Tuesday, October 11, 2005

मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो

http://web.archive.org/web/20110901033115/http://hindini.com/fursatiya/archives/58

कल्लू पहलवान अपने ढाबे में परशुराम की तरह टहलते हुये चाय की तरह उबल रहे थे। कमर का तहमद बार-बार भारतीय क्रिकेट टीम के मनोबल की तरह ढीला हो रहा था। यह तय करना मुश्किल नहीं था कि वे गुस्से में थे। लिहाजा चाय केलिये आदेश देने से पहले मैंने पूछ लिया:-

क्या हुआ पहलवान आज कुछ नाराज दिख रहे हो?

हां कुछ ऐसे ही सबेरे से मूड आफ है।
हमने कारण पूछा:-
क्या हुआ भाई कुछ बताओ तो?
बहुत पूछने पर फट पड़े पहलवान:- यार इन बैंको का दिमाग खराब है। साले स्कूल खोलने के लिये लोन नहीं दे रहे हैं। फालतू के सवाल पूछते हैं।
स्कूल खोलने का लोन? क्या कह रहे हो मियां?
यार, तुम तो ऐसे उचक रहे हो जैसे तुमसे ही मांग रहे हैं।
नहीं,नहीं मियां फिर भी जरा तफसील में बताओ।
यार हर तरफ पढ़ाई का जमाना है तो हमने भी सोचा कि हम भी लड़को के लिये सस्ते में पढ़ाई का इन्तजाम करें। इसीलिये लोन के लिये बैंक में अर्जी देने के लिये सोच रहा था। बैंक वाले मेरे ख्याल को तवज्जो ही नहीं दे रहे।
मियां इरादा तो नेक है तुम्हारा। इलाके में गरीब बच्चों के लिये कोई स्कूल भी नहीं है। लेकिन बैंक वाले मना क्यों कर रहे हैं? कितने रुपये का लोन अप्लाई किया था?
अरे ज्यादा नहीं २५० करोड़ के लिये किया था। पहलवान कान खुजाते बोले।
२५० करोड़!
मेरी चाय छलक गई। पहलवान कान खुजाते रहे बोले- अबे छोकरे साहब को दूसरी चाय लाके दे। कपड़ा मार दे मेज पर।
कुछ देर बाद पहलवान बोले हां २५० करोड़ । बढ़िया ‘इस्कूल’खोलेंगे।हाई-फाई टाइप का। जिसमें वाई-फाई भी होगा। कम्प्युटर-फम्प्यूटर होगा। दिस होगा,दैट होगा। धांसू ‘परफेसर’ पढ़ायेंगे। बवाली गुरु को भी बुला लिया करेंगे। बढ़िया पढ़ाई,कम पैसेमें। पर ये साले बैंक वाले माने तब न!
हमारी चौंकने की क्षमता चुक गई थी। हमने पहलवाल से अनुरोध किया मियां अब ज्यादा पहेलियां न बुझाओ। सीधे पूरी बात बताओ।
जो बताया पहलवान ने उसका लब्बो-लुआब ये था कि कुछ ब्लागर उनके ढाबे पर चाय पीने आये थे। उनकी आपस की बातचीत से उन्हें पता चला कि किसी लड़की ने किसी बिजनेस स्कूल के बारे में कुछ लिखा तो उस स्कूल के दो-तीन लड़कों ने उसके बारे में तमाम भद्दी-भद्दी बातें लिखीं। सुनकर पहले तो कल्लू पहलवान गुस्से के मारे फड़के। लेकिन ब्लागरों के जाने के बाद सोचा कि शायद बिजनेस स्कूलों में गालियां ही सिखाई जाती हैं। तभी से उन्हें अपना खुद का बिजनेस स्कूल खोलने की धुन सवार हो गई। बाकी का किस्सा हम बता ही चुके।
