहीं और जो छपा वह चमका या नहीं। 

6. नेता शब्दों के भूसे का उत्पादन करते रहते हैं और देश की जनता उनमें से एक समझदारी का, तथ्य का ,विचार का दाना तलाशती रहती है। 

7. भारतीय पत्रकार की यह दैनिक ट्रेजिडी है कि वह एक दाने की तलाश में नेता के पास जाता और शब्दों का भूसा लेकर कार्यालय लौटता है।

8. यह अजीब ट्रेजिडी  है कि इस देश में अपनी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए आदमी का लखपति होना ज़रूरी हो गया है।

9. जब स्टेशन की साफ़-सफ़ाई होने लगे तो समझिए ,रेलवे का कोई बड़ा अफ़सर मुआयने के लिए आ रहा है। 

10. अफ़सरों पर दोहरा भार है। जनता के साथ धोखेबाज़ी करो, उसे मूर्ख बनाओ , साथ में प्रधानमंत्री को भी धोखे में रखो ताकि उन्हें सचाई पता न लग सके। 

Thursday, November 14, 2024

शरद जोशी के पंच-21

 1. हमारा राष्ट्रीय स्वभाव है कि जब हम एक बार किसी को अपना शत्रु मान लेते हैं , तो फिर उससे लड़ते नहीं। समझौते का प्रयास करते हैं। 

2. यदि सरकार अपनी बुराई स्वयं न करे, तो लोग उसकी बुराई करने लगते हैं।

3. अख़बार की खबरें पढ़ना बावन पत्तों को बार-बार फेंटकर देखने की तरह है। हर पत्ता एक खबर है। उनमें से ही जैसे पत्ते निकल आएँ, वह आपका आज का समाचार से भरा अख़बार है। उन्हीं पत्तों की नई सजावट। चूड़ी के टुकड़ों से सजा एक नया फूल। आपके देश की ताज़ा तस्वीर , जो पुरानी तस्वीर से रंग चुराकर बनाई गई है। 

4. जब भी साजिश होती है, भांडे फूटते हैं, पत्रकार का मुँह बंद करने की उचित व्यवस्था की जाती है। यों मान जाए तो ठीक है, नहीं तो हाथ-पैर तोड़ देने से लाश ठिकाने लगा देने तक का सारा इंतज़ाम करना वे जानते हैं। 

5. सरकारें जो भी हों, मैं वित्तमंत्रियों से सदा प्रभावित रहा हूँ। उसे मैंने सत्ता के रहस्य-पुरुष की तरह महसूस किया है। वह कुछ करेगा। क्या करेगा , कह नहीं सकते मगर कुछ करेगा। हो सकता है, ग़लत ही करे, मगर किए बिना नहीं रहेगा। 

6. मुझे लगता है, कई बार ऐसे क्षण आए होंगे , जब क्रांति हो सकती थी, पर इसलिए नहीं हुई कि तभी वित्तमंत्री ने आलू-प्याज़ के भाव बढ़ा दिए और लोग बजाए क्रांति के आलू-प्याज़ पर सोचने लगे। इस तरह देखा जाए तो इतिहास-पुरुष होते हैं वित्त-मंत्री।

7.  आर्थिक क्षेत्र की सारी सारी गुत्थी इस दर्शन से सुलझ सकती है कि जो सफ़ेद कमाई करते हैं, वे टैक्स भरेंगे और जो काली कमाई करते हैं , सरकार उन्हें छूट देगी, क्योंकि सरकार काली कमाई से अपना कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। काली कमाई की सहायता से राजनीतिक पार्टी चल सकती है, मगर सरकार नहीं। 

8. पूरे देश में जो कुकरमुत्तों की तरह तथाकथित लघु उद्योग बने हैं , उनमें अधिकांश को न माल बनाना आता है और न बेचना आता है। उन्हें एक्साइज बचाना आता है। टैक्स न चुकाना आता है। इस क्षेत्र में कूद पड़ने की उनकी प्रेरणा भी यही रही है। यदि उत्पाद शुक्ल देना पड़े तो उन्हें स्वयं को बीमार उद्योग घोषित करते देर नहीं लगती।

9. आदिवासी की ओर देखो तो संस्कृति कम और ग़रीबी अधिक नज़र आती है। वे ज्ञानी-ध्यानी सचमुच बड़े बेरहम हैं, जो आदिवासियों में संस्कृति के दर्शन किया करते हैं। उनकी हालत देख , उनके साथ  बजाय नाचने के, जेब का पैसा बाँटने की इच्छा होती है। 

10. आम भारतीय नागरिक की ज़िंदगी ही धक्के खाने की है। अधिकांश का पूरा जीवन धक्के खाते बीत जाता है। स्कूल में एडमिशन के लिए धक्के खा रहे हैं, जवानी में नौकरी के लिए और बुढ़ापे में पेंशन के लिए। बम्बई का आदमी रोज लोकल ट्रेन में दोहरा धक्का सहन करता है। सामने से उतरने वाले धक्का दे रहे हैं, पीछे से चढ़ने वाले। पर लाइन लगवाने वाली सभ्यता ,पता नहीं , रेल के डिब्बों के दरवाज़े पर कहाँ ग़ायब हो जाती है। 

Tuesday, November 12, 2024

मोबाइल है या हथगोला

मोबाइल है या हथगोला
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सुबह चाय पी रहे थे। अचानक मोबाइल बजा। वीडियो काल थी। जिस नम्बर से काल आई वह हमारी सम्पर्क लिस्ट में नहीं था। नाम किसी महिला का दिखा रहा था। हम काल उठाने ही वाले थे। तब तक हमको तमाम ' साइबरिया' हिदायतें याद आ गयी। उनमें से एक यह भी थी -' किसी अनजान नम्बर से वीडियो काल नहीं उठानी चाहिए।'
इसके अलावा और भी तमाम लफड़े याद आ गए। हमने फ़ौरन फ़ोन काट दिया। याददाश्त को शुक्रिया किया।
बाद में देखा फ़ोन नम्बर भारत का था। नाम परिचित सा था लेकिन सम्पर्क लिस्ट में नहीं था।
ऐसा आजकल अक्सर होता है। आए दिन अनजान नम्बर से कई काल आते हैं। कभी बैंक के नाम पर, कभी बीमा के नाम पर। कभी क्रेडिट कार्ड के बारे में , कभी लोन के नाम पर।
क्रेडिट कार्ड का अलग मज़ा है। हमने कुछ ख़रीदारी की ताकि क्रेडिट कार्ड का उपयोग चलता रहे। जैसे ही ख़रीद की अगले ने फोनियाना शुरू किया -'आप इसका भुगतान आसान किस्तों में कर सकते हैं। मतलब EMI में।'
हमने हर बार कहा -'भईये, हमारे पास पैसे हैं। हम बिल आते ही भुगतान करेंगे।' लेकिन क्रेडिट कार्ड वाली मैडम हमको बार-बार समझाने पर तुली हैं -'जब एक सुविधा मिल रही है तब उसका उपयोग कर लेना चाहिए आपको।'
हम समझ नहीं पा रहे हैं कि क़र्ज़ में डूबे रहना कहाँ से फ़ायदे मंद है। आम इंसान को लगता है कि क़र्ज़ जितनी जल्दी निपट जाए उतना अच्छा। हम कोई ग़ालिब थोड़ी हैं जो क़र्ज़ की पिएँ और शेर लिखें:
"क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि
हाँ, रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन।"
सुना है अमेरिका में लोग सब कुछ ईएमआई पर ख़रीदते हैं। लेकिन हम अभी अमेरिका से 12369 किलोमीटर दूर हैं।
इसी तरह के संदेशे भी आते रहते हैं। कोई किसी बारे में कोई किसी बारे में। रोज तमाम तरह के लोन स्वीकृत होने के संदेश, क्रेडिट कार्ड जारी होने की खबर, कार चालान होने की खबर से लेकर सामानों के विज्ञापन, सूचना और न जाने क्या-क्या खबरें। ईमेल तो पूरी भर गयी ऐसी नोटिफ़िकेशन से। पिछले पाँच सालों में पाँच संदेश भी नहीं आए होंगे जो हमारे काम के हों। सब अगड़म-बग़ड़म संदेश। उस पर तुर्रा मेल से आता रोज का नोटिफ़िकेशन -'आपका फ्री मेल स्पेस ख़त्म हो गया है। मेल जारी रखने के लिए या तो नया स्पेस ख़रीदें या मेल में जगह ख़ाली करें।'
लगता है ये मेल वाले दुनिया भर का कूड़ा-करकट मँगवा के मेल बक्सा भर लेते हैं इसके बाद कहते हैं -'जगह ख़रीदों वरना मेल आने बंद हो जाएँगे।'
अजब दादागिरी है। रोज झाड़ू लिए मेल बक्सा ख़ाली करते रहो ताकि बाज़ार अपना कूड़ा हमारे मेल बक्से में भरता रहे।
आज तो दुनिया भर के नोटिफ़िकेशन मेल, वहात्सएप और दीगर रास्तों से मोबाइल में आता रहता है। दुनिया मुट्ठी में करने के बहाने अपन दुनिया की मुट्ठी में बंद हो गए हैं। हर पल टन्न-टन्न नोटिफ़िकेशन आते रहते हैं। घर वाले भन्न-भन्न भन्नाते रहते हैं। चौबीस घंटे की बेगार में लगा दिया है जैसे मोबाइल ने।
लोग कहते हैं कि सावधान रहो लेकिन कितना सावधान रहें? आजकल सब काम तो मोबाइल के भरोसे हो गए हैं। आप कोई सामना मँगवाओ तो डिलीवरी की सूचना मोबाइल पर आएगी। कुछ भी काम करो तो मोबाइल नम्बर ज़रूरी। लोगों के पास अपना आधार नम्बर भले न हो लेकिन मोबाइल नम्बर ज़रूर होगा। आज के दिन इंसान खाने बिना दिन भर भले रह ले लेकिन मोबाइल और नेटवर्क के बिना उसकी तबियत नासाज़ होने लगती है।
मोबाइल ने हमको जितना सूचना संपन्न बनाया है उतना ही डरपोक भी बनाया है। कहीं किसी प्रियजन का मोबाइल घंटे भर न मिले तो धुकुर-पुकुर , कहीं कोई अनजान नम्बर से काल आया तो संसय , फ़ोन उठाएँ तो डर और न उठाएँ तो चिंता कोई ज़रूरी संदेश ने छूट गया हो।
इन चिताओं से बचाव के कितने भी एसओपी बना लिए जाएँगे लेकिन इंसानी ज़ेहन से उसकी मैपिंग सबके लिए सम्भव नहीं। कहीं न कहीं चूक तो हो ही सकती है। हो ही जाती है।
संदेश नोटिफ़िकेशन वाली बात तो फिर भी बर्दाश्त हो जाती है। लेकिन ये जब से डिजिटल अरेस्ट , वीडियो कालिंग वाली खबरें सुनी हैं तब से लगता है हाथ में मोबाइल नहीं हथगोला लिए चल रहे हैं। हर अनजान काल से लगता है कि इसको उठाते ही हथगोले का पिन निकल जाएगा और हमको काम भर का घायल कर जाएगा।
ये लिखते समय एक अनजान नंबर से कॉल रहा है। समझ नहीं पा रहे कि उठायें कि न उठायें ।

Monday, November 11, 2024

शरद जोशी के पंच-20

1. एक जमाने में राजसूय यज्ञ करने वाले राजपाट छोड़ देते थे, और आज अनिश्चित कुर्सियों के इस देश में एक मुख्यमंत्री, जिसे सौ तिकड़म और उठा-पटक करने के बाद बतौर भीख और इनाम के मुख्यमंत्री पद मिलता है ,उसे त्यागते या निकाले जाते समय किटाने क्रियाकलाप करता है। अंतिम क्षण तक चिपके रहने की सम्भावना खोजी जाती है।


2. राजनीतिज्ञों की एक अदा है ,मौक़े पर चुप्पी मारना। कुछ लोग सिर्फ़ यह कहने के लिए पत्रकारों को बुलाते हैं कि मुझे कुछ नहीं कहना। 

3. राज्यों में भ्रष्टाचार बढ़ता रहता है और वहाँ का समझदार वर्ग मन ही मन सोचता रहता है कि कब मंत्रिमंडल बदले। वह एक बयान नहीं देगा, कोई पहल नहीं करेगा। लोग सच भी  स्वार्थवश  बोलते हैं। अपना कोई लाभ नहीं तो सच बोलकर क्या करना ?

