http://web.archive.org/web/20110926064940/http://hindini.com/fursatiya/archives/56
हर समाज में कुछ अच्छाइयां होती हैं, कुछ बुराइयां होती हैं।
अच्छाइयों का तो खैर क्या,बुराइयों के भी हम इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि
उनकी अनुपस्थिति चौंकाती है। हमारा शहर
भी इसका अपवाद नहीं है। बिजली इतनी गायब रहती है कि उसके देर तक बने रहने
पर लगता है कुछ गड़बड़ है जरूर। सड़क पर सुअर,गायें,गंदगी,पालीथीन वगैरह
नहीं दिखते तो आशंका होती है कि कुछ लफड़ा है जरूर।
किसी नेता की रैली में मारपीट,लूटपाट नहीं होती तो लगता है कि नेता जी का जनाधार खिसक रहा है ,नेताजी के पास इतने पैसे भी नहीं बचे के भीड़-भगदड़ का इन्तजाम कर सकें। वसूली वाले दफ्तरों में काम की शुरुआत बिना लेनदेन के शुरु होती है तो मन डीजल जनरेटर सा धड़कने लगता है कि हाय लगता है काम पूरा नहीं होगा।
मन इतना आदी हो गया है अव्यवस्थाओं का कि उनका न होना चौंकाता है। तर्क पद्धति कुछ ऐसी हो गयी है कि हर गड़बड़ी में आशावाद टटोलती है। पानी की कमी तथा बदइंतजामी के कारण जब बच्चे रैली में बेहोश होते हैं तो लगता है कि यह पानी के महत्व तथा भविष्य की चुनौतियों के बारे में बताने का सटीक तरीका है।
आम हो चुके हुड़दंग चौकाने की क्षमता खोते जा रहे हैं । कल ही चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्वविद्यालय के छात्रों ने जमकर उपद्रव किया। छात्रों ने रावतपुर रेलवे स्टेशन पर आरक्षण कराने के दौरान हुये झगड़े के बाद दुकानों में पथराव किया,फायर किये,वाहनों के शीशे तोड़े। चूंकि यह हमारे शहर की आम घटना बन चुकी है लिहाजा यह चौंकाती नहीं है। छात्र उपद्रव नहीं करेंगे तो कौन करेगा। यह तो उनका अपने को भविष्य के तैयार करने का प्रयास है।
कुछ दिन पहले एचबीटीआई के दो बालक एक दुकान पर पहुंचे। दुकान से उनकी मेस का सामान जाता था। बालकों ने सामान की खरीद का कमीशन मांगा। दुकानदार ने मना किया होगा या सौदा नहीं पटा होगा। मजबूरन गुम्मेंबाजी करनी पड़ी बालकों को।जब एस.पी. ने थाने बुला कर उनको डांटा तो वे बोले-जब नेता लेते हैं कमीशन तो हम क्यों नहीं ले सकते?सही भी है खाली इंजीनियरिंग की डिग्री से क्या होगा भविष्य में! विकल्प तो तलाशने ही होंगे।
यह तर्क प्रक्रिया तो उन घटनाओं के बारे में है जिनके हम आदी हो गये हैं। लेकिन अक्सर कुछ घटनायें हो ही जाती हैं जिनके लिये हमारे मन में तर्क तैयार नहीं होते। सिस्टम पुराना होने के कारण अक्सर झटका लगता लगता है। मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ कविता की तर्ज पर आवाज उठती है:-
ओ मेरे खुराफाती मन,
ओ मेरे शहराती मन,
ये घटनायें नई घट गईं,
गलियां खबरों से पट गईं,
तूने अब तक क्या किया,
इन झटको को किस तरह लिया,
कुछ अपने विचार तो लिख,
झटके का उपचार तो लिख,
वर्ना नई घटनायें भी घट जायेंगी,
सारी मिलजुलकर चिल्लायेंगी,
क्या तुम्हें हम नहीं रही हैं दिख?
