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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
आपका संकल्प क्या है?
हमारे एक मित्र हैं। उनकी कन्या पढ़ने में बहुत अच्छी रही।
कम्प्यूटर में बीटेक करने के बाद फिलहाल एक अच्छी फर्म में नौकरी करती है।
दो-तीन साल में ही उसकी तन्ख्वाह रिटायरमेंट के नजदीक पहुंच चुके पिता की
तन्ख्वाह से काफी ज्यादा हो गयी है।पिता अपनी कन्या की सफलता से जितना गर्व
महसूस करते हैं उससे ज्यादा वे अपनी बच्ची के लिये लड़का तलाशने में
चिंतित रहते हैं।
एक लड़के के बारे में वे बातचीत करने लड़के के घर गये। लड़के के पिता बड़े प्रसन्न लड़की के कैरियर से। प्रतिभा-गुण समुच्चय से। कन्या पक्ष भी संतुष्ट लड़के के घर-परिवार से। लड़का इंग्लैंड में इंजीनियर है। बातचीत सरपट दौड़ रही थी।
यह तय हो गया कि शादी कैसे होगी,कब होगी ,कहां होगी।तमाम खुशनुमा बातचीत के बाद बस चला-चली के पहले वर के पिताजी ने अपनी सारी मासूमियत से कन्या पिता से पूछा -आपका संकल्प क्या है?
कन्या के पिता ने कहा -मुझे कुछ अंदाजा नहीं कि आपकी आशा क्या है। आप बतायें क्या ठीक रहेगा?
वर पिता ने निर्लिप्त होकर कहा-मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूंगा। आप स्वयं बतायें कि आपका संकल्प क्या है?
कन्या के पिताने सारा साहस बटोर कर कहा- हम लोग ५-६ लाख खर्चा करने के लिये तैयार हैं।
वर पिता ने कहा -इतने में कैसे होगा? दस-दस लाख की शादियां तो यहां मारी-मारी फिर रही हैं।
कुछ और मोलभाव के बाद लड़के के दाम एकाध लाख बढ़ाये गये। लेकिन बाप ने अपने जिगर के टुकड़े की कीमत कम करने में असमर्थता जाहिर की।वह मजबूर था। हर तरह से लड़के के लिये उपयुक्त लड़की मिलने के बावजूद वह कम दाम में लड़के को बेचकर अपनी बदनामी नहीं कराना चाहता था।
लड़की के पिता लड़की की कुंडली तथा अपना मुंह लेकर वापस लौट आये।
संकल्प का सवाल उनके लिये वाटरलू साबित हुआ।
हमें जब यह बताया गया तो बेशाख्ता मेरे मुंह से निकला -लड़का क्या भीख मांगता है?
दोस्त ने बताया -नहीं वह तो इंग्लैंड में है।
यह आम बात है आजकल।जो लड़का जरा से कहीं हिल्ले से लग गया उसके भाव आसमान छूने लगते हैं।मजे की बात है कि मां-बाप से अबे- तबे तक करने वाले लड़के इस मामले में श्रवणकुमार बन जाते हैं। वे लड़की खूबसूरत चाहेंगे,पढ़ी-लिखी चाहेंगे,साइंस साइड,कान्वेंटी,नौकरी करने वाली चाहेंगे । यह सब कुछ लड़का तय करता है। सीधे या ‘थ्रू प्रापर चैनेल’। इसके बाद वह नेपथ्य में चला जाता है -कमान अपने पिता को सौंपकर। पिताजी संकल्प का बीमर मारकर लड़की वाले को घायल कर देते हैं।
कुछ उदार वर पिता उत्साह वर्धन भी करते रहते हैं-मारुति तो आप खुद कह रहे हैं देने को। थोड़ा और हिम्मत करिये -सैंट्रो तक तो आइये। हमें अपने लिये तो कुछ चाहिये नहीं जो करेंगे आप अपनी लड़की के लिये करेंगे।
मध्यमवर्ग में लड़की की शादी बहुत बड़ा पराक्रम का काम है। जिस तरह राणा सांगा के अस्सी घाव उनके पराक्रम के प्रतीक माने जाते हैं उसी तर्ज पर कहा जाता है-साहब ये बहुत पराक्रमी हैं,तीन लड़कियों की शादी निपटा चुके हैं।