4. हमारा राष्ट्रीय चरित्र खिलाड़ियों का नहीं, दर्शकों का रहा है। जो जीता उसे कंधे पर उठाया , जो हारा उसे हूट करने लगे। साफ़ नहीं चिल्लाकर कहते कि हम किसके साथ हैं। छत पर चढ़कर आवाज़ लगाने का साहस अपने घर पर पत्थर पड़ने के डर से समाप्त हो जाता है। 

5.  लोग जब अति चतुराई बरतने लगते हैं ,तब न बड़ी क्रांति होती है और न छोटी। छोटे परिवर्तन होते भी हैं तो विकल्प उतना ही व्यर्थ होता है। 

6. नए नेता को कुर्सी मिलने वाली है। कचरा- पेटी में से जिसे उठाकर इस कुर्सी पर बिठा दिया जाएगा , लोग हार-फूल लेकर उसकी तरफ़ दौड़ेंगे। राज्य के विधायक इतना तो कह सकते हैं कि हमें एक अच्छा मुख्यमंत्री दो। हम मूर्ख और भ्रष्ट को सहन नहीं करेंगे। पर इतना कहने से ही विद्रोही मुद्रा बनती है। भविष्य ख़तरे में नज़र आता है। जो भी मिल जाए ,स्वीकार है।

7. किसी भी प्रदेश में मुख्यमंत्रियों के कमी नहीं है। ग़ालिब एक ढूँढो हज़ार मिलते हैं। पर सारे मुरीद तो एक अदद कुर्सी पर लड़ नहीं सकते। मुख्यमंत्री का पद एक टूटी पुरानी कुर्सी है। लम्बा आरामदेह सोफ़ा नहीं। यदि संविधान में इस पद को सोफ़ा-कम-बेड बनाने की गुंजाइश होती तो आज उस पर कितने पसरे मिलते।

 8. मुख्यमंत्री चुनना सुंदरियों की भीड़ में एक अदद परसिस खंबाटा चुनने की तरह कठिन है। केंद्र से निर्णय फ़ीता लेकर आते हैं। सबकी राजनीतिक कमर नापते हैं। क़द, कोमलता ,मुस्कान और अन्य टिकाऊ गुण जाँचते हैं और घोषित करते हैं , यह रहा तुम्हारा भावी मुख्यमंत्री। 

9. मुहावरों के उपयोग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि लोग कथ्य से अधिक भाषा के चमत्कार में रुचि लेने लगते हैं। हम लेखक प्रायः यह ट्रिक अपनाते हैं। जब कहने की बात नहीं रहती तब हम शब्दों को अधिक रंगीन और ज़ोरदार बनाने की कोशिश करते हैं। 

10. अब काला धन सात तालों में है ही नहीं। अधिकांश काल धन खुले में घूमता , घुमाया जाता है, उपयोग होता नज़र आता है। खुली आँखों नज़र आता है। मसाले के पान , फ़ाइवस्टार के पैकेट, व्हिस्की की बोतल, शानदार पार्टी, पाँचतारा संस्कृति ,विदेशी माल, बेहतरीन कार और आलीशान इमारतों तक काला धन तालों में छुपकर बैठा नहीं, बल्कि लगभग नग्न अवस्था में दिखाई पड़ता है। 



Saturday, November 09, 2024

नवीन मार्केट की सड़क पर

 नवीन मार्केट की सड़क पर

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अपन जहां खड़े हैं वहां से सामने होटल लैंडमार्क दिख रहा है। होटल का नाम सफेद रंग में है इसलिए कम चमक रहा है। चमकने के लिए नाम या शख़्सियत का रंगीन होना जरूरी होता है। रंगीन चीज या इंसान अलग से चमकता है।
लैंडमार्क होटल शहर का प्रमुख होटल है। आठ-दस मंजिला होगा। दूर से मंजिलें एक के ऊपर एक रखे डब्बों जैसी दिखतीं है। होटल के नीचे कल्याण जी बेकरी की दुकान ,उसके नीचे BG Shop और उसके नीचे टाइटन की दुकान है। यहाँ से केवल TAN दिख रहा है।
ये सारी इमारतें एक के ऊपर एक खड़ी देखकर गाना याद आ रहा है:
'नीचे पान की दुकान, उप्पर गोरी का मकान।'
लैंड मार्क के सामने आल आउट का विज्ञापन दिख रहा है-' डेंगू मलेरिया के साथ चान्स लेंगे या all out? ' मतलब आल आउट भी असर करे यह चान्स की ही बात है। सबेरे अस्पताल में खून की जांच करने वाले स्टाफ ने बताया -'आजकल डेंगू/मलेरिया के मरीज बढ़ गए हैं।'
पता नहीं मरीजों ने किसके साथ चान्स लिया है?
क्या पता होटल में आये यात्री सामने ऑल आउट का विज्ञापन देखकर पूछते होंगे-'आल आउट कमरे के किराए में शामिल है कि अलग से चार्ज हैं उसके?'
गाड़ी किनारे खड़ी करके काफी देर वीडियो देखने के बाद 'चयास' लग आई। गाड़ी से उतरकर आसपास की टोह ली। सामने न्यू केसरवानी डोसा कार्नर वाले की दुकान दिखी। सोचा कि वहाँ चाय भी मिलती होगी। पता किया तो उसने सामने सड़क पार की तरफ इशारा कर दिया।
सड़क पार नुक्कड़ से रफूगरों की दुकाने दिखी। सब रफूगर बलिया वाले। फोटो खींचने के लिए कैमरा सामने किया तो नुक्कड़ पर मोटरसाइकिल पर बैठा ट्रैफिक पुलिस का होमगार्ड तेजी से मोटरसाइकिल से उतरा। हमें लगा कहेगा -'बिना पूछे फोटो कैसे खींच रहे?' यह भी लगा कि शायद हड़ककर मोबाइल अपने कब्जे में ले ले। लेकिन वह मोटरसाइकिल से चुपचाप उतर कर चौराहे का ट्रैफिक कंट्रोल करने लगा। देखकर लगा हमारा डर फ़िज़ूल था। सोचा -'कितना जिम्मेदार है सिपाही।'
रफूगरों की दुकान के आगे मीट की दुकानें हैं। बोटी-बोटी कट रही थी मीट की। बोटी देखकर मुझे समझ नहीं आया कि बोटी बंट रही थी कि कट रही थी।
मीट की दुकान के आगे चाय की दुकान थी। चाय वाला तीन-चार भगौने में चाय रखे एक की चाय दूसरे में, दूसरे की तीसरे में फिर तासरे से पहले में डालता/खौलाता जा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बुजुर्ग साहित्यकार पुरानी किताबों से इधर-उधर छंटनी करके नई किताबें लाते रहते हैं।
पांच रुपये की चाय हुंडे में लेने पर दस की पढ़ी। पहला घूंट लेते ही कुछ नमकीन स्वाद आया। काफी दिन बाद नमकीन चाय पी। बचपन में अम्मा बनाती थीं। चाय वाले इरफान फुर्ती से सबको चाय पिलाते जा रहे थे।
लौटते हुए रफूगरों से पूछा -'सब लोग बलिया के हैं?'
बोले -'हाँ , बलिया के हैं।'
हमको बलियाटिक नारा याद आया -'बलिया जिला घर बा तो कौन बात का डर बा?'
हमने पूछा -'वहीं के जहां चंद्रशेखर जी थे?'
'अरे नहीं।चंद्रशेखर जी तो खास बलिया के थे। हम लोग सिकंदरपुर के हैं। 35 किमी दूर है बलिया से।' -एक रफ़ूगर ने बताया।
हमने सोचा और बात की जाए लेकिन सड़क किनारे खड़ी गाड़ी की चिंता में सोच को स्थगित कर दिया। गाड़ी के पास आ गए।
सामने भारतीय जनता पार्टी का कार्यालय चमक रहा है। भारतीय जनता पार्टी मूलतः व्यापारियों की पार्टी मानी जाती थी। नवीन मार्केट शहर का मुख्य व्यापारिक केंद्र है। इलेक्ट्रोरल बांड के पहले के समय में यहां कार्यालय होने से चंदा लेने में सहूलियत होती होगी पार्टी को।इसीलिए कार्यालय बन गया होगा।
सड़क पर ट्राफिक बढ़ गया है। एक महिला ई रिक्शा चलाती जा रही है। पीछे बुजुर्ग सवारी बैठी है। दोनों थके-थके दिख रहे हैं।
लैंडमार्क का निशान बिजली जल जाने से चमकने लगा है। इससे लगता है कोई साधारण दिखने वाली वस्तु या व्यक्ति के चमकने में किसी का सहयोग जरूर होता है।जैसे ट्रम्प जी की चमक के पीछे लोग एलन मस्क जी का सहयोग बता रहे हैं। बाकी के बारे में हम कुछ न कहेंगे। कहने का मतलब भी नहीं। आप खुद समझदार हैं।
वैसे आजकल 'समझदार' होना कोई बहुत 'समझदारी' की बात नहीं है। आजकल समझदार की मरन है। इसलिए आजकल 'समझदारी' इसी में है कि 'समझदारी' से परहेज़ लिया जाए।
शाम हो गयी है। दुकानों के साइन बोर्ड चमकने लगे हैं।दुकानों पर बिजली की झालर जल रही हैं । उनकी दीवाली जारी है। चौराहे पर रेमंड्स और राजकमल की दुकान के साइन बोर्ड लाल रंग में चमक रहे हैं। आम तौर पर लाल रंग खतरे का माना जाता है। लेकिन लाल रंग का एक मतलब इश्क़ का रंग भी होता है। दुकानों की तड़क-भड़क देखकर लगा कि 'ठग्गू के लड्डू' और 'बदनाम कुल्फी' में यहां लिखा होना चाहिए-' ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं' , 'घुसते ही जेब औऱ दिमाग की गर्मी गायब।'
पहली बार यहीं कहीं ठग्गू के लड्डू खाये थे और उनके जुमले सुने थे।
सड़क पार 'तारा सिंह मंघा राम' की दुकान दिख रही है। उसके नीचे कुल्हड़ की वही चाय 12 रुपये में बिक रही है जो इरफान ने हमको 10 रुपये में पिलाई थी अभी थोड़ी देर पहले। मतलब हम अभी थोड़ी देर पहले चाय पीकर दो रुपए बचा चुके हैं।
सामने की इमारत टूटकर नई बन रही है। पहली मंजिल बन गयी है। सरिया दिख रही हैं। सरिया किसी इमारत की हड्डियां होती हैं। हड्डियां ही हड्डियां दिख रहीं हैं इमारत की।
परेड का मैदान पीछे है। यहाँ रावण जला होगा दशहरे में। कागज, कपड़े का जितना जल गया उतना जल गया। बाकी बचा रावण लोग लूट, समेट के ले गए होंगे अपने मन के लाकर में रखने के लिए। अगले साल फिर चाहिए न जलाने के लिए।
सड़क के दोनों ओर गाड़ियों की कतारें जमा हैं। कुल जमा तीन कतारें । अंदर मार्केट में तो पूरा गाड़ियां ही गाड़ियां हैं। हम गाड़ी के दरवाजे से पीठ सटाये गाड़ी की रखवाली कर रहे हैं। ड्राइवर का काम ही यही होता है। मुफ्त के ड्राइवर का तो और भी जरूरी काम।
बगल की इमारत में सूरज भाई ऐसे विराजे हैं जैसे सिंहासन पर बैठे हों। डूबने वाले हैं भाई जी लेकिन किरणें बाअदब,बामुलाहिजा वाले अंदाज में उनके तारीफ में चमक रही हैं। हमको लगा कि सूरज भाई ने भी अपना तारीफ़ी चैनल बना लिया है। शायद उनको भी लगता है कि आज के समय में चमकने के लिए मीडिया जरूरी होता है।
सूरज भाई को देखकर हमको अजय गुप्त जी की कविता पंक्ति याद आई:
सूर्य जब जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच कहूँ मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।
हमने इसकी तर्ज पर सूरज भाई की शान में तुकबन्दी की:
'सूर्य जब जब थका हारा इमारत की छत पर मिला,
सच कहूँ मुझे वो किसी उखड़ते शहंशाह सा लगा।'
सूरज भाई मेरी तुकबन्दी सुनकर लजा से गए। अपनी लाज को मुस्कराहट में लपेट के वो बिल्डिग के पीछे छिप गये।
असहज बातों के जवाब आजकल इसी तरह दिए जाते हैं।