हमने पहलवान को समझाने की कोशिश की। यार बिजनेस स्कूल चलाना तुम्हारे बस का नहीं है। तमाम प्रतिभा,काबिलियत चाहिये।
प्रतिभा,काबिलियत के नाम पर पहलवान उखड़ गये । बोले- अबे क्या काबिलियत चाहिये? जिस तरह की बातें,गालियां बिजनेस इस्कूल के लौंडों ने लिखी लड़की के लिये उससे ज्यादा झन्नाटेदार तो हमारा वो छोकरा दे लेता है जो चाय के कप धो रहा है, जिसने स्कूल का मुंह नहीं देखा। जब बिजनेस स्कूलों में गालियां ही सिखाई जाती हैं तो हमीं क्या बुरे हैं जो दिन भर सैकड़ों को बिना फीस के ट्रेनिंग देते रहते हैं। इसीलिये आइडिया आया बिजनेस स्कूल खोलने का। पर बैंक राजी ही नहीं होता। तुम भी कह रहे हो कि हमसे नहीं होगा।
हम बड़ी मुश्किल से समझाने में कामयाब हुये कि पहलवान ये काम इतना आसान नहीं हैं जितना तुम समझ रहे हो।
पहलवान मान तो गये लेकिन रह-रहकर उनको लग रहा था कि उनका इरादा मुल्तवी करने के पीछे हमारी कोई साजिश है। उनका यह भी कहना था कि अगर स्कूल उनका होता और उनके स्कूल के किसी लड़के इस तरह की बदतमीजी की होती तो वे उसको दो कन्टाप मारते। कान पकड़कर उठक बैठक कराकर लड़की के सामने मुर्गा बना देते। तभी उठाते जब लड़की माफ कर देती।
हमने यह भी पूछा -
अगर वो न होता तुम्हारे स्कूल का तो?
पहलवान ने बिना विचलित हुये कहा- तब तो हम उसकी खोज में जमीन आसमान एक कर देते। पकड़ में आने पर मारे जूतों चांद गंजी कर देते। जब तक न मिलता तब तक इतना तो हम तुरन्त करते कि लड़की से कहते- ये बातें हमारे किसी लड़के ने नहीं लिखीं। हम इसकी निंदा करते हैं।
हमने पूछा कि अगर कोई कहे लड़की भी कम नहीं है। बहुत साल पहले गलत हरकतें करते पकड़ी गई थी?
पहलवान बोले यार यह तो ऐसी ही बात है कि कोई चोर पकड़े जाने पर कहे कि तुमको तो हमने बचपन में नंगे देखा है। शिकायत के जवाब की गई शिकायत किसी शिकायत का जवाब कैसे हो सकती है?
हमने यह भी पूछा कि अच्छा ये बताओ पहलवान, अगर कोई दूसरी दुकान वाला तुम्हारे किसी छोकरे को निकालने के लिये कहो तो?
अब ये तो इस बात पर हैं कि किस लिये कहता है, छोकरे की गलती क्या है? लेकिन बिना अपनी तसल्ली किये मैं उसे नहीं जाने देता।
और अगर वह यह कहकर जाने की जिद करता कि उसके दुकान में रहने से दुकान को नुकसान हो सकता है। दुकान के भले के लिये वह दुकान छोड़ना चाहता है। तब क्या करते?