ओ शहर के आलस की मूर्ति
अब तो हमारे पे कुछ लिख।
घटी हुई घटनाओं का विवरण जानने के लिये मैं पुराने अखबार दुबारा देखता हूं। पिछले कुछ दिनों के अखबार बताते हैं कि शहर में तेजाब की खपत बढ़ गई है। यह खपत न तो प्रयोगशालाओं में हो रही है न ही किसी उद्योग में। यह तेजाब खप रहा है लड़कियों के चेहरों में। आये दिन खबर आती है कि किसी लड़की के चेहरे पर उसके एकतरफा प्रेमी ने तेजाब फेंक दिया। चेहरा बदसूरत कर दिया।
खबरें बताती हैं कि लड़की खूबसूरत थी। हंसमुख थी। पढ़ने-लिखने में अच्छी थी । तमाम उन चीजों से युक्त थी जिसके लिये लड़कियां जानी जाती हैं। इन्ही तमाम चीजों के कारण कोई लड़का उसके प्रेम में गिर जाता है(फाल्स इन लव)। लड़की नहीं गिर पाती। या यह भी संभव है कि उसे पता ही न चलता हो कि उसका प्रेम दीवाना भी है कोई। लड़की की कुछ हरकतों से लड़के को लगता है कि लड़की को भी कुछ-कुछ हो रहा है। कुछ हरकतों से लगता है कि कुछ-कुछ तो हो रहा है लेकिन लड़की के सपनों का राजकुमार कोई दूसरा है। इन कुछ-कुछ हरकतों से लड़का परेशान हो जाता है। फिर वो सोचता है कि जो खूबसूरत चेहरा उसकी नींदे ,दिन-रात का चैन हराम किये है वो ऐसा कर दिया जाये ताकि उसकी खूबसूरती से तो निजात मिले।
दिल के हाथों मजबूर बालक किसी रासायनिक सामान बेचने वाले की दुकान जाता। एक लीटर सांद्र सल्फ्यूरिक अम्ल(तेजाब) खरीदता है। मौका पाकर अपना सारा प्यार, मय तेजाब के, अपने प्यार के प्यारे चेहरे पर उड़ेल देता है। लड़की का चेहरा जलाकर वह अपने प्रेम का अध्याय पूरा करता है।
इस मनोवृत्ति के कारण तो समाजशास्त्री ही बेहतर बता पायेंगे। इनका ग्राफ ऊपर क्यों जा रहा है यह विचारक ही बता सकते हैं । मुझे कुछ समझ में नहीं आता फिर भी दिल है कि मानता नहीं । कुछ कहना चाहता है।
मुझे लगता है कि हमारे समाज में बहुस्तरीय बदलाव आ रहे हैं। एक तरफ लड़कियां पढ़ रही हैं। आगे बढ़ रही हैं। जिंदगी के तमाम मोर्चों में कठिनाइयों लड़ भी रहीं हैं। वे लड़कों के बराबर आ रही हैं । उनका आत्मविश्वास बढ़ रहा है।
एक सर्वे के मुताबिक ,कुछ क्षेत्रों में (सेवा संबंधी) लड़कियां, लड़कों से बेहतर साबित हो रही हैं। अक्सर सेवा संबंधी नौकरियों में लड़कियों को लड़कों के मुकाबले तरजीह दी जाती है। लड़के सोचते हैं-काश हम भी लड़की होते।
इन्हीं कारणों के घालमेल का दूसरा पहलू भी है। विज्ञापनों , सौन्दर्य प्रतियोगिताओं,एंकरिंग आदि कुछ ऐसा समा बांधते हैं कि नारी आइटम के स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती। आम आदमी उसमें ‘माल‘ से ज्यादा कुछ तलाशने के पचड़े में नहीं पड़ता।
जब औरत आइटम में तब्दील होगी तो उससे व्यवहार का व्याकरण भी उसी तरह बदलेगा। वह ऐसी चीज में तब्दील हो जायेगी पाने के प्रयास में असफल व्यक्ति यह सोचेगा कि हमें न मिले तो किसी को क्यों मिले। येन-केन-प्रकारेण अपने चाहे को पाने की उत्कट अभिलाषा से पीड़ित असफल बालक मजबूरन उस चेहरे को बर्बाद करने की बहादुरी कर गुजरता है जिसको यादों में सहलाते हुये वो अपने दिन,महीने,साल बर्बाद कर चुका होता है।
यह उस किसान का अंदाज है जो आतताइयों के डर से गांव से भागते हुये अपनी फसल जला देता ताकि उसकी लगाई फसल का उपयोग वे न कर सकें। लड़की का प्रेमी यह नहीं चाहता जिसे उसने चाहा उसे कोई और चाहे। इसके लिये वह चेहरा ही बिगाड़ देता है ताकि वह चाहने लायक ही न रहे।