Friday, November 08, 2024

स्टेशन निकल आया

 शहर में बहुत भीड़ है। सड़कें  गाड़ियों के नीचे दबी हैं। फुटपाथ पर या तो दुकानदारों का क़ब्ज़ा है या बेघरबार लोग अपना अस्थाई ठिकाना बनाए हुए हैं। 

जहां-जहां मेट्रो बन रही है वहाँ सड़क तीन भागों में बंट गयी है। बीच का भाग मेट्रो बनाने के लिए घेरा गया है। बाक़ी सड़क आने-जाने के लिए छोड़ दी गयी है। चलो रेंगते हुए, बचते-बचाते। 

कल सीटीआई चौराहे से विजय नगर की तरफ़ आते हुए देखा बड़ा गड्ढा ख़ुदा हुआ है। विजय नगर के नाले (गंदा नाला)  समानांतर दस मीटर लम्बा गड्ढा। एक बच्ची वहाँ कुर्सी पर बैठी उबासी लेती सड़क से लोगों, वाहनों को गुजरते देख रही थी। बग़ल में कई झोपड़ियाँ बनी हैं। एकदम नाले के ऊपर। वर्षों से ये झोपड़ियाँ ऐसे ही ही बनी हुई हैं। किसी भी तरह के परिवर्तन, विकास-विकास की औक़ात नहीं क़ि इनका बाल-बाँका कर सके। 

बच्ची से झोपड़ी के बग़ल में खुदे गड्डे के बारे में पूछा तो उसने बताया -'यहाँ स्टेशन निकल आया है। वही बनेगा।'

स्टेशन निकल आया मतलब मेट्रो स्टेशन। शायद विजय नगर मेट्रो स्टेशन। स्टेशन बनेगा तो झोपड़ियाँ हटेंगी। कुछ नया बनने के लिए पुराना हटेगा ही। हटाने से याद आया कि इस बीच विजय नगर चौराहे पर लगी महाकवि  भूषण की मूर्ति भी हट चुकी है। 

बच्ची से पूछा कि फिर तुम कहाँ जाओगी? उसने कुछ जवाब नहीं दिया। सोच रही होगी शायद -'इस बेवक़ूफ़ी भरी बात का क्या जवाब दिया जाए?'

वहीं पास खटिया पर लेते एक आदमी से बात की। पता चला पास बैठी बच्ची और बग़ल में खेलते बच्चे का पिता है वह। खटिया और उसपर के बिस्तर वर्षों से ऐसे ही पड़े लग रहे थे।

पता चला वो  42 साल से यहीं रह रहा है । बस्ती घर है लेकिन रहता यहीं है। पत्नी बस्ती में है। बच्चे इसके साथ। होटल में खाना बनाने का काम करता है। बच्चों के लिए भी वही बनाता है। बच्चे पढ़े नहीं। स्कूल गए होंगे लेकिन स्कूल और बच्चे एक-दूसरे को रास नहीं आए होंगे। 

स्टेशन बनाने के लिए झोपड़ी हटेगी तो कहाँ जाओगे पूछने पर बताया -'देखेंगे कहीं जुगाड़। अभी तो हफ़्ते भर की मोहलत मिली है।

हफ़्ते भर बाद जिसका ठीहा उजड़ने वाला है वो आराम से खटिया पर लेता हुआ है। पता चला -' कंधे पर चोट लग गयी । इसलिए काम पर भी नहीं जा पाया।'

आदमी से पूछने पर पता चल कि उसका न आधार कार्ड है , न राशन कार्ड , न वोटर कार्ड। अलबत्ता मोबाइल है पास में। बिना किसी पहचान के ज़िंदगी जी रहा है बंदा। 

आधार कार्ड न बनवाने के पीछे कारण बताया -'काम में लगे रहे। बनवा ही नहीं पाए।अब बताते हैं लोग कि  दो हज़ार रुपए लगेंगे बनवाने के।'

आगे एक झोपड़ी के बाहर तीन महिलाएँ-बच्चियाँ एक के पीछे एक बैठी-खड़ी बाल काढ़ रहीं थीं, जुएँ बिन रहीं थीं। सबसे आगे वाली महिला ज़मीन पर बैठी थी, उसके पीछे बच्ची खटिया पर बैठी उसके बाल संवार रही थी, उसके पीछे खड़ी बालिका उसके जुएँ बिन रही थी। सब मिलकर अपने समय का दिन दहाड़े क़त्ल कर रहीं थीं। 

समय काटने के समाज के हर वर्ग के अपने-अपने उपाय होते हैं। कोई जुएँ बीनते हुए बाल बनाते हुए , कोई लड़ते-झगड़ते, कोई बुराई-भलाई करते, कोई हऊजी-पपलू खेलते पार्टी करते , कोई रोते-झींकते, कोई दुनिया को बरबाद करते और कोई दुनिया की चिंता करते हुए समय बिताता है। हरेक के अपने जायज़ बहाने होते हैं समय बिताने के। 

आगे सिग्नल लाल था। एक बच्ची लपक-लपक कर गाड़ियों की खिड़कियाँ खटखटा कर माँग रही थी। हमारी दायीं तरफ़ की खिड़की खुली थी वह उससे सटकर कुछ माँगने लगी। 

बच्ची ने बताया-' सुबह से कुछ खाया नहीं। भूख लगी तो माँगने आ गए।'

'सुबह की बजाय दोपहर में क्यों आई माँगने?' -हमने ऐसे पूछा गोया हम उसकी अटेंडेंस लगा रहा हों।

'हमने सोचा घर में होगा कुछ खाने को। इसलिए सुबह नहीं आए। अभी मम्मी से से पूछा तो उसने बताया कुछ है नहीं तो आ गए माँगने।'- बच्ची ने बताया।

मम्मी किधर हैं?   मेरे पूछने पर बच्ची बच्ची ने बताया -' बहन को नहला रही हैं हैण्डपम्प पर।'

पास में हैण्डपम्प पर एक महिला बच्ची के सर पर पानी डालकर नहलाती दिखी। 

बच्ची मेरी खिड़की से सटी खड़ी थी। उसके माँगने की बात मेरे ज़ेहन में थी लेकिन देने की इच्छा कमजोर सी क्योंकि पर्स पीछे था। बग़ल में रखे होते पैसे तो शायद फ़ौरन दे भी देते। दिमाग़ ने हाथ को आदेश  दिया पर्स निकालने के लिए लेकिन हाथ ने आदेश के पालन में लालफ़ीताशाही का मुजाहरा किया। टाल गया दिमाग़ का आदेश। दिमाग़ को लगा उसने आदेश कर दिया अब उसकी ज़िम्मेदारी ख़त्म हुई। दुनिया में   परोपकार के तमाम काम इसी तरह टलते रहते हैं। 

इस बीच दिमाग़ में  फिर कुलबुलाहट हुई और बच्ची से पूछा -' स्टेशन बनने पर झोपड़ी हटेंगी तो कहाँ जाओगी तुम लोग?'

उसने कहा -' कहीं डाल लेंगे पन्नी।' 

इस बीच सिग्नल हरा हो गया। हम गाड़ी हांक कर आगे बढ़ गए। बच्ची दूसरे लोगों के आगे-पीछे घूमते हुए माँगने लगी। 


Thursday, November 07, 2024

किताबें छपवाने का प्लान

अभी तक अपन की सात किताबें आ चुकी हैं:

1. पुलिया पर दुनिया 

2. बेवक़ूफ़ी का सौंदर्य 

3.  सूरज की मिस्ड काल 

4. झाड़े रहो कलट्टरगंज 

5. घुमक्कड़ी की दिहाड़ी 

6. आलोक पुराणिक -व्यंग्य  का एटीएम 

7. अनूप शुक्ल -चयनित व्यंग्य  


पिछले कई दिनों से अपने लेखन की  छँटाई  करके किताबें तैयार करने का मन  बना रहा। टलता रहा। अमेरिकी यात्रा संस्करण की किताब 'कनपुरिया कोलंबस' तो तैयार भी कर ली थी । एक  प्रकाशक को भेज भी दी थी। लेकिन लगता है किताब ग़ायब हो गयी वहाँ से।  इस बीच जीमेल की सफ़ाई करते उसकी पांडुलिपि भी उड़ गयी। फिर तैयार करेंगे किताब। 

इसके अलावा अपने लिखाई जमा करके कुछ और किताबें तय की हैं प्रकाशित करने को। अभी तक कुल जमा ये किताबें सोची हैं :

1.   कनपुरिया कोलंबस -अमेरिका यात्रा पर संस्मरण 

2.  ट्रेन और हवाई यात्राओं के संस्मरण 

3.  'पुलिया पर दुनिया' के आगे के किस्से 

4. जबलपुर  , कानपुर ,  शाहजहाँपुर , कोलकता के संस्मरण  (चार किताबें)

5.  कश्मीर यात्रा के संस्मरण 

6. लेह - लद्दाख, गोवा, नेपाल यात्राओं के संस्मरण 

7.  वयंग्य की जुगलबंदी के लेखों का संकलन 

8. कट्टा कानपुरी के शेर संकलन 

इन बारह किताबों का मसौदा तैयार है। बस छाँटना बीनना है। ये किताबें छपाने के बाद किताबों की संख्या दो अंको के पार हो जाएगी। ये तो अभी तक लिखे से बनने वाली किताबें हैं। आगे जो लिखेंगे उनसे और किताबें बनेंगी। 

किताबों के ईबुक संस्करण बनाएँगे। किंडल भी। प्रिंट आन डिमांड  सुविधा के तहत आर्डर करने पर किताब छपेगी। 

आपको इस खबर से घबराने की ज़रूरत नहीं है। ये मैंने अपने लिए प्लान तैयार किया है। कोई ज़रूरी थोड़ी कि अमल में लाएँ।

आप बताओ आप मेरी कोई  किताब पढ़ना पसंद करेंगे? 