तब मैं उसको हरगिज न छोड़ता। यार, कैसे उस छोकरे को अकेला चले जाने देता जो हमारी सलामती की चिंता कर रहा है। कैसे रोकता यह तो छोकरे के मिजाज पर है लेकिन मैं किसी भी कीमत पर उसे जाने नहीं देता। अगर ज्यादा ही जिद करता तो कहता कि ले बेटा ये ताला लगा दे दुकान पर। जिस दुकान की सलामती के लिये तू अपनी रोजी छोड़ने को तैयार है वो तेरे बगैर खुल कैसे सकती है? चल कैसे सकती है? पहलवान भावुकता के पाले में पहुंच गये थे।
मैं घर आगया।
तबसे सारा प्रकरण मेरे दिमाग के चक्कर काट रहा है।
किसी महिला ने कुछ सही-गलत तथ्यों के आधार पर किसी संस्थान की कमियां बताईं। उस संस्थान के तथाकथित छात्रों ने बेहूदा भाषा में उस लड़की पर तमाम कीचड़ उछाला। तमाम लोग इसकी निंदा कर रहे हैं। इस मुद्दे पर महिला के विचारों का समर्थक अपनी कंपनी के हित में नौकरी छोड़ देता है। कंपनी उसका त्यागपत्र स्वीकार कर लेती है। बातें
बड़ी सीधी हैं । लेकिनतमाम सवाल उठते हैं।
1.ये कैसे संस्थान हैं जो अपने लड़कों को इतनी जाहिल,कमीनी, जलालत भरी भाषा सिखाते हैं? इससे कई गुना बेहतर भाषा गुंडे,मवाली बोल लेते हैं जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा होता।
2.ये कैसा जाहिल संस्थान है जो अपने ऊपर लगे आरोपों (अगर वे गलत हैं तो) का जवाब नहीं दे पाता?
3.ये कितना असंस्कृत संस्थान है जो संस्थान के नाम पर एक महिला के खिलाफ इतनी टुच्चीभाषा के इस्तेमाल के लिये अपने तथाकथित छात्रों की भर्त्सना नहीं कर सकता? छात्र अगर उससे संबंधित नहीं हैं तो यह सूचित करते हुये खेद क्यों नहीं जता सकता?
4.किसी महिला के द्वारा लगाये आरोप के जवाब क्या उसको चरित्रहीन, समलैंगिक,मंदबुद्धि बताये बिना नहीं दिये जा सकते?
5.ये कैसी कंपनी है जो अपने किसी कर्मचारी को नौकरी छोड़ने की अनुमति दे देती है जो कंपनी की भलाई के लिये नौकरी छोड़ने का प्रस्ताव रखता है। कैसी ‘लीडरशिप क्वालिटीस’ सीखे हैं कंपनी के कर्णधार जो अपने आदमी को तब बाहर जाने की अनुमति दे देते हैं जब वह कंपनी की भलाई के लिये सोच रहा है तथा जिस समय उसको सहयोग की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
सवाल और भी तमाम सारे हैं। उनके जवाब पता नहीं क्या होंगे। एक बात बिजनेस स्कूलों की शिक्षा के बारे में। मैं कभी बिजनेस स्कूल में नहीं पढ़ा लेकिन लगता है कि उतपादन तकनीकों में सुधार के अलावा जितना बेचने के चोंचले सिखाते हैं वे जनता को वेबकूफ बनाने के तरीके होते हैं। बेहतरीन संप्रेषण तकनीक और प्रस्तुतिकरण से सही-गलत के बीच भेद खतम कर देने का हुनर है यह। एक शेर यह बात बेहतर ढंग से यह बात कह सकता है:-
मैं सच बोलूंगी हार जाऊंगी ,
वो झूठ बोलेगा लाजवाब कर देगा।