गलाकाट प्रतियोगिता,दिन पर दिन जटिल होते जा रहे समाज के तनाव,अपेक्षाओं व उपलब्धियों के बीच बढ़ते जा रहे अंतर ,आदर्शों की अनुपस्थिति लड़कों को जाने-अनजाने आवारा भीड़ में तब्दील करते जा रहे हैं।
ऐसे तो इतिहास भरा पड़ा है घटनाओं से जिसमें महिलाओं को सामान मानकर उन पर अत्याचार किये गये। लेकिन ऐसी घटनायें कम हैं जिनमें असफल प्रेमी ने अपनी प्रेमिका का सौन्दर्य भंग करने का प्रयास किया हो। आम तौर पर प्रेमी अपने प्रेम के लिये कोई भी कुर्बानी देकर प्रेम को उदात्त गुण के रूप में स्थापित करते रहे हैं।
पिछली शताब्दी की कहानी है -उसने कहा था। इसमें लहनासिंह अपनी भूतपूर्व प्रेमिका के पति को बचाने में अपनी जान दे देता है। जयशंकर प्रसाद की कहानी गुंडा में नायक की बोटी-बोटी कटकर गिरती रहती हैं लेकिन वह तबतक लड़ता रहता है जबतक उसकी कभी की एकतरफा प्रेमिका अपने पति के साथ सुरक्षित नहीं निकल जाते।
ये सारे आदर्श अब पुराने हो गये हैं। जमाना तेजी से बदल रहा है। समय का अभाव है। जो आइटम पसंद आ गया उसे तुरंत हासिल करना है। ये क्या कि बगीचे में बैठ के फालतू के गाने सुने जायें:-
यूं ही पहलू में बैठो रहो, आज जाने की जिद न करो।
या फिर बाप,भाई,बहन और दुनिया से छिपकर जब मुलाकात हो तो काम की बात न होकर सुनने को थरथराहट मिले :-
कितनी मुद्दत बाद मिले हो,न जाने कैसे लगते हो।
आज का प्रेमी अपने लक्ष्य के प्रति जागरूक है। वह इन फालतू के पचड़ों में नहीं पड़ता कि अपनी प्रेमिका के चेहरे में चांद तलासे। जुल्फों में बेवफा – बादल की घटायें खोजे। सीने के उतार-चड़ाव में लहरें खोजे। उसके पास समय का बहुत अभाव है ।’ही इज इन हरी’। लिहाजा वह सीधा रास्ता अपनाता है। बिना किसी दुराव-छिपाव के प्रेमिका की आंखों में आंखे डाल कर कहता है:-
तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त।
मस्त चीज से अपेक्षायें भी मस्ती की ही करता है:-
दे दे चुम्मा दे दे चुम्मा।
फिर वह शहंशाही अंदाज में फरियाद करता है:-
मैंने तुम्हें चुन लिया ,तू भी मुझे चुन।
इस आदेशात्मक अनुरोध के बाद नायक के कान किसी भी कीमत पर हां के अलावा कोई दूसरा जवाब नहीं सुनना चाहते। प्रेमिका को आइटम में तब्दील कर चुका होता है वह । आइटम की भी कोई भावनायें चाहतें हो सकती हैं यह वह समझ नहीं पाता। न जरूरत समझता है।
लेकिन जैसा बताया गया कि आज लड़कियां भी अपना भला बुरा समझने लगी हैं। अपने जीवन साथी की पसंदगी,नापसंदगी में अपनी राय रखती हैं। दूल्हा बेमेल होने पर बारात लौटा देती हैं दरवाजे से। जो काम पूरा समाज नहीं कर पाता मिलकर वह कर दिखाती हैं। वे बतातीं हैं कि अब लड़कियां गूंगी गुड़िया नही रहीं कि मां-बाप के बताये खूंटे से बंध जायें। हाड़-मांस के उनके शरीर में तमन्नायें भी हैं। उमंगे भी हैं। ये सारी बातें मिलकर लड़की को आइटम में तब्दील होने से रोकते हैं। बस यहीं से सारा झाम शुरु होता है।
लड़की के इंकार को लड़के पचा नहीं पाते। जाते हैं। तेजाब लाते हैं। उसका चेहरा जलाते हैं। न जाने कौन सा सुकून पाते हैं।
प्रेम लड़कियों के लिये बवालेजान बन गया है। बकौल प्रमोद तिवारी:-
ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजै,
तेजाब का दरिया है और डूब के जाना है ।