कमला हैरिस से कह दो, अभी मत जीतें चुनाव में

 कल अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव जीते। कमला हैरिस हार गईं। कई कारण बताये गये कमला हैरिस के हारने के। एक कारण उनका महिला होना भी ज़रूर रहा होगा। मेराज फैजाबादी के शेर की तर्ज पर अमेरिका वालों का शायद कहना है :

कमला हैरिस से कह दो, अभी मत जीतें चुनाव में,
अभी महिला राष्ट्रपति के लिये, तैयार नहीं हैं हम लोग।
अमेरिकी समाज बावजूद तमाम बराबरी के कहीं गहरे में पितृ सत्ता का हिमायती है।
मेराज साहब का शेर भी पढ़ लें:
चाँद से कह दो अभी मत निकल
अभी ईद के लिए तैयार नहीं हैं हम लोग।

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अमेरिका चुनाव वायदे

कल अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आए। डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिकी लोगों में दुबारा अपना मुखिया चुना। कमला हैरिश हार गयीं। शायद अमेरिका अभी महिला राष्ट्रपति चुनने के लिए  तैयार नहीं है। महिलाओं वोटिंग का अधिकार भी देर से मिला था अमेरिका में। मुखिया भी चुनी जाएँगी कभी भविष्य में। 

ट्रम्प जी के जीतने की आहट से क्रिप्टोकैरेंसी उछलने गयी। क्रिप्टोकैरेंसी मुझे 'करप्शन कैरेंसी' लगती है। पता नहीं सच क्या है?

अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी की टिप्पणियाँ  उल्लेखनीय है:

1. ईसाई फंडामेंटलिज्म और शस्त्र उद्योग ने अमेरिका में जनता के विवेक का मुंडन किया।

2. ट्रंप की नहीं यह नस्लवाद औरशस्त्र उद्योग की जीत है ।

3. हथियार निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उम्मीदवार ट्रंप का संघी खुलकर समर्थन कर रहे हैं।यह है संघ का असली चेहरा।

डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार में कहा था कि वे इज़राइल-फ़िलिस्तीन की लड़ाई एक दिन में ख़त्म कर देंगे। रूस यूक्रेन युद्द भी रोक देंगे। आने वाला समय बताएगा कि उनका बयान जुमला था या हक़ीक़त। 

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Monday, October 28, 2024

पंकज बाजपेयी से मुलाक़ात

कल शहर गए। कुछ काम से। वैसे शहर जाना भी के बड़ा काम है आजकल। चलने से पहले सोचना पड़ता है -किधर से जाएँ? सड़क पर वाहनों की भीड़। कारें ही कारें,  आटो ही आटो, ई रिक्शे ही ई रिक्शे। हर सवारी दूसरी से हलकान। कार वाले ई रिक्शों से परेशान कि कहीं भी घुसे चले जाते हैं। बड़ी-बड़ी कारें, आटो और ई रिक्शों से अपने शील की रक्षा करते हुए चलती हैं। उनको डर है कोई रिक्शा उनको 'बैड टच' करते हुए न निकल जाए। पुरानी गाड़ियाँ अलबत्ता बिंदास चलती हैं। वे राणा सांगा हो गयी हैं -' जहां इत्ते लगे हैं वहाँ एक घाव और सही।' 

ई रिक्शे वाले सोचते होंगे -इत्ती बड़ी गाड़ी में अकेला इंसान जा रहा है। इससे अच्छा तो हमारे साथ ही चलता। हमको सवारी मिलती। उसके पैसे बचते।

आज के दिन शहर में सड़क पर चलना भी एक युद्द में भाग लेने जैसा है। न जाने कौन गली में जाम मिल जाए। न जाने कौन सड़क पर ट्रैफ़िक डायवर्जन मिल जाए। कल तक आने-जाने वाली सड़क एकल मार्ग हो जाए। कुछ कहना मुश्किल। 

बड़े शहरों में आज ट्रैफ़िक के हाल हैं उसको देखते हुए बड़ी बात नहीं कि आने वाले दिनों में घर से निकलते हुए लोगों की आरती करके, टीका लगाकर विदा करने लगे जैसे पुराने जमाने में युद्ध पर जाने वाले योद्धाओं को लोग घर वाले विदा करते थे। सड़क पर चलना युद्ध लड़ने से कम जोखिम का काम नहीं है। 

रास्ते में पंकज बाजपेयी के ठीहे के पास से निकले। पहली बार जब मिले थे पंकज तो सड़क के बीच डिवाइडर पर बैठे मिले थे। ऐसे जैसे देशी कमोड पर बैठे हों। आते-जाते कई दिन देखने के बाद उत्सुकता हुई। बातचीत शुरू हुई। उनके बारे में किस्से सुने। अब तो कई वर्षों की दोस्ती हो चुकी है। फिर भी हर मुलाक़ात में कोई न कोई नयी बात पता चलती है। 

इस बीच सड़क के डिवाइडर भी डिवाइड हो गया है। बीच में लोहे के सरियों की जाली लग गयी है। अब डिवाइडर पर बैठना सम्भव नहीं। पंकज बाजपेयी का  बैठने का ठीहा छिन गया है।  अब पंकज बाजपेयी राजनीति में तो है नहीं जो इसके ख़िलाफ़ आंदोलन करने लगें। वो कोई वोटबैंक तो है नहीं।  अकेले की कौन सुनता है। 

सड़क के  डिवाइडर पर लोहे की सरियों  और सड़क किनारे लोहे की चद्दरों की खड़ी दीवार देखकर मुझे लगता है यह किसी लोहे के व्यापारी का माल खपाने के लिहाज़ से किया गया काम है। सड़क किनारे लोहे की चद्दर से सड़क आजकल के राजनीतिज्ञों की तरह सिकुड़ गयी है। 

जाते समय तो पंकज दिखे नहीं अलबत्ता लौटते समय अपने ठीहे के पास सड़क किनारे खड़े दिखे। उनके बग़ल में गाड़ी खड़ी करके आवाज़ लगाई तो लपककर आए और हाथ तिरछे करके चरण स्पर्श का इशारा किया। बात और शिकायत एक साथ शुरू हो गयी। पंकज की बातचीत एकदम स्वतःस्फूर्त , बेसिरपैर की रहती है। एक वाक्य का दूसरे से कोई सम्बंध नहीं। ईरान के फ़ौरन बाद तूरान, आयें के फ़ौरन बाद दाएँ मुड़ जाती है उनकी बतकही। उनकी बात सुनकर उसका मतलब निकालना मुश्किल रहता है। ऐसे लगता है उनके मुँह में कोई रिकार्डर फ़िट है जो उलजलूल बातें उगलता रहता है। ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। ऐसे जैसे सामने लाखों का हुजूम हो और उसको सम्बोधित कर रहे हों। मज़े की बात उनको इस बेसिर पैर की हांकने के लिए  किसी माइक या टेलिप्रामप्टर की ज़रूरत नहीं होती। 

कल उनके डायलाग जो मुझे याद रह गए वो इस तरह हैं:

-गवाही देनी है खन्ना के केस में। दिल्ली चले जाना।

-कोहली  भाग गया। उसका मर्ड़र केस ख़त्म हो गया। जिस लड़की के साथ उसने ग़लत काम किया था उसकी शादी हो गयी।

-मम्मी जी के पास चले जाना। उनसे बात हो गयी है। 

-जलाने के लिए नोट दे जाना आज। हम तुमको सर्टिफिकेट दे देंगे। 

-गाड़ी में परफ़्यूम लगवा लेना। बढ़िया ख़ुशबू आती है। 

-कचहरी में मुक़दमा चल रहा है रामलाल का। उसको सजा हो जाएगी अगले हफ़्ते।

इसी तरह की और भी एक के बाद दूसरी बात। लेकिन पंकज की बात में हिंदू-मुसलमान नहीं आता। किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं। दिमाग़ फिर गया है लोग पागल कहते हैं लेकिन किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं। कोई कह सकता है -'पागल है इसीलिए किसी के  किसी के प्रति कोई घृणा नहीं है। आज तो बिना घृणा के काम ही नहीं चलता समाज का।'

आगे बात करते हुए उन्होंने पूछा -'माल नहीं लाए इस बार भी?'

'माल' मतलब -'जलेबी, दही, समोसा।'

हमने कहा -'घर से नहीं लाए। लेकिन यहीं दिला देंगे।'

वो बोले -'देता नहीं है नीरज। तुम पिछली बार कह गए थे फिर भी नहीं दिया।'

नीरज वहीं पंकज के ठीहे के सामने, अनवरगंज की तरफ़ जाने वाली सड़क के नुक्कड़ की मिठाई की दुकान पर काम करने वाले लड़के का नाम है। हमने उससे पूछा तो हंसते हुए बताया उसने -'अपने लिए लेते हैं रहते हैं पंकज सामान। रोज़ सौ-दो सौ रुपए खर्च करते हैं।' 

ये सौ-दो सौ रुपए पंकज से मिलने वाले लोग देते उनको देते रहते हैं। हमारी मुलाक़ात तो अब कभी-कभी ही होती है। लेकिन कई नियमित  मिलने वाले हैं जो उनको 'जेबखर्च' टाइप देते रहते हैं। 'जेबखर्च' टाइप इसलिए कि पंकज आम लोगों से माँगते नहीं। उन  लोगों से जो उनसे बात करते हैं हक़ से लेते हैं। लपककर मिलते हैं। पैसे लेते हैं लेकिन रिरियाते नहीं। दैन्य भाव नहीं है। इठलाहट है उनके माँगने में। ठुनककर माँगते हैं -' सौ रुपए देना अबकी बार। नहीं सौ ही लेंगे। पचास नहीं। बीस नहीं।' 

नीरज की शिकायत की तो मैंने नीरज को कुछ पैसे दिए। कहा -'जो मिठाई ये कहें दे देना।' 

पंकज ने मिठाई की दुकान के काउंटर पर रखी एक मिठाई की तरफ़ इशारा करते हुए कहा -'ये लेंगे।' इसके अलावा एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल 'माउंटेन ड़्यु' की फ़रमाइश की। हमने कहा -'ले लेना। पैसे हमने दे दिए हैं नीरज को।'

इसके बाद चाय पीने के इसरार किया पंकज ने। हम गए चाय की दुकान पर। मामा की चाय की दुकान। वहाँ से चाय लेकर फिर मिठाई की दुकान के सामने आ गए सड़क पर। बात करने लगे। 

हमने कहा -'पंकज तुम चलो हमारे साथ। हमारे घर रहो चलकर।'

बोले -'हम कानपुर में नहीं रहेंगे। यहाँ पालूशन बहुत है।'

हमने पूछा -'फिर कहाँ रहोगे ?'