इसीलिये हमारे शाहजहांपुर के कवि अजयगुप्तजी ने ,जिनकी तीन बेटियां हैं, लिखा है:-
सूर्य जब-जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच बताऊँ बेटियों के बाप सा मुझको लगा।
हरिशंकर परसाई कहा करते थे-देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है। चौथाई ताकत छिपाने में जा रही है-प्रेम करके छिपाने में,पाप करके छिपाने में। बाकी चौथाई ताकत देश की प्रगति में लगी है। सो जो प्रगति हो रही है चौथाई ताकत से बहुत हो रही है।
इस सारे घटनाक्रम में लड़कों की भूमिका बहुत निराशाजनक है।लड़का अपनी कीमत लगते देखता है तथा नीलाम होता रहता है। पता नहीं कहां की आज्ञाकारिता आ जाती है उसमें! आजकल तमाम घटनायें सुनने में आ रही हैं जिसमें लड़कियां दहेज की जिद करने वाले लड़कों से शादी करने से इंकार रही हैं लेकिन लड़कों के बारे में ऐसी बहुत कम कहानियां सुनने को आती हैं।
चोटी के संस्थान में कन्याओं द्वारा तोते से अपना भाग्यफल बंचवाने की विसंगति से कड़वी विसंगति यह है कि पढ़े-लिखे समझदार लड़के इस स्थिति से उदासीन अपने को तरह-तरह से खुशी-खुशी या निर्लिप्त भाव से बेंच रहे हैं।
कारण पता नहीं क्या हैं लेकिन बाजार का बहुत बड़ा दखल है इसमें। आराम के तमाम साधन जो पहुंच के बाहर हैं वह दूल्हा शादी में एक मुश्त पा लेना चाहता है। वह जिंदगी को शानदार अंदाज में जीना चाहता है। टुटही मेज ,फिर साबुत मेज ,फिर डायनिंग टेबल का सफर उसे बड़ा नागवार लगता है। एक क्लर्क अपनी तन्ख्वाह से कार कभी नहीं खरीद पायेगा लेकिन मंडप को वह कल्पवृक्ष मानकर सब कुछ तुरंत हासिल कर लेना चाहता है।
ऐसा नहीं कि सारे लड़के ऐसे होते हैं। कुछेक होते हैं जो आदर्शों के चलते इससे टकराने का प्रयास करते हैं लेकिन समाज का मकड़जाल उनको ऐसा धोबीपाट मारता है कि वे घुग्घू बने रह जाते हैं।
ऐसा ही एक किस्सा हमारे पड़ोस में हुआ। लड़का ने अपने तथा कन्या के पिता से साफ कहा कि शादी में कोई लेनदेन न होगा। दोनों ने कहा -ठीक। लड़का काफी दिन खुशफहमी में रहा कि उसने समाज को अच्छा बनाने की दिशा में एक आदर्श प्रस्तुत किया है।लेकिन उसकी खुशफहमी तब हवा हो गयी जब उसे पता लगा कि पिताद्वय में गुपचुप लेनदेन हुआ था। लेकिन उसे बाद में पता चला। वह बेचारा बहुत दिनों तक उदास रहा।
तमाम लोग कह सकते हैं कि लड़कियां भी चाहती हैं कि उनकी शादी में दहेज दिया जाये ताकि वे सुख से रह सकें। कुछ लोगों का सच होगा यह भी लेकिन कड़वा सच यह है कि लड़की की शादी आजकल बहुत बड़ा पराक्रम है। खासकर उसके लिये जिसके पास दूल्हा खरीदने के लिये पैसे नहीं हैं। पहले लोग एक बढ़िया फसल में एक शादी निपटा देते थे। आज मध्यमवर्गीय बाप जिंदगी भर बचत करने के बाजजूद संकल्प की पिच पर पिट जाता है।
यह और दुखद है जब आजकल आदर्श प्रस्तुत करने को लड़के बेवकूफियां मानने लगे हैं। वे भी क्या करें उनके सामने भी आदर्शों का अकाल है। उन्हें तो मीडिया करीना कपूर की राजसी शादी दिखाता है ।लक्ष्मी मित्तल की लड़की की ,शाही महल खरीदकर ,शादी का ताम-झाम दिखाता है। इन चकाचौंध भरे मुख्य समाचारों से चौंधियाया युवा, फिलर की तरह ,एक कालम के दहेज रहित,सामूहिक विवाह के समाचार से कैसे प्रभावित हो सकता है!