संभव है आप सोचे कि यह तो सोचने का मर्द वादी नजरिया है। लड़कियां क्या सोचतीं हैं इस पर यह तो कुछ पता नहीं। आपके ऐसा सोचने पर हमें कोई एतराज नहीं । लेकिन यह भी संभव है कि आप यह सोच कर सुकून की सांस लें कि शुक्र है मैं लड़की नहीं या मेरे कोई लड़की नहीं या हमारे इधर ऐसा नहीं होता। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो यह भी सोचना जरूरी है कि भले ही आप लड़की या लड़की के मां-बाप-भाई न हों लेकिन समाज आपका है जहां अच्छाइयां भले ही बैलगाड़ी की गति से चलें लेकिन बुराइयां जेट स्पीड से चलती हैं। एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने में उन्हें समय नहीं लगता।
बाकी आपकी मर्जी।
छलांग भर की दूरी पर
सड़क कालीन सी पसरी है
शाम के गढ़ियाते अंधेरे में
कोई साया तैरता सा गुजरता है।
कमरा भर अंधेरे के बाहर,
खिड़की के पार-
बरसाती घास के उस तरफ,
सड़क पर गुजरता शरीर
गाढ़ेपन में एकाकार हो
विलीन होता दीखता है।
पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।
-अनूप शुक्ला
किसी नेता की रैली में मारपीट,लूटपाट नहीं होती तो लगता है कि नेता जी का जनाधार खिसक रहा है ,नेताजी के पास इतने पैसे भी नहीं बचे के भीड़-भगदड़ का इन्तजाम कर सकें। वसूली वाले दफ्तरों में काम की शुरुआत बिना लेनदेन के शुरु होती है तो मन डीजल जनरेटर सा धड़कने लगता है कि हाय लगता है काम पूरा नहीं होगा।
मन इतना आदी हो गया है अव्यवस्थाओं का कि उनका न होना चौंकाता है। तर्क पद्धति कुछ ऐसी हो गयी है कि हर गड़बड़ी में आशावाद टटोलती है। पानी की कमी तथा बदइंतजामी के कारण जब बच्चे रैली में बेहोश होते हैं तो लगता है कि यह पानी के महत्व तथा भविष्य की चुनौतियों के बारे में बताने का सटीक तरीका है।
आम हो चुके हुड़दंग चौकाने की क्षमता खोते जा रहे हैं । कल ही चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्वविद्यालय के छात्रों ने जमकर उपद्रव किया। छात्रों ने रावतपुर रेलवे स्टेशन पर आरक्षण कराने के दौरान हुये झगड़े के बाद दुकानों में पथराव किया,फायर किये,वाहनों के शीशे तोड़े। चूंकि यह हमारे शहर की आम घटना बन चुकी है लिहाजा यह चौंकाती नहीं है। छात्र उपद्रव नहीं करेंगे तो कौन करेगा। यह तो उनका अपने को भविष्य के तैयार करने का प्रयास है।
कुछ दिन पहले एचबीटीआई के दो बालक एक दुकान पर पहुंचे। दुकान से उनकी मेस का सामान जाता था। बालकों ने सामान की खरीद का कमीशन मांगा। दुकानदार ने मना किया होगा या सौदा नहीं पटा होगा। मजबूरन गुम्मेंबाजी करनी पड़ी बालकों को।जब एस.पी. ने थाने बुला कर उनको डांटा तो वे बोले-जब नेता लेते हैं कमीशन तो हम क्यों नहीं ले सकते?सही भी है खाली इंजीनियरिंग की डिग्री से क्या होगा भविष्य में! विकल्प तो तलाशने ही होंगे।
यह तर्क प्रक्रिया तो उन घटनाओं के बारे में है जिनके हम आदी हो गये हैं। लेकिन अक्सर कुछ घटनायें हो ही जाती हैं जिनके लिये हमारे मन में तर्क तैयार नहीं होते। सिस्टम पुराना होने के कारण अक्सर झटका लगता लगता है। मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ कविता की तर्ज पर आवाज उठती है:-
ओ मेरे खुराफाती मन,
ओ मेरे शहराती मन,
ये घटनायें नई घट गईं,
गलियां खबरों से पट गईं,
तूने अब तक क्या किया,
इन झटको को किस तरह लिया,
कुछ अपने विचार तो लिख,
झटके का उपचार तो लिख,
वर्ना नई घटनायें भी घट जायेंगी,
सारी मिलजुलकर चिल्लायेंगी,
क्या तुम्हें हम नहीं रही हैं दिख?