बोले -'बम्बई में। वहाँ हमारा घर है। तुमको भी ले चलेगें। चलना।'

हमने कहा ठीक। अब चलते हैं। पंकज ने फिर पैसे की ज़िद की। कुछ देर इत्ते नहीं इत्ते वाली तकरार होती रही। पंकज बच्चों की तरह ठुनकने भी लगे। उनके ऐसा करते हुए साथ साल के इंसान के चेहरे पर एक छोटा बच्चा सवारी करता दिखा। आख़िर में उनकी बात मान कर उनको जेब खर्च दिया। 

पैसे मिलने के बाद पंकज हमको फ़ौरन विदा करने वाले अन्दाज़ में आ गए। बोले -'सेफ़्टी बेल्ट लगा लेना। सड़क पर भीड़ बहुत है। जल्दी जाओ। खाना खा लेना। गंदी चीज़ मत खाना।'

पहले हम सोचते थे कि पंकज का इलाज करवाया जाना चाहिए। अब सोचते हैं -'ये ऐसे ही ठीक हैं। कम से कम ज़िंदगी बसर तो कर रहे हैं। इलाज के बाद कहीं ठीक हो गए तो जिएँगे कैसे ?'

आपका क्या सोचना है इस बारे में ?




Saturday, October 26, 2024

शरद जोशी के पंच -19

 1. किसी सामाजिक समस्या पर कोर्ट यदि मानवीय दृष्टिकोण अपना ले,  तो संसद उसमें संसोधन लाकर, ऐसे अच्छे काम करने से रोक सकती है।

2. आजकल बैंक लूटना अंगूर के गुच्छे तोड़ने की तरह सरल हो गया है। यदि किसी बच्चे को पड़ोसी के बाग से अमरूद चुराने का अनुभव हो तो वह अपनी प्रतिभा का उचित विकास कर एक दिन पड़ोस का बैंक लूट सकता है।

3.  हमारे देश में कौन नेता  है ,जिसकी राजनीतिक  आत्मा में मार्कोस नहीं पैठा है? मंत्री या मुख्यमंत्री-पद, अदना सरकारी निगम या सरकारी कमेटी की सदस्यता छोड़ते पीड़ा होती है। ऐन-केन कुर्सी पर अड़े ही रहते हैं। अवधि ख़त्म हो गई ,तो सोचते हैं, एक्सटेंशन मिल जाए। लगे हैं जोड़-तोड़ बिठाने।

4. आज़ादी के बाद से आज तक कुर्सी छोड़ना तो अपवाद ही है। असल क़िस्सा कुर्सी का तो कुर्सी से चिपका रहने का है। गहराई में न जाओ , इस गंदे तालाब को सतह से ही देखो। किटाने उखड़े हुए प्रधानमंत्री, गवर्नर, और मंत्री तैर रहे हैं।  सड़ रहे हैं, मगर अंदर से पद की पिपासा भभक रही है। हे ईश्वर , कुर्सी दे ! बड़ी न दे , तो छोटी दे, पर हे भगवान कुर्सी दे! 

5. आजकल तो बड़ा संन्यासी भी वही माना जाता है , जो किसी पद पर बैठा हो। राजनीतिक पार्टियों में मुग़ल साम्राज्य की आत्मा वास करती है। बिना हटाए कोई हटता ही नहीं। 

6. बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना एक राष्ट्रीय कला है। आपको इसके लिए पहले  निस्संगता और ततस्थता की मुद्रा अपनानी पड़ती है। 

7. ईमानदार, तटस्थ  और सही प्रतिक्रिया इस देश में नायाब है। बजट के बाद जब देश-हित  की बात कही जा सकती है तब भी पार्टी-हित की बात कही जाएगी। चमचागिरी या थोथा विरोध दोनों में से कोई एक होगा।

8. सत्ताधारियों का नियम रहा है कि गुड़ न दे तो गुड़-सी बात तो कर। अब एक नेता और कुछ न दे तो आश्वासन तो दे ही सकता है। लोग उसी से काम चला लेंगे। इतने साल से चला ही रहे हैं। जैसे कोई नेता अपने भाषण में समाजवाद का आश्वासन दे तो उस पर यह बोझ नहीं डाला जाना चाहिए कि वह समाजवाद लाए भी।

9. बड़ों के बच्चे बड़े पदों पर पहुँचते हैं, तो कैसे पहुँचते हैं? बचपन से उनके लिए सच्चे-झूठे प्रमाण-पत्र जोड़े जाते हैं। 

10. वे लोग बड़े सुखी होते हैं जिन्हें जीवन में कभी बड़े पद नहीं मिले। वे बड़ा पद छूटने के दर्द से नहीं गुजरे। पता नहीं बयान से परे है यह पीड़ा। सब कुछ छूटता है। कुर्सी ,टेबल, सोफ़ा ही नहीं, बंगला ,कार भी। यह भी शायद इतना बड़ा दर्द न हो, पर अधिकार और प्रभाव हाथ से जाता है। प्रभाव , जिससे आप मार्क्स बढ़वा सकते हैं, रिश्तेदार को क़र्ज़ दिलवा सकते हैं और अपने प्रिय को पद्मश्री। राम जाने ,इस प्रभाव का दायरा और दबदबा कहाँ तक फैला रहता है ? बिना कुर्सी पर बैठे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। 

Friday, October 25, 2024

हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं- रमानाथ अवस्थी

 हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।

हमने लोगों को ध्यान से देखा 
सबके चेहरे में दर्द की रेखा ।
कोई खुलकर मिला नहीं हमसे 
मौत के मेघ हर नज़र में हैं।

हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।


मौत के सौदागर नहीं डरते 
कहते हैं देश बाँट दो फिर से।
राजा से कह दो होशियार रहे 
इनकी आँखें उसी के घर में हैं।

हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।


हम मुसाफ़िर हैं हमें जाना है 
जाते-जाते तुम्हें बताना है।
जंगली लोग हंस रहे हम पर 
वैसे तो हम सभी नगर में हैं।


हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।



शोर में डूबे हुए सन्नाटे 
पूजा के घर में भजन के घाटे।
रोज़ ही क़त्ल हो रहा है अमृत 
हम अमृत पुत्र सब जहर में हैं।


हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।

कोई कुछ भी कहे नहीं सुनिए 
रास्ता आप अपना खुद चुनिए।
ख़त्म होगी नहीं कहीं पर जो 
हम उसी प्यार की डगर में हैं।

हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।

-रमानाथ अवस्थी 


गीत  यहाँ पर सुना जा सकता है । 





शरद जोशी के पंच -18

 1. राजनीति में फँसे आदमी की दुर्दशा साहित्य में फँसे आदमी से अधिक होती है। 

2. नेतागीरी का पूरा धंधा विचित्र सहकारी स्तर पर , एक-दूसरे पर आधारित , जिसे परम हिंदी में अन्योन्याश्रित कहते हैं, चलता है। पहले नहीं था ,मगर आजकल तो है ही। बड़ा नेतृत्व छोटे नेतृत्व पर टिका रहता है और छोटा नेतृत्व बड़े नेतृत्व पर। दोनों मिलकर समाज और देश को एक क़िस्म के नेतृत्व की हवा में बांधे रहते हैं। जड़ें दोनों की नहीं हैं ,पर वे किसी तरह एक-दूसरे पर टिके हैं।

3. गहराई से सोचा जाए तो पब्लिक अयोग्य और अविश्वसनीय व्यक्तियों को नेता मान जैसे-तैसे प्रजातंत्र क़ायम रखे है और सौभाग्य है कि उनमें कुछ अच्छे भी हैं।

4. एक बार आप राजनीति में फँस गए तो कारवाँ के साथ कुत्ते की तरह दुम हिलाते, दबाते, घिसटते, थकते, चलने के अलावा कोई ज़िंदगी नहीं रह जाती।

5. प्रदूषण  को लेकर हमारी जो नीति और कार्य-प्रणाली है , साम्प्रदायिक मनमुटाव दूर करने के मामले में भी वही है। मतलब, हवा में थोड़े-बहुत जहर का घुलना हमें अनुचित नहीं लगता। उसे हम सहज-स्वाभाविक मान टाल देते हैं। 

6. हर शहर में एक-दो कारख़ाने हवा में जहर घोलते हैं, व्यवस्था  सहर्ष और सगर्व उन्हें ऐसा करने देती है। पर्यावरण विभाग को चिंता तब सताती है ,जब ज़हर अच्छा-ख़ासा घुल चुका होता है। हमारे देश में नालियों को नियमित करने की व्यवस्था है, नदियों को साफ़ करने की नहीं। नदी को हम शुद्ध-पवित्र मानकर चलते हैं।

7. यह चिंता तो सभी धर्मगुरुओं और भक्तों को रहती है कि  चढ़ावा ज़्यादा चढ़े और धार्मिक कोष में वृद्धि हो। मगर उसके लिए बैंक लूट लेना, दुकानों या घरों में घुस कर नक़दी या ज़ेवर बटोरना, धर्म की सेवा के नए आयाम हैं , जो इन्हीं वर्षों में विकसित हुए हैं।

 8. जो कुछ होना है, वह हो चुका होता है ,तब खबर के साथ एक पुछल्ला , एक जुमला या एक वाक्यांश हमेशा रहेगा कि स्थिति नियंत्रण में है।

9.  किसी ने पूछा कि  स्थितियाँ कहाँ हैं ? तो वह यदि अफ़सर हुआ तो कहेगा , नियंत्रण में हैं। नियंत्रण एक हास्टल है स्थितियों का। स्थितियाँ बाहर जाती हैं, जैसे गर्ल्स हास्टल की लड़कियाँ घूमने निकलें और वापस लौट आती हैं। उन्हें नियंत्रण में ही रहना है। दिन-दिन में नियंत्रण से बाहर गईं। रात तक लौट आईं। जैसे ही कर्फ़्यू लगा, स्थिति नियंत्रण में आ गई। कहाँ जाती? कर्फ़्यू में घूम-फिर तो सकती नहीं थीं।

10. लूटपाट ,हत्या, घमकियाँ, आतंक, भय, दंगे, चोरी ,तस्करी, डकैती, बलात्कार, मारपीट, लाठी, गोली, गिरफ़्तारी, ज़मानत, फ़ायर होने आदि खबरों में यह कितने सुकून और हौसला देने वाली बात है क़ि स्थिति नियंत्रण में है, मामले की सरगर्मी से जाँच हो रही है और कड़ा कदम उठने वाला है। सच कहा जाए तो आज भारतीय नागरिक इन वाक्यांशों , इन जुमलों के सहारे ही साँस ले रहा है। 


Thursday, October 24, 2024

बेईमान क्यों हो जाती है नौकरशाही?

 बेईमान क्यों हो जाती है नौकरशाही?