इस लाजवाब झूठ की नींव में अगर हवा न भरी होती तो आलोचना की सुई से उसकी हवा न निकलती।
दुनिया का सबसे बुद्धिमान तबका होने का दंभ भरने वालों तथा खुदी को आसमानी बुलंदियों तक पहुंचाने का माद्दा रखने वालों को यह समझने की भी जरूरत है कि भाषा उनका हथियार है। ताकत है। भाषा गलीज होगी तो कितने दिन कोई कल्लू पहलवान को रोकेगा किसी बिजनेस स्कूल का डायरेक्टर बनने से?
क्या विचार है आपका?
मेरी पसंद
१.पहले कमरे की खिड़कियां खोलो
फिर हवाओं में खुशबुयें घोलो,
सह न पाऊंगी अब मैं तल्खियां
मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो ।
२. अगर लौटा सको तो टूटता विश्वास लौटा दो,
बनो बादल धरा को फिर पुरानी प्यास लौटा दो।
अगर मजबूर हो तुम प्यार सच्चा दे नहीं सकते
तो झूठा ही सही पर प्यार का अहसास लौटा दो।।
-सरिता शर्मा,दिल्ली

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

11 responses to “मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो”

  1. Vinay
    अनूप,
    बात को खोल कर रख दिया है आपने. इस पूरे प्रकरण में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का विषय तो अपनी जगह है ही. पर हमारा तथाकथित “सभ्य” समाज इस भाषा में बात करता है, यह जानकर निराशा होती है. नब्ज पर हाथ रखने के लिए साधुवाद.
  2. sarika
    बहुत ही सही तरीके से आपने बात को सामने रखा है।
  3. अनुनाद
    अनूप जी , सबसे पहले आपके चिट्ठे रूप-रंग की प्रशंशा करना जरूरी है क्योंकि आजि सकी सुन्दरता देखते ही बन रही है |
    रही बात कन्या को अपशब्द कहने की , तो मैँ भी इसकी भर्त्सना करता हूँ | लेकिन आप इसकी जिम्मेसदारी से नही बच सकते क्योंकि आप ही तो “गालियोँ के सामाजिक महत्व” का प्रचार करते रहते हैं |
  4. जीतू
    बहुत सुन्दर प्रभु, सब कुछ साफ़ साफ़ खोल के रख दिया है। मामला क्या है, क्या नही। गलती किसकी है, किसकी नही मै इसकी तह मे नही जाना चाहता। लेकिन इतना कहे बिना रहा नही जाता:

    “दरअसल गलती स्कूल की नही है, गलती पढाने वालों की भी नही है, गलती है लालन पालन में। जैसा आचरण ये बच्चा लोग कर रहे है उनसे इनके उठने बैठने, चाल चलन और आसपास के माहौल की झलक दिखाई देती है। इस लड़्को में मुझे भविष्य के राजनेता दिखाई देते है।”
  5. Raj
    अच्हा है
  6. Mrinal
    this is perhaps the best piece I have read on how a debate/discussion should proceed. I am not aware of the issue that is being referred to. But the simple and straight manner in which distinct, significant points have been woven together is beautiful. Also, a masterpiece in how it conveys various points but especially:
    1. on not bringing in extraneous issues in criticism
    2. on not abandoning manners when not necessary
    3. on responsibility of organizations towards their employees.
    Even though fictitious, the pehelwaan strikes a chord in the heart of every sane person. I am not exaggerating but I would say that I would compare this character to some of the best ones in literature.
    While the ideas you have presented are, in my opinion, important but I am thoroughly impressed by the presentation. Marvellous! It was a great reading. Difficult to get across such pieces even in print. Thanks for publishing this post.
  7. फुरसतिया » एक और कनपुरिया मुलाकात
    [...] -इस समय हम कल्लू पहलवान के ढाबे पर खाना खा रहे हैं। उन्होंने जबरदस्ती इत्ता खिला दिया है नींद आ रही है। वे सोने नहीं दे रहे हैं। कह रहे हैं हमें भी ब्लाग लिखना सिखाऒ। हमने कहा कि लिखना पहलवानों का काम नहीं भाई! इसमें दिमाग लगता है। इस पर पहलवान कह रहे हैं- जब समीरपहलवान, जीतू पहलवान और बोधि पहलवान लिख सकते हैं तो हम काहे नहीं! लगता है पहलवनवा रोज डेली ब्लाग पढ़ता है। [...]
  8. फुरसतिया » संवेदना के नये आयाम
    [...] पिछले साल एक महिला अंग्रेजी ब्लागर से एक संस्थान के लड़कों ने गाली-गलौज की थी। उस महिला ब्लागर के दोस्तों से उस संस्थान के संचालक की ऐसी कम तैसी कर दी थी। महीनों सैकड़ों पोस्ट लिखीं गयीं थीं। मैंने भी लिखी थी एक पोस्ट । उस संस्थान के खिलाफ़ लिखते हुये मैंने लिखा था- [...]
  9. आते जाते खुबसूरत आवारा सड़कों पे - 1
    [...] जवानी के दिनों में इन्होंने साइकिल बड़ी दौड़ायी है, अब जवानी ढलने सी लगी है लेकिन दौड़ाने का शौक अभी तक बरकरार है इसलिये आजकल चिट्ठाकारों को चिट्ठाचर्चा के मंच तक दौड़ा लाते हैं। स्वयंभु फुरसतिया का फुरसत का अंदाजेबयाँ ये है – हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै। लेकिन बकौल कल्लू पहलवान वो औरों से कहते फिरते हैं – मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो। [...]
  10. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] पर जिंदगी बाकायदा आबाद है 3.कमजोरी 4.मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो 5.जहां का रावण कभी नहीं मरता 6.हमारी [...]

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