ओ शहर के आलस की मूर्ति
अब तो हमारे पे कुछ लिख।
घटी हुई घटनाओं का विवरण जानने के लिये मैं पुराने अखबार दुबारा देखता हूं। पिछले कुछ दिनों के अखबार बताते हैं कि शहर में तेजाब की खपत बढ़ गई है। यह खपत न तो प्रयोगशालाओं में हो रही है न ही किसी उद्योग में। यह तेजाब खप रहा है लड़कियों के चेहरों में। आये दिन खबर आती है कि किसी लड़की के चेहरे पर उसके एकतरफा प्रेमी ने तेजाब फेंक दिया। चेहरा बदसूरत कर दिया।
खबरें बताती हैं कि लड़की खूबसूरत थी। हंसमुख थी। पढ़ने-लिखने में अच्छी थी । तमाम उन चीजों से युक्त थी जिसके लिये लड़कियां जानी जाती हैं। इन्ही तमाम चीजों के कारण कोई लड़का उसके प्रेम में गिर जाता है(फाल्स इन लव)। लड़की नहीं गिर पाती। या यह भी संभव है कि उसे पता ही न चलता हो कि उसका प्रेम दीवाना भी है कोई। लड़की की कुछ हरकतों से लड़के को लगता है कि लड़की को भी कुछ-कुछ हो रहा है। कुछ हरकतों से लगता है कि कुछ-कुछ तो हो रहा है लेकिन लड़की के सपनों का राजकुमार कोई दूसरा है। इन कुछ-कुछ हरकतों से लड़का परेशान हो जाता है। फिर वो सोचता है कि जो खूबसूरत चेहरा उसकी नींदे ,दिन-रात का चैन हराम किये है वो ऐसा कर दिया जाये ताकि उसकी खूबसूरती से तो निजात मिले।
दिल के हाथों मजबूर बालक किसी रासायनिक सामान बेचने वाले की दुकान जाता। एक लीटर सांद्र सल्फ्यूरिक अम्ल(तेजाब) खरीदता है। मौका पाकर अपना सारा प्यार, मय तेजाब के, अपने प्यार के प्यारे चेहरे पर उड़ेल देता है। लड़की का चेहरा जलाकर वह अपने प्रेम का अध्याय पूरा करता है।
इस मनोवृत्ति के कारण तो समाजशास्त्री ही बेहतर बता पायेंगे। इनका ग्राफ ऊपर क्यों जा रहा है यह विचारक ही बता सकते हैं । मुझे कुछ समझ में नहीं आता फिर भी दिल है कि मानता नहीं । कुछ कहना चाहता है।
मुझे लगता है कि हमारे समाज में बहुस्तरीय बदलाव आ रहे हैं। एक तरफ लड़कियां पढ़ रही हैं। आगे बढ़ रही हैं। जिंदगी के तमाम मोर्चों में कठिनाइयों लड़ भी रहीं हैं। वे लड़कों के बराबर आ रही हैं । उनका आत्मविश्वास बढ़ रहा है।
एक सर्वे के मुताबिक ,कुछ क्षेत्रों में (सेवा संबंधी) लड़कियां, लड़कों से बेहतर साबित हो रही हैं। अक्सर सेवा संबंधी नौकरियों में लड़कियों को लड़कों के मुकाबले तरजीह दी जाती है। लड़के सोचते हैं-काश हम भी लड़की होते।
इन्हीं कारणों के घालमेल का दूसरा पहलू भी है। विज्ञापनों , सौन्दर्य प्रतियोगिताओं,एंकरिंग आदि कुछ ऐसा समा बांधते हैं कि नारी आइटम के स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती। आम आदमी उसमें ‘माल‘ से ज्यादा कुछ तलाशने के पचड़े में नहीं पड़ता।
जब औरत आइटम में तब्दील होगी तो उससे व्यवहार का व्याकरण भी उसी तरह बदलेगा। वह ऐसी चीज में तब्दील हो जायेगी पाने के प्रयास में असफल व्यक्ति यह सोचेगा कि हमें न मिले तो किसी को क्यों मिले। येन-केन-प्रकारेण अपने चाहे को पाने की उत्कट अभिलाषा से पीड़ित असफल बालक मजबूरन उस चेहरे को बर्बाद करने की बहादुरी कर गुजरता है जिसको यादों में सहलाते हुये वो अपने दिन,महीने,साल बर्बाद कर चुका होता है।
यह उस किसान का अंदाज है जो आतताइयों के डर से गांव से भागते हुये अपनी फसल जला देता ताकि उसकी लगाई फसल का उपयोग वे न कर सकें। लड़की का प्रेमी यह नहीं चाहता जिसे उसने चाहा उसे कोई और चाहे। इसके लिये वह चेहरा ही बिगाड़ देता है ताकि वह चाहने लायक ही न रहे।
गलाकाट प्रतियोगिता,दिन पर दिन जटिल होते जा रहे समाज के तनाव,अपेक्षाओं व उपलब्धियों के बीच बढ़ते जा रहे अंतर ,आदर्शों की अनुपस्थिति लड़कों को जाने-अनजाने आवारा भीड़ में तब्दील करते जा रहे हैं।