यह शीर्षक है उस किताब का जिसे उत्तर प्रदेश में सेवा के अधिकारी रहे डा. हरदेव सिंह जी ने लिखा था। उन्होंने अपनी सरकारी सेवाओं के विविध अनुभवों का ज़िक्र करते हुए नौकरशाही के बेईमान हो जाने के कारणों की पड़ताल की थी। सरकारी सेवा में आने से पहले हरदेव सिंह जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र की पढ़ाई की थी इसलिए उनके विवरणों में दर्शन के आधार पर व्याख्याएँ भी थीं।

इस किताब का ज़िक्र स्माल आर्मस फ़ैक्ट्री में हमारे महाप्रबंधक रहे Suresh Yadav जी ने किया था। उन्होंने बताया था कि फ़ील्ड गन फ़ैक्ट्री में पोस्टिंग के दौरान उन्होंने वहाँ के राजभाषा विभाग में उपलब्ध यह किताब पढ़ी थे।

मैंने किताब की खोज तो बाज़ार में मिली नहीं। किताब वाणी प्रकाशन से छपी थी। फ़ील्ड गन फ़ैक्ट्री के राजभाषा विभाग से किताब पढ़ने के लिए मँगवाई। किताब में जगह-जगह कई प्रसंगों को अंडरलाइन किया गया था। Suresh Yadav सर ने किताब पढ़ते हुए ऐसा किया था।

किताब इतनी अच्छी लगी थी मुझे कि उसको लौटाने के पहले मैंने उसको फोटोकापी करा के रख ली थी- बाद में पढ़ने के लिए। अभी वह किताब मेरे घर में ही कहीं किताबों के बीच है। कहाँ है खोजना है उसे।

नौकरशाही के बेईमान होने के कई कारणों का ज़िक्र करते हुए हरदेव सिंह जी ने एक कारण पारिवारिक भी बताया था। उनका मानना था कि सिविल सेवाओं में आम तौर पर गरीब, मध्यम वर्गीय घरों के प्रतिभाशाली, मेहनती बच्चे आते हैं। जैसे ही उनका चयन इन सिविल सेवाओं में होता हैं, उनको सम्पन्न, ऊँचे पदों पर तैनात लोग अपनी बेटियों के लिए चुन लेते हैं। अपनी बेटियों की शादी उनसे करा देते हैं।

नौकरशाही में काम करने के दौरान अधिकारियों को जनहित में कई अप्रिय फ़ैसले लेने पड़ते हैं। अक्सर उन फ़ैसलों से सत्ता के हित प्रभावित होते हैं। ऐसे में अधिकारियों को कई तरह से प्रताड़ित करना अब आम बात हो गयी है। उनका तबादला, प्रतिकूल प्रविष्टि और अन्य तमाम साज़िशें होती हैं। पहले ऐसे अधिकारियों को उनके वरिष्ठ अधिकारी बचाते थे। बदलते हालत में वे भी इसी खेल में शामिल हो गए हैं।

हरदेव सिंह जी का मानना है कि अधिकारी स्वयं तो इन अभावों, कष्ट साध्य जीवन जीने के आदी होने के कारण ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों का आसानी से मुक़ाबला कर सकता है लेकिन उनका परिवार जिसको अपने बचपन और बाद में आराम तलबी के जीवन की आदत पढ़ चुकी होती है ये कष्ट झेलने की आदत नहीं होती। अधिकारी अपने परिवार को परेशान नहीं देख पाते। इस परेशानी से बचने के लिए वे ऐसे निर्णय लेने से बचते हैं जिनके कारण उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही की आशंका हो और उनका परिवार कष्ट झेले ।

अधिकारियों की इस तरह की प्रताड़नाओं के अनेक उदाहरण हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरागांधी जी के ख़िलाफ़ निर्णय सुनाने वाले जस्टिस खन्ना को आगे पदोन्नत नहीं किया गया। ऐसा सुनने में आता है कि उन्होंने फ़ैसला सुनाने वाले दिन अपनी पत्नी से कहा था -'आज मैं यह फ़ैसला सुनाने जा रहा हूँ, अब मेरा आगे प्रमोशन नहीं होगा।' उनका परिवार उनके साथ था।

आज तमाम न्यायाधीशों के लोगों के नाम किसी को भले याद न हों लेकिन जस्टिस खन्ना का नाम आदर से लिया जाता है। एक ऐसा न्यायाधीश जिसमें तत्कालीन सत्ता के ख़िलाफ़ फ़ैसला लेने की हिम्मत थी।

हरदेव सिंह जी ने जब यह किताब लिखी थी तब उनके सामने उदाहरण के लिए केवल परिवार ही था। वे मानते थे कि परिवार के लोगों के कारण अधिकारी अपने उसूलों से समझौता करते हैं।

गए वर्षों में इसमें परिवार के साथ स्वयं अधिकारी भी शामिल हो गए हैं। उनको अपने सेवा काल के साथ सेवा के बाद भी आरामतलब जिंदगी का लालच हो गया है। इसीलिए सर्वोच्च पदों पर पहुँचने के बाद वे रिटायर होने के बाद भी कोई अच्छा माना जाने वाला पद पाने के लिए सत्ता की चापलूसी करते हैं। उसके हिसाब से निर्णय लेते हैं। काम करते हैं। ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि भविष्य में उनको, बावजूद तमाम प्रतिभा और ज्ञान के, एक अवसरवादी, चापलूस अधिकारी के रूप में ही याद किया जाएगा।

अपने 36 साल के सेवाकाल में मैंने ऐसे तमाम लोगों को देखा जो व्यक्तिगत तौर स्वयं बहुत अच्छे, ईमानदार अधिकारी थे लेकिन अक्सर ग़लत बात का विरोध करने से बचते रहे ताकि उनके आगे की राह में रोड़े न आएँ। दुनियावी सफलताएँ तमाम बलिदान भी माँगती हैं।

पिछले दिनों अपने न्यायाधीश महोदय के बाबरी मस्जिद के निर्णय के समय ईश्वर की शरण में जाने वाला बयान और उस पर जस्टिस काटजू जी का मत सुना तो किताब में वर्णित यह प्रसंग याद आया। जस्टिस काटजू ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा -' भगवान वाली बात सही नहीं है। फ़ैसले के पीछे न्यायाधीश महोदय का करियरिस्ट होना है।' ( माननीय जस्टिस काटजू साहब की बातचीत की कड़ी टिप्पणी में है)।

आज दुनिया एक बाज़ार में तब्दील हो चुकी है। इंसान भी आइटम में बदलता जा रहा है। उसको भी अपनी क़ीमत चाहिए - जितनी मिल जाए, जितने में निकल जाए। कानपुर के गीतकार 'अंसार कंबरी' कहते हैं:

'अब तो बाज़ार में आ गए 'कंबरी'
अपनी क़ीमत को और हम कम क्या करें?'

ऐसे विकट समय भी तमाम ऐसे लोग हैं सब जगह जो बिकने से इंकार करते हैं। अपने उसूलों से समझौता नहीं करते। इसकी क़ीमत भी चुकाते हैं।

ऐसे लोगों से ही दुनिया ख़ूबसूरत बनी हुई है।

Wednesday, October 23, 2024

ज़रा बच कर रहो बे

 जो दिखाई देता है सबको, वो सब सच मत कहो बे, 

बड़ा बवाल समय है चल रहा , ज़रा बच कर रहो बे। 


उकसा रहे हैं आज जो तुमको , कल वही फँसा देंगे ,

लीडरों, हुक्मरानों से, दूर का रिश्ता ही भला है बे  ।


 धमकाता रहता  है  हरदम ही  ,दीगर अवाम को 

बड़ा  कमसिन दिमाग़ , बुज़दिल रहनुमा मिला है बे ।


-कट्टा कानपुरी 





शरद जोशी के पंच -17

 1. नेताओं के सामने दो विकल्प हैं। या तो आप उनसे पार्टी मज़बूत करा  लो या सरकार। वे दोनों एक साथ मज़बूत नहीं कर सकते।

2. पद्मश्री पर शहद लगाकर चाटा जाए तो शहद बड़ा फ़ायदा करता है। पद्मश्री के बहाने शहद चाटने में आ जाएगा। 

3. कुछ लोग इस योग्य हो जाते हैं कि पद्मश्री के अलावा किसी योग्य नहीं रहते। 

4. ख़ुशी की बात यह है कि पद्मश्री के बाद आदमी किसी काम का नहीं रहता और पद्मश्री उसे किसी काम का नहीं रखती। बल्कि उसे के पद्मश्री इस बात के लिए मिलनी चाहिए कि उसने पद्मश्री मिलने के बाद कुछ नहीं किया।

5. सहन करें क्योंकि सहन करने के अलावा हम क्या कर सकते हैं ? हम सहनशीलता के नमूने हैं। जिन्हें कुछ करना चाहिए, वे सहनशीलता के और बड़े नमूने हैं। हमारी रीढ़ पूरी तरह झुकी हुई कितनी खूबसूरत लगती है।

6. महंगाई एक ऐसी आग है जिसके बुझने का डर बना रहता है। वातावरण में ऊष्मा बनाए रखने के लिए सरकार और व्यापारी निरंतर उसकी आँच उकसाते रहते हैं। वस्तु का सम्मान बनाए रखने के लिए लगातार कोशिशें जारी रहती हैं। अभाव बना रहे ,तो भाव बने रहते हैं।

7. महंगाई से आदमी को अपनी औक़ात का पता चलता है। आदमी जितना ऊँचा है, महंगाई उससे ऊँची रहती है। 

8. अधिकांश लोग जब अपनी आर्थिक ऊँचाई से महंगाई की ऊँचाई नापते हैं, उन्हें लगता है कि वे ताड़ के वृक्ष के नीचे खड़े हैं।

9. आज़ादी के बाद एक अद्भुत आर्थिक संसार विकसित हुआ है। आदमी वस्तुओं को देखता है और ठिठका हुआ खड़ा रहता है। अधिकांश भारतवासियों के पास केवल सड़क पर चलने के अधिकार हैं। उनके दुकानों में घुसने के अधिकार समाप्त हो गए हैं।

10. पेट्रोल के दाम बढ़ने से टैक्सी का भाड़ा बढ़ा। गरीब तो टैक्सी में बैठता नहीं। देश में असली गरीब के पास तो लोकल ट्रेन या बस में चलने के भी पैसे नहीं। सब्ज़ी महँगी होगी। गरीब सब्ज़ी खाता ही नहीं। गरीब आदमी को इस हालत में पहुँचा दिया गया है कि उसका मंहगाई से संबंध ही नहीं रहा। 


अदालती फ़ैसले

 प्रसिद्ध कथाकार हृदयेश जी शाहजहांपुर की अदालत में काम करते थे। अदालत के अनुभव के आधार पर उनका लिखा उपन्यास 'सफ़ेद घोड़ा काला सवार' भारतीय न्याय व्यवस्था पर लिखा और उसकी पोलपट्टी खोलने वाला अद्भुत उपन्यास है। इस उपन्यास में छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से अपने देश की अदालतों में हो रहे न्याय के प्रहसन पर सटीक कटाक्ष किए गए हैं।