भारत में युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा है।युवा किसी भी परिवर्तन के वाहक होते हैं। जब तक युवा ,खासकर लड़के , दहेज के खिलाफ नहीं होंगे तब तक वे बिकते रहेंगे। हो सकता हो कि वे मजबूरी में बिकें क्योंकि उन्हें भी बहन के लिये लड़का खरीदना है। लेकिन यह तय है कि इस मंडी के ताले की चाबी युवाओं के ही हाथ में हैं । वे जब तक पहल नहीं करेंगे,उनके खरीदने-बेचने का बाजार बदस्तूर आबाद रहेगा। संकल्प पूछे जाते रहेंगे।
मेरी पसंद
हम तो समाज के सेवक हैं,हमका दहेज बिलकुल न चही।
बस एक रुपइया धरि दीन्हेव,बाकी सब कुछ तुम्हरहै रही।।
तुम एक हजार बरातिन का अच्छा स्वागत करि दीन्हेव,
टी.वी.,फ्रिज,अलमारी सोफा-सेट,डबल-बेड सजवा दीन्हेव।
अपनी बिटिया के पहिरे का सारा जेवर बनवा दीन्हेव,
अपने दमाद के घूमै का मारुती याक मंगवा दीन्हेव।
हीरा अस लरिका सौंपि दीन अब यहिके आगे काह कही,
हम तो समाज के सेवक हैं,हमका दहेज बिलकुल न चही।
-काका बैसवारी
एक लड़के के बारे में वे बातचीत करने लड़के के घर गये। लड़के के पिता बड़े प्रसन्न लड़की के कैरियर से। प्रतिभा-गुण समुच्चय से। कन्या पक्ष भी संतुष्ट लड़के के घर-परिवार से। लड़का इंग्लैंड में इंजीनियर है। बातचीत सरपट दौड़ रही थी।
यह तय हो गया कि शादी कैसे होगी,कब होगी ,कहां होगी।तमाम खुशनुमा बातचीत के बाद बस चला-चली के पहले वर के पिताजी ने अपनी सारी मासूमियत से कन्या पिता से पूछा -आपका संकल्प क्या है?
कन्या के पिता ने कहा -मुझे कुछ अंदाजा नहीं कि आपकी आशा क्या है। आप बतायें क्या ठीक रहेगा?
वर पिता ने निर्लिप्त होकर कहा-मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूंगा। आप स्वयं बतायें कि आपका संकल्प क्या है?
कन्या के पिताने सारा साहस बटोर कर कहा- हम लोग ५-६ लाख खर्चा करने के लिये तैयार हैं।
वर पिता ने कहा -इतने में कैसे होगा? दस-दस लाख की शादियां तो यहां मारी-मारी फिर रही हैं।
कुछ और मोलभाव के बाद लड़के के दाम एकाध लाख बढ़ाये गये। लेकिन बाप ने अपने जिगर के टुकड़े की कीमत कम करने में असमर्थता जाहिर की।वह मजबूर था। हर तरह से लड़के के लिये उपयुक्त लड़की मिलने के बावजूद वह कम दाम में लड़के को बेचकर अपनी बदनामी नहीं कराना चाहता था।
लड़की के पिता लड़की की कुंडली तथा अपना मुंह लेकर वापस लौट आये।
संकल्प का सवाल उनके लिये वाटरलू साबित हुआ।
हमें जब यह बताया गया तो बेशाख्ता मेरे मुंह से निकला -लड़का क्या भीख मांगता है?