ऐसे तो इतिहास भरा पड़ा है घटनाओं से जिसमें महिलाओं को सामान मानकर उन पर अत्याचार किये गये। लेकिन ऐसी घटनायें कम हैं जिनमें असफल प्रेमी ने अपनी प्रेमिका का सौन्दर्य भंग करने का प्रयास किया हो। आम तौर पर प्रेमी अपने प्रेम के लिये कोई भी कुर्बानी देकर प्रेम को उदात्त गुण के रूप में स्थापित करते रहे हैं।
पिछली शताब्दी की कहानी है -उसने कहा था। इसमें लहनासिंह अपनी भूतपूर्व प्रेमिका के पति को बचाने में अपनी जान दे देता है। जयशंकर प्रसाद की कहानी गुंडा में नायक की बोटी-बोटी कटकर गिरती रहती हैं लेकिन वह तबतक लड़ता रहता है जबतक उसकी कभी की एकतरफा प्रेमिका अपने पति के साथ सुरक्षित नहीं निकल जाते।
ये सारे आदर्श अब पुराने हो गये हैं। जमाना तेजी से बदल रहा है। समय का अभाव है। जो आइटम पसंद आ गया उसे तुरंत हासिल करना है। ये क्या कि बगीचे में बैठ के फालतू के गाने सुने जायें:-
यूं ही पहलू में बैठो रहो, आज जाने की जिद न करो।
या फिर बाप,भाई,बहन और दुनिया से छिपकर जब मुलाकात हो तो काम की बात न होकर सुनने को थरथराहट मिले :-
कितनी मुद्दत बाद मिले हो,न जाने कैसे लगते हो।
आज का प्रेमी अपने लक्ष्य के प्रति जागरूक है। वह इन फालतू के पचड़ों में नहीं पड़ता कि अपनी प्रेमिका के चेहरे में चांद तलासे। जुल्फों में बेवफा – बादल की घटायें खोजे। सीने के उतार-चड़ाव में लहरें खोजे। उसके पास समय का बहुत अभाव है ।’ही इज इन हरी’। लिहाजा वह सीधा रास्ता अपनाता है। बिना किसी दुराव-छिपाव के प्रेमिका की आंखों में आंखे डाल कर कहता है:-
तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त।
मस्त चीज से अपेक्षायें भी मस्ती की ही करता है:-
दे दे चुम्मा दे दे चुम्मा।
फिर वह शहंशाही अंदाज में फरियाद करता है:-
मैंने तुम्हें चुन लिया ,तू भी मुझे चुन।
इस आदेशात्मक अनुरोध के बाद नायक के कान किसी भी कीमत पर हां के अलावा कोई दूसरा जवाब नहीं सुनना चाहते। प्रेमिका को आइटम में तब्दील कर चुका होता है वह । आइटम की भी कोई भावनायें चाहतें हो सकती हैं यह वह समझ नहीं पाता। न जरूरत समझता है।
लेकिन जैसा बताया गया कि आज लड़कियां भी अपना भला बुरा समझने लगी हैं। अपने जीवन साथी की पसंदगी,नापसंदगी में अपनी राय रखती हैं। दूल्हा बेमेल होने पर बारात लौटा देती हैं दरवाजे से। जो काम पूरा समाज नहीं कर पाता मिलकर वह कर दिखाती हैं। वे बतातीं हैं कि अब लड़कियां गूंगी गुड़िया नही रहीं कि मां-बाप के बताये खूंटे से बंध जायें। हाड़-मांस के उनके शरीर में तमन्नायें भी हैं। उमंगे भी हैं। ये सारी बातें मिलकर लड़की को आइटम में तब्दील होने से रोकते हैं। बस यहीं से सारा झाम शुरु होता है।
लड़की के इंकार को लड़के पचा नहीं पाते। जाते हैं। तेजाब लाते हैं। उसका चेहरा जलाते हैं। न जाने कौन सा सुकून पाते हैं।
प्रेम लड़कियों के लिये बवालेजान बन गया है। बकौल प्रमोद तिवारी:-
ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजै,
तेजाब का दरिया है और डूब के जाना है ।
संभव है आप सोचे कि यह तो सोचने का मर्द वादी नजरिया है। लड़कियां क्या सोचतीं हैं इस पर यह तो कुछ पता नहीं। आपके ऐसा सोचने पर हमें कोई एतराज नहीं । लेकिन यह भी संभव है कि आप यह सोच कर सुकून की सांस लें कि शुक्र है मैं लड़की नहीं या मेरे कोई लड़की नहीं या हमारे इधर ऐसा नहीं होता। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो यह भी सोचना जरूरी है कि भले ही आप लड़की या लड़की के मां-बाप-भाई न हों लेकिन समाज आपका है जहां अच्छाइयां भले ही बैलगाड़ी की गति से चलें लेकिन बुराइयां जेट स्पीड से चलती हैं। एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने में उन्हें समय नहीं लगता।