भारतीय न्याय व्यवस्था का परिचय पाने के लिए यह उपन्यास पढ़ना बहुत सहयोगी है। बहुत रोचक उपन्यास है यह।
उपन्यास के एक अंश में एक जज साहब का क़िस्सा मज़ेदार है। जज साहब को ऊँचा सुनाई देता था। वे सुनने की मशीन (हियरिंग एड) का उपयोग करके अदालती कार्यवाही करते थे। दलीलें सुनते थे। फ़ैसला देते थे।
एक बार एक मुक़दमे की फ़ाइनल सुनवाई के दिन उनकी सुनने की मशीन की बैटरी कमजोर हो गयी या शायद तार हिल गया। उनके सुनने में व्यवधान हुआ। कभी सुनाई देता, कभी घरघराहट होती और कभी एकदम सुनाई देना बंद हो जाता। जज साहब किसी को ज़ाहिर नहीं होने देते कि उनको ठीक से सुनाई नहीं दे रहा है। वे पूरा मुक़दमा बिना ठीक से सुने अपने हिसाब से फ़ैसला सुना देते हैं। शायद में सिक्का उछाला होगा। शायद अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर फ़ैसला दिया हो।
बहुत दिन पढ़े इस उपन्यास का यह हिस्सा कल अचानक याद आया जब भारत के मुख्य न्यायाधीश महोदय ने ज़िक्र किया कि बाबरी मस्जिद वाला फ़ैसला करने के लिए वे भगवान की शरण में गए।
इससे यह भी अंदाज़ा लगा कि चाहे अदालत चाहे छोटी हो या बड़ी , न्यायमूर्तियों के फ़ैसले लेने के अन्दाज़ एक जैसे होते हैं।
इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व जज जस्टिस काटजू की राय टिप्प्पणी में।

Monday, October 21, 2024

शरद जोशी के पंच -16

 1. अधिकांश भारतवासियों के लिए अब एक जगह से दूसरी जगह, एक चलता-फिरता प्रधानमंत्री ही राष्ट्र-गर्व का मामला रह गया है। उसे देखते रहिए और सीना फुलाए रहिए कि हमारा भी एक देश है।

2. सोचने वाले सौभाग्य से ,गहराई से नहीं सोचते अन्यथा पागल हो जाएँ कि देश में पहले क्या मज़बूत होना चाहिए। उनमें अधिकांश अपनी पार्टी मज़बूत करने में और पार्टी से ज़्यादा कुर्सी मज़बूत करने में लगे रहते हैं। उनका जीवन -दर्शन यह है हमारी पार्टी चुनाव में जीतती रहे और हम पद पर बने रहें तो समझिए , सब मज़बूत है।

3. बड़ी जल्दी हमें इस देश को एक प्लेटफ़ार्म मान लेना होगा, जहां हर नागरिक को अपने इरादों की रेल पकड़ने का हक़ है। जितने यात्री समूह ,उतनी मंज़िलें। कोई ब्राउन सुगर बेच रहा है , कोई रैली निकाल रहा है, कोई बम बना रहा है। सबके अपने धार्मिक इरादे हैं। और देश की सरकार न हुई एक धंधा करने वाली औरत हुई कि चूँकि उसे वोट लेने हैं , यश बटोरना है, कुर्सी पक्की रखनी  है ,प्रगतिशील कहलाने की मजबूरी में सहिष्णु रहना है , सब कुछ सहन कर रही है। 

4.  बड़ों के प्रेम-प्रसंग अधिक देर तक छिपे नहीं रहते या बड़े देशों के सुरक्षा के रहस्य दूसरे बड़े देशों को फ़ौरन लीक हो जाते हैं। लीक इसलिए होते हैं, क्योंकि जो लीक हो सकता है वह अवश्य लीक होता है। 

5. हिंदू धर्म के प्रभाव का क्षितिज चाहे दिन-प्रतिदिन सिमट रहा हो ,पर हिंदू धर्म के महंत, मठाधीश स्वामियों के प्रभाव का क्षितिज भारतीय सीमा से कहीं आगे है। किसी भी गुरु से पूछो तो वह कहेगा कि ईमानदार चेले और समर्पित चेलियां भारत में आजकल मिलते कहाँ हैं?

6. शिक्षा एक ऐसी  बिगड़ी मोटर है, जिसके उन हिस्सों को भी सुधारना या बदलना है , जो नए लगे हैं। और न सिर्फ़ मोटर बल्कि ड्राइवर में भी सुधार करना है, बल्कि हो सके तो ड्राइवर भी बदलना है। 

7. अजीब गाड़ी है शिक्षा की, इसमें सब कुछ बदला जाना है। टूटी-फूटी इमारत फ़र्नीचर, पाठ्यक्रम, पढ़ाने की शैली , पढ़ाने की भाषा, पढ़ाने वाले, सामने खेलने का मैदान ,प्राप्त सुविधाएँ, दोपहर का नाश्ता ,टंकी का ख़राब पानी, बल्कि कुछ शिक्षकों और हेडमास्टरों से पूछो तो वे अपने छात्र बदलना चाहेंगे।

8. छिपाने के कौशल में हम भारतवासी संसार के देशों से कहीं आगे हैं। एक अभिनेत्री दूसरी अभिनेत्री से अपने प्रेम की जलन छिपाती है। एक कांग्रेसी दूसरे कांग्रेसी से अपना कुर्सी प्राप्त करने का इरादा छिपाता है। हीरो अपना प्रेम छिपाता है, सुंदरियाँ अपने को अधिकांश छिपा जाती हैं। 

9. हमारे देश में अधिकांश लोगों की प्रतिभा कुछ न कुछ छिपाने में लगी रहती है। कुछ लड़कियाँ अपनी कविताओं को छिपाकर रखती हैं, जैसे वे प्रेम पत्र हों, जिनके लिखे जाने से पहले उनके छिपाए जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। 

10. भारतीय प्रेमी-प्रेमिका की दूसरे से शादी हो जाती है, वे अपने मन की बात व्यक्त कर ही नहीं पाते। पति-पत्नी एक-दूसरे को चाहते हैं यह बात भी मोहल्ले वालों को सारे जीवन पता नहीं चल पाती। वे सोचते हैं कि बाल-बच्चेदार हैं तो चाहते ही होंगे। 


Saturday, October 19, 2024

शरद जोशी के पंच -15

 1. सुरक्षा गरीब देश का अधिकार है, जिसे क़ायम रखने के लिए अमेरिका सबको लड़ने के लिए ज़रूरत-बे-ज़रूरत शस्त्र देता है। 

2. किसी देश के नेता और वहाँ की सरकार अपने को असुरक्षित मानना स्वीकार न करे तो गरीब देशों के सुरक्षा हितों को सही गहराई में समझने वाला अमेरिका सी.आई.ए. स्तर से प्रयत्न कर वहाँ  की सरकार उलट देता है और एक ऐसी सरकार या डिक्टेटरशिप उत्पन्न करता है जो अपने गरीब देश के सुरक्षा हितों को प्राथमिकता दे, अमेरिका से शास्त्र माँगने लगती है।

3. जब चंदा बढ़ने लगता है ,तो उसे धंधे में लगाना पड़ता है। 

4.वाणिज्य करने वाले बड़े चतुर , व्यावहारिक  समझे जाते हैं। इसका मतलब है, लक्ष्मी सरस्वती के बेटों पर कृपा न करती हो, पर सरस्वती लक्ष्मी के बेटों पर कृपा करती है।

5.समाज सेवी जहां कम्बल बाँट गए, स्थानीय नेता वहाँ से वोट ले गया और पुलिस वाला वहाँ से हफ़्ता ले गया। अपराध अपनी जगह क़ायम रहा। झोपड़ी बनी रही।

6. बड़े लोगों में मनोवैज्ञानिक विकृतियाँ होना कोई आश्चर्य नहीं। 

7. मोहल्ले में जो पैसा फूंक दीपावली मंगलमय नहीं बनाता ,लोग उसे  थोड़ी हिक़ारत की नज़र से मुस्कराकर देखते हैं। औरतें ज़ेवरों से लदी हैं, पूरा राष्ट्र ज़ेवरों से लदा मिठाई खा रहा है। कोई दीपावली के दिन हमें देखकर नहीं कह सकता कि हमारे बदन में प्रोटीन और विटामिन की कमी है।

8. ऊँचे और पुख़्ता भवन बिना चोरी की कमाई के नहीं बनते। भवन का आधा हिस्सा सफ़ेद कमाई से बना हो, पर बाक़ी आधा बिना काली कमाई के पूरा नहीं होता। 

9. बड़ा घर बनाने वाला बड़ी चोरी करता है और छोटा घर बनाने वाला छोटी चोरी। 

10. इस देश में जो भी जल्दी सोकर उठता है ,वह  स्वयं को नैतिक दूसरों से अधिक बलवान मानता है। 

Tuesday, October 15, 2024

ब्लिंकइट मतलब -पलक झपकते

घर का  सामान आमतौर पर हम ही लाते हैं। बाज़ार पास है। टहलते हुए चले जाते हैं। ले आते हैं। काफ़ी सामान कैंटीन से भी आ जाता है। जो सामान यहाँ नही मिलता उसके लिए मॉल चले जाते हैं। घर का सामान आनलाइन नहीं ही मंगाते हैं। 

 दो दिन पहले चना और कुछ और सामान लाना था। हमने जाने में कुछ देर की। तब तक बेटे का फ़ोन आ गया। बातचीत में उसको पता चला कि ये सामान लाना है तो उसने कहा -'अभी आर्डर कर देते हैं। दस मिनट में आ जाएगा।' 

खाने-पीने का सामान, केक वग़ैरह बच्चे पहले भी मंगाते रहे हैं आनलाइन आर्डर करके। लेकिन दाल-चना परचून की दुकान वाली चीजें नहीं मंगाई गयीं थी अब तक। 

बच्चे ने सामान आर्डर कर दिया। 'ब्लिंकइट' एप से। लिंक हमको दे दिया। बताया दस मिनट में आ जाएगा सामान। दस मिनट में सामान घर आ जाना एप के नाम को ही सार्थक करता लगा। 'ब्लिंकइट' मतलब -पलक झपकते।

दस मिनट से कुछ पहले ही डिलीवरी बालक का फ़ोन आ गया। वह मेरे घर से क़रीब दो किलोमीटर दूर था। फ़ोन किया तो मैंने उसको रास्ता बताया। वह आया तो मैंने उससे पूछा -' पता तो यहाँ का दिया था। दो किलोमीटर दूर कैसे पहुँच गए?'

बालक ने बताया कि लोकेशन वहीं की दिखा रहा था। इसीलिए वहाँ पहुँच गए। 

बालक से ब्लिंकइट के काम करने के तरीक़े के बारे में पूछा तो पता चला -'पास ही आवास-विकास में बड़ा स्टोर है। आर्डर मिलते ही डिलीवरी बालक सामान लेकर लपकते हैं पहुँचाने के लिए। दस मिनट में डिलीवर हो जाता है। दस मिनट में नहीं डिलीवर होता है सामान तो कारण बताना पड़ता है। 

बालक की मोटरसाइकिल पर ढेर धूल जमी थी। हमने कहा -'साफ़ रखा करो।' तो बोला बालक -'समय ही नहीं मिलता।'

समय न मिलने की कहानी बताते हुए बोला बालक -'काम बहुत करना पड़ता है। सुबह से शाम तक डिलिवेरी करते हैं। कम्पनी वाले पैसा बचाने के लिए लड़के कम रखते हैं। 

सामान देकर बालक चला गया। हमको एक नई सामान सेवा की जानकारी हुई।

शाम को एक और सामान का आर्डर किया बेटे ने। सुबह यह रह गया था। सामान देने के लिए आया बालक फिर दो किलोमीटर दूर था। पता यहाँ का था लेकिन लोकेशन दो किलोमीटर दूर की। डिलीवरी बालक ने कहा -'लोकेशन यहाँ की ही है। आपके घर कैसे आएँ?' 

हमने रास्ता समझाया। लेकिन बालक अपनी परेशानी बताता रहा। उसकी समस्या यह भी थी या सही समझे तो यह ही थी कि दो किलोमीटर अतिरिक्त चलने में हुए तेल का भुगतान कौन करेगा? 