दोस्त ने बताया -नहीं वह तो इंग्लैंड में है।
यह आम बात है आजकल।जो लड़का जरा से कहीं हिल्ले से लग गया उसके भाव आसमान छूने लगते हैं।मजे की बात है कि मां-बाप से अबे- तबे तक करने वाले लड़के इस मामले में श्रवणकुमार बन जाते हैं। वे लड़की खूबसूरत चाहेंगे,पढ़ी-लिखी चाहेंगे,साइंस साइड,कान्वेंटी,नौकरी करने वाली चाहेंगे । यह सब कुछ लड़का तय करता है। सीधे या ‘थ्रू प्रापर चैनेल’। इसके बाद वह नेपथ्य में चला जाता है -कमान अपने पिता को सौंपकर। पिताजी संकल्प का बीमर मारकर लड़की वाले को घायल कर देते हैं।
कुछ उदार वर पिता उत्साह वर्धन भी करते रहते हैं-मारुति तो आप खुद कह रहे हैं देने को। थोड़ा और हिम्मत करिये -सैंट्रो तक तो आइये। हमें अपने लिये तो कुछ चाहिये नहीं जो करेंगे आप अपनी लड़की के लिये करेंगे।
मध्यमवर्ग में लड़की की शादी बहुत बड़ा पराक्रम का काम है। जिस तरह राणा सांगा के अस्सी घाव उनके पराक्रम के प्रतीक माने जाते हैं उसी तर्ज पर कहा जाता है-साहब ये बहुत पराक्रमी हैं,तीन लड़कियों की शादी निपटा चुके हैं।
इसीलिये हमारे शाहजहांपुर के कवि अजयगुप्तजी ने ,जिनकी तीन बेटियां हैं, लिखा है:-
सूर्य जब-जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच बताऊँ बेटियों के बाप सा मुझको लगा।
हरिशंकर परसाई कहा करते थे-देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है। चौथाई ताकत छिपाने में जा रही है-प्रेम करके छिपाने में,पाप करके छिपाने में। बाकी चौथाई ताकत देश की प्रगति में लगी है। सो जो प्रगति हो रही है चौथाई ताकत से बहुत हो रही है।
इस सारे घटनाक्रम में लड़कों की भूमिका बहुत निराशाजनक है।लड़का अपनी कीमत लगते देखता है तथा नीलाम होता रहता है। पता नहीं कहां की आज्ञाकारिता आ जाती है उसमें! आजकल तमाम घटनायें सुनने में आ रही हैं जिसमें लड़कियां दहेज की जिद करने वाले लड़कों से शादी करने से इंकार रही हैं लेकिन लड़कों के बारे में ऐसी बहुत कम कहानियां सुनने को आती हैं।
चोटी के संस्थान में कन्याओं द्वारा तोते से अपना भाग्यफल बंचवाने की विसंगति से कड़वी विसंगति यह है कि पढ़े-लिखे समझदार लड़के इस स्थिति से उदासीन अपने को तरह-तरह से खुशी-खुशी या निर्लिप्त भाव से बेंच रहे हैं।
कारण पता नहीं क्या हैं लेकिन बाजार का बहुत बड़ा दखल है इसमें। आराम के तमाम साधन जो पहुंच के बाहर हैं वह दूल्हा शादी में एक मुश्त पा लेना चाहता है। वह जिंदगी को शानदार अंदाज में जीना चाहता है। टुटही मेज ,फिर साबुत मेज ,फिर डायनिंग टेबल का सफर उसे बड़ा नागवार लगता है। एक क्लर्क अपनी तन्ख्वाह से कार कभी नहीं खरीद पायेगा लेकिन मंडप को वह कल्पवृक्ष मानकर सब कुछ तुरंत हासिल कर लेना चाहता है।