बाकी आपकी मर्जी।
मेरी पसंद
छलांग भर की दूरी पर
सड़क कालीन सी पसरी है
शाम के गढ़ियाते अंधेरे में
कोई साया तैरता सा गुजरता है।
कमरा भर अंधेरे के बाहर,
खिड़की के पार-
बरसाती घास के उस तरफ,
सड़क पर गुजरता शरीर
गाढ़ेपन में एकाकार हो
विलीन होता दीखता है।
पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।
-अनूप शुक्ला
हमारे समाज में लड़की का पिता हमेशा चिन्ताओं से घिरा रहता है जबकि लड़के के पिता को कोई चिन्ता नहीं होती। मगर हम हमेशा यही सोंचते हैं कि समाज में हो रही प्रतिदिन ऎसी घटनाओं को देखकर क्या उन्हें कभी ये चिन्ता नहीं सताती होगी कि कल को हमारा बेटा भी कुछ ऎसा न कर दे, या ऎसी किसी घट्ना के पीछे हमारे बेटे का हांथ तो नहीं। खैर, ये कुछ ऎसे अनुत्तरित प्रश्न हैं जिनका उत्तर सभी अपने अपने ढंग से दे सकते हैं, मगर फिर भी वो प्रश्न अनुत्तरित ही रहते है|
बहुत सँजीदा विषय पर बहुत अच्छा लिखा है आपने|
-राजेश कुमार सिंह
(सुमात्रा)
स्त्रियों का जो भी स्थान घर में है और, जो स्थान समाज में है, उनमें भिन्नता है। पहले, इस प्रसंग के घर वाले पहलू पर ध्यान देंगे, पुनः समाज के बारे में भी सोचेंगे। झगड़े, घरों में, सिर्फ सास-बहू में ही नहीं होते, पति-पत्नी में भी होते हैं। पर जो अमानुषिक प्रताड़ना कुछेक को, सिर्फ नारी होने की वजह से घरों में मिलती है, विवाह के पश्चात नये घर के होने की वजह से, शुरूआती दौर में तो, इसका कारण मुख्यतया दहेज ही होता है। बाद में, हो सकता है, हर स्त्री का दुर्भाग्य अपने अलग-अलग रास्ते ढ़ूँढ़ कर प्रकट होता हो। किसी दम्पति को, (अपवादों को छोड़ कर) दस-पन्द्रह सालों के वैवाहिक जीवन बिताने के उपरान्त आपने, तलाक, जलाये जाने, या, मारे पीटे जाने की घटनाओं के बारे में कभी सुना है ? कारण शायद यह होता है, कि अगर विवाह पूर्णतया सफल नहीं भी है, तो वह एक आकार ग्रहण कर लेता है, चीजें जीवन के भाग-दौड़ में एडजस्ट हो जाती हैं। सभी विवाहित दम्पति सुखी होते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन, सिर्फ पति-पत्नी के सम्बन्धों को ले कर, जुड़े रहना भी एक मानवीय आत्मीयता है, जिसकी समझ हममें से गायब हो चुकी है। हर सम्बन्धों में, दूसरे से ज्यादा पाने की अपेक्षा हावी हो गयी है। यह शायद समय का परिवर्तन ही है, जो, स्त्री को वस्तु के रूप में देखने वाले दिमागों को भी नहीं रोकता है, न हीं टोकता है। सब कुछ “चलता है” जैसे मुहावरों में खो जाता है, अभिशप्त रूप में। कई वर्ष (लगभग २० वर्ष) पहले की बात है, मैं अपने पिता जी के सहकर्मी एक अन्य अध्यापक की बड़ी बहन से मिलने गया था। वे जब छोटी रही होंगी, तब किसी बारात में, उनके पिता जी से, उनके किसी बाराती मित्र ने हँसी में ही अपने लड़के के लिये, बहू बनाने की कह दी। बाद में भी, वे लोग एक-दूसरे को समधी के रूप में, भले ही मजाकवश, इज्जत करने, पाने लगे। विवाह का समय आने तक, वह लड़का अमरीका चला गया। लोग अटकलें लगाने लगे, कि अब यह सम्बन्ध सिर्फ ठिठोली ही रह जायेगी। लेकिन, सिर्फ सम्बन्धों के प्रति गहरे सम्मान की वजह से, लड़के ने न सिर्फ पिता की उस ठिठोली का मान रक्खा बल्कि, तमाम लोगों की अटकलों के बावजूद, वे उन्हें अमरीका भी साथ ले गये। वे जीवन पर्यन्त साथ रहीं। कहीं न दहेज आड़ा आया न हीं उनकी शिक्षा आड़े आयी, न हीं उनकी सुन्दरता !