हमने कहा -'आ जाओ। देख लेंगे।'

बालक आया। सामान लेने के बाद हमने पूछा -'पता तो यहीं का है। तुम क्या वहाँ डिलीवर कर देते जहां लोकेशन के हिसाब पहुँचे थे ?'

उसने कहा -'आपकी बात सही है लेकिन हमको भुगतान लोकेशन के हिसाब से होता है। लोकेशन से अलग डिलीवरी करने पर तेल का पैसा अपने पास से लगता  है। '

पता चला कि बेटे ने चूँकि बाहर से आर्डर किया था सामान इसलिए लोकेशन और पते में अंतर था। अगर हम करते घर से आर्डर तो लोकेशन और पता एक रहता। 

बेटे ने चार सौ किलोमीटर दूर से किया था आर्डर। चार सौ किलोमीटर दूर से आर्डर करने पर लोकेशन और पते में दो किलोमीटर का अंतर आया। मतलब ब्लिंकइट एप में  0.5% की शुद्धता से दूरी का हिसाब करता है। 

बालक ने बताया कि वह यह काम करते हुए पढ़ाई भी करता है। कुछ कंपटीशन की तैयारी भी कर रहा है। उसकी बहन भी नर्सिंग का कोर्स कर रही है। दोनों साथ रहते हैं। संघर्ष है लेकिन मेहनत जारी है। 

आर्डर के हिसाब से एक डिलिवरी के लिए बालक को तीस रुपए मिलने थे। हमने आपने वायदे के मुताबिक़ उसे दे दिए। वह चला गया। 

बालक के जाने के बाद हम काफ़ी देर से इस बारे में सोचते रहे कि आज हर काम के लिए सेवाएँ उपलब्ध हैं। आप पैसा खर्च कीजिए हर सुविधा आपके पास हाज़िर है। पैसे के ज़ोर पर लोग अपनी सरकार तक बनवा ले रहे हैं। एक से एक बदमाश लोग मसीहा बने बैठे हैं इधर-उधर के पैसे के बल पर। 

लेकिन वो लोग क्या करें जिनके पास पैसे नहीं हैं? जिनके लिए ज़िंदगी जीना ही मुहाल है वे कौन सी सेवा लें? काश कोई ऐसा एप होता जो लोगों की न्यूनतम ज़रूरतों का इंतज़ाम करने में सहायक होता। 

लेकिन हमारे सिर्फ़ सोचने से क्या होता है ? दुनिया तो अपने चलन के हिसाब चलती है।




Sunday, October 13, 2024

शरद जोशी के पंच -14

 1. हमारे प्रजातांत्रिक देश में एक बड़ी सुविधा है कि आप महात्मा गांधी से सहमत होकर सत्तारूढ़ पार्थी चला सकते हैं और इसी महात्मा गांधी से सहमत होकर विरोधी दल बना सकते हैं। 

2. मुझे बीड़ी पीता आदमी एक खादी पहने व्यक्ति से ज़्यादा गांधीवादी लगता है। इसमें भारतीय आत्मनिर्भरता है। बीड़ी की टेक्नोलाजी और पैकिंग, जिसे हम बंडल कहते हैं, भारत में परम्परा से विकसित टेक्नोलाजी है।

3. भ्रष्टाचार से परिचय बाल्यकाल में हो जाता है। जन्म लेते ही बच्चे को पता लग जाता है कि नर्स को कुछ लिए-दिए बिना उसकी सफलता से जचकी नहीं हो पाती। 

4.  पिछले वर्षों में व्यवस्था में मनुष्य के जीवन की सारी सुविधाएँ कम करते और छीनते हुए बाज़ार उपभोक्ता सामग्री से पाट दिया है। रिटायर्ड अफ़सर भी चैन से नहीं बैठता। वह प्राइवेट पार्टी के चक्कर काटता, चंद रुपयों के लिए सरकारी रहस्य बेचता, अपने पुराने प्रभाव को भुनाते हुए टेंडर मंज़ूर करवाता फिरता है। नौकरियाँ तलासता रहता है ,ताकि जीवन की सुरक्षा बनी रहे और जीवन की और ऐश की सामग्रियाँ ख़रीदी जा सकें। 

5.  जगह और परिस्थितियाँ पक्ष में हों ,तो शासन करने वाला हद दर्जा नीच हो सकता है।

6. जिसमें ख़रीदने की ताक़त होती है, उसका कभी कुछ नही बिगड़ता। 

7. संसार के सभी देश एक कोण से दुकान होते हैं। 

8. लू चली तो लोग मरे, ठंड बढ़ी तो लोग मरे, बाढ़ आयी तो कुछ डूब गए, तूफ़ान आया और इतनी मौतें हुई, प्रकृति संबंधी हर सूचना इस देश में मृत्यु की सूचना है। 

9. हमारे देश में हेलिकाप्टर का यही महत्व है कि बाढ़ का तांडव देखा जाए। पानी जब जमा हो जाए तब उस पर आंसू बरसाकर पानी का स्तर और उठाया जाए। 

10. सड़क से लेकर जंगल तक हमने आदमी को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। किसी के मरने से हमें कमी महसूस नहीं होती। हमारे देश के बड़े लोग शायद उसे माल्थस के सिद्धांत के अनुसार ज़रूरी और सही मानते होंगे। 

11. सरकार यह मानकर चलती है कि मौसमी मौतें तो होंगी। जब सब कुछ नष्ट होने के साथ मौतें भी होंगी, तब हम भोजन के पैकेट गिराएँगे। जीवित को बचाने के लिए नहीं, मृतकों का श्राद्ध करने के लिए। हमारी यह संवेदना है, यही संस्कृति है। 

एक युवा के साथ कुछ देर

दो दिन पहले शहर में कहीं जाना था। शाम का समय। एक मांगलिक कार्यक्रम में। पहले सोचा अपनी गाड़ी से जाएँ। लेकिन फिर शहर में गाड़ी खड़ी करने की समस्या और दीगर बातें सोचकर तय किया कि ओला से चले जाएँ।
गाड़ी बुक की। तीन बार। तीनों बार ड्राइवर बोला -'आपकी लोकेशन से दूर हैं। कुछ पैसे राइड के अलावा दें तो आएँ।' हमने राइड कैंसल कर दी।
ये ओला/उबर/रैपिडो वाली गाड़ियाँ बुक होती हैं तो गाड़ी वालों को पैसा वहीं से मिलता जहां से सवारी उठाते हैं। सवारी तक पहुँचने की दूरी उनको अपने खर्चे पर तय करनी होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि पाँच किलोमीटर की दूरी के लिए पाँच से ज़्यादा किलोमीटर तय करना होता है। ड्राइवर मना कर देता है या ज़्यादा पैसे माँगता है। कम्पनियों को इसका इलाज करना चाहिए कुछ।
बहरहाल राइड कैंसल करने के बाद तय किया अपनी गाड़ी से ही चलते हैं। निकल ही रहे थे क़ि फ़ोन आया -'कहाँ आना है? किस जगह है घर आपका?'
पता चला कि हमारे राइड कैंसल करने के बाद भी अगली गाड़ी बुक हो गयी। पता नही कैसे? जबकि हमने बुकिंग से मना किया था।
ख़ैर हम इंतज़ार कर रहे थे गाड़ी। नक़्शे पर गाड़ी आती दिखी। पास आ गयी। लेकिन कहीं कोई कार दिखी नहीं। हमने फ़ोन किया तो पास आ गए दुपहिया वाहन का ड्राइवर बोला -'आ गए। चलिए।'
हमारे लिए ताज्जुब की बात थी। अपनी समझ में हमने कार की बुकिंग की थी। वो भी करके कैंसल कर दी थी। ये दुपहिया कहाँ से बुक हो गयी?
'हो जाती है जब आप कोई भी गाड़ी का विकल्प क्लिक करते हैं।'-हेलमेट लगाते हुए दुपहिया सवार बोला।
बहरहाल हम बमुश्किल तमाम बैठे पीछे। सीट काफ़ी ऊँची लगी। पैर घुमा के बैठने में लगा कि जाँघ का जोड़ हिल गया। शायद इसीलिए महिलाएँ एक तरफ़ ही पैर करके बैठती हैं दुपहिया गाड़ियों में।
दुपहिया चालक बालक ही था। बताया कि दादानगर में एक कम्पनी काम करता है। एकाउंटेंट का। बीकाम किया है। शाम को कुछ देर गाड़ी भी चला लेता है। अक्सर दादानगर से कल्याणपुर घर जाते हुए बीच की सवारी उठा लेता है। कभी घर से भी निकल जाता है गाड़ी लेकर। महीने में पाँच-सात हज़ार कमाई हो जाती है इससे। उसको शेयर मार्केट में लगा देता है। पैसा कमाता है, पैसा बचाता है।
एक कम्पनी के शेयर के बारे में बताया। पंद्रह हज़ार में शेयर ख़रीदे थे। सत्रह हज़ार का फ़ायदा हुआ। वो फ़ायदा निकाल लिया हमने। फिर ख़रीद लिए दूसरे शेयर। अपने पैसे निकाल लिए। अब पड़े रहेंगे। कुछ न कुछ देंगे ही फ़ायदा।
हमें लगा कि शायद Vivek Rastogi की पोस्ट्स पढ़ते हुए ज्ञान लेता रहता होगा।
शादी अभी नही हुई है। कह रहा था -'अभी कुछ कमाई कर लें। फिर शादी भी हो जाएगी।'
बालक ने बताया -'काम की कमी नहीं है आज भी। लड़के करते नहीं। वो घर बैठे आराम का पैसा चाहते हैं। लगी-लगाई नौकरी चाहते हैं सब जिसमें कोई मेहनत न करनी पड़े। बस पैसा मिलता रहे, चाहे कम मिले।'
अपने भाई के बारे में भी बताया -' वो कुछ करता नहीं। बस टाईम बरबाद करता रहता है।'
ऐसे तमाम लोग मेरी जानकारी में भी हैं जो किसी बड़े काम लायक़ काबिल नहीं लगते लेकिन कोई दूसरा काम करना नहीं चाहते। हाथ में आए काम से बढ़िया काम की तलाश में निठल्ले बैठे हैं। सालों से। लेकिन सामने दिखने वाले काम को शुरू नही करते।
गंतव्य पर पहुँचने पर बिल आया 41 रुपए। सात किलोमीटर दूरी तय की थी 41 रुपए में। हमें याद आया कि कार के 150 से ऊपर दिखा रहा था। सौ रुपए बचे। नया अनुभव हुआ सो अलग।
बालक ने हमको छोड़ा उस समय रात के क़रीब साढ़े नौ बज रहे थे। उसके काम का समय सुबह ग्यारह से शाम चार बजे तक का है। मतलब लगभग दस बजे सुबह से रात दस तक काम में जुटा रहता है बालक।
आज के समय शहरों में तमाम युवा ऐसी ज़िंदगी जी रहे हैं। दिन भर काम। मैं यह सोच रहा था कि ज़िंदगी की सबसे चमकदार उमर में उनके मनोरंजन और आनंद के मौक़े एकदम सिमट गए हैं। सामाजिकता की गुंजाइश कम से कम होती जा रही है। युवाओं के ऐसी ज़िंदगी कितनी सुकूनदेह है ?