पर, समाज के सामने, स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध सिर्फ नग्न स्वरूप हैं। कुछ विकृत आदर्श हैं, जिन्हें आप मान्य मूल्य भी कह सकते हैं, और व्यक्ति को ये मान्य मूल्य और स्थापित परम्परायें ठीक से अपने बारे में सोचने समझने भी नहीं देतीं। ऐसे में, पति-पत्नी के सम्बन्ध, पारिवारिक चहारदवारियों में सिर्फ जड़ता भर का अहसास पैदा करेंगे, यह निश्चित है। जो स्त्री को वस्तु मानेगा, समझेगा, जाहिर है, वह पत्नी को कुछेक मायनों के पूर्ति के बाद, उस स्त्री को पत्नी या वस्तु भी नहीं, बल्कि उसे बेकार की वस्तु यानी कूड़ा के रूप में आँकेगा, या, आँकने के लिये विवश होगा, । फिर, कूड़े-करकटों जैसा व्यवहार ही, इस सोच और विचार की विकृत एवं अवश्यम्भावी परिणति होती है।
प्रश्न यहाँ पर है, कि जब स्त्री, आदमी के बराबर खड़ी ही नहीं हो सकती है, तो वह समाज या घर में, जियेगी कैसे ? चलेगी कैसे ? जुड़ी हुई बहुत सारी बातें हैं। राजेन्द्र सिंह बेदी ने “एक चादर मैली सी” की शुरूआत ही की है, इस तरह से,”लड़की तो किसी दुश्मन को भी न दे भगवान! ” । अब आप सोचिये, कि तब से ले कर आज तक में, स्त्रियों के स्थिति में क्यों नहीं सुधार हुआ ? परिवर्तन आया, तो सिर्फ बलात्कारों की संख्या में वृद्धि, दस-बारह साल के वय की लड़की से बलात्कार, हत्या और, तेजाब फेंकने के रूप में ही क्यों आया ?
मेरा यह दृढ़ विश्वास है, कि जब तक स्त्रियों के प्रति अमानुषिक रवैये को ले कर, लोगों में खौफ नहीं पैदा होगा, स्थिति कभी नहीं सुधरेगी। समाज में प्रेम का आदर्श चाहे रहे ना रहे, अमानवीय कृत्यों के प्रति खौफ पैदा होना, रोजी-रोटी के सवाल से भी ज्यादा आवश्यक है। प्रेम में फरार हो कर भागे लड़के-लड़कियों को, पकड़ कर, पंचायत बुला कर, सबके सामने सिर काटने वाले समाज को, ऐसे अपराधियों को भी चौराहे पर खड़ा कर कत्ल करना ही होगा, नहीं तो आँख मूँदे रहने वाली यह प्रवृत्ति, अपराधियों को दिन पर दिन, हादसे दर हादसे, और ढ़ीठ बनाती ही रहेगी।
-राजेश कुमार सिंह
(सुमात्रा)
एक बहुत ही महत्तवपूर्ण विषय पर विस्तृत संवेदनशील चिन्तन। बहुत जरूरी था। आप ने सही कहा ऐसे व्यवहार के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण शोध करने चाहिएं।