ऐसा नहीं कि सारे लड़के ऐसे होते हैं। कुछेक होते हैं जो आदर्शों के चलते इससे टकराने का प्रयास करते हैं लेकिन समाज का मकड़जाल उनको ऐसा धोबीपाट मारता है कि वे घुग्घू बने रह जाते हैं।
ऐसा ही एक किस्सा हमारे पड़ोस में हुआ। लड़का ने अपने तथा कन्या के पिता से साफ कहा कि शादी में कोई लेनदेन न होगा। दोनों ने कहा -ठीक। लड़का काफी दिन खुशफहमी में रहा कि उसने समाज को अच्छा बनाने की दिशा में एक आदर्श प्रस्तुत किया है।लेकिन उसकी खुशफहमी तब हवा हो गयी जब उसे पता लगा कि पिताद्वय में गुपचुप लेनदेन हुआ था। लेकिन उसे बाद में पता चला। वह बेचारा बहुत दिनों तक उदास रहा।
तमाम लोग कह सकते हैं कि लड़कियां भी चाहती हैं कि उनकी शादी में दहेज दिया जाये ताकि वे सुख से रह सकें। कुछ लोगों का सच होगा यह भी लेकिन कड़वा सच यह है कि लड़की की शादी आजकल बहुत बड़ा पराक्रम है। खासकर उसके लिये जिसके पास दूल्हा खरीदने के लिये पैसे नहीं हैं। पहले लोग एक बढ़िया फसल में एक शादी निपटा देते थे। आज मध्यमवर्गीय बाप जिंदगी भर बचत करने के बाजजूद संकल्प की पिच पर पिट जाता है।
यह और दुखद है जब आजकल आदर्श प्रस्तुत करने को लड़के बेवकूफियां मानने लगे हैं। वे भी क्या करें उनके सामने भी आदर्शों का अकाल है। उन्हें तो मीडिया करीना कपूर की राजसी शादी दिखाता है ।लक्ष्मी मित्तल की लड़की की ,शाही महल खरीदकर ,शादी का ताम-झाम दिखाता है। इन चकाचौंध भरे मुख्य समाचारों से चौंधियाया युवा, फिलर की तरह ,एक कालम के दहेज रहित,सामूहिक विवाह के समाचार से कैसे प्रभावित हो सकता है!
भारत में युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा है।युवा किसी भी परिवर्तन के वाहक होते हैं। जब तक युवा ,खासकर लड़के , दहेज के खिलाफ नहीं होंगे तब तक वे बिकते रहेंगे। हो सकता हो कि वे मजबूरी में बिकें क्योंकि उन्हें भी बहन के लिये लड़का खरीदना है। लेकिन यह तय है कि इस मंडी के ताले की चाबी युवाओं के ही हाथ में हैं । वे जब तक पहल नहीं करेंगे,उनके खरीदने-बेचने का बाजार बदस्तूर आबाद रहेगा। संकल्प पूछे जाते रहेंगे।
मेरी पसंद
हम तो समाज के सेवक हैं,हमका दहेज बिलकुल न चही।
बस एक रुपइया धरि दीन्हेव,बाकी सब कुछ तुम्हरहै रही।।
तुम एक हजार बरातिन का अच्छा स्वागत करि दीन्हेव,
टी.वी.,फ्रिज,अलमारी सोफा-सेट,डबल-बेड सजवा दीन्हेव।
अपनी बिटिया के पहिरे का सारा जेवर बनवा दीन्हेव,
अपने दमाद के घूमै का मारुती याक मंगवा दीन्हेव।
हीरा अस लरिका सौंपि दीन अब यहिके आगे काह कही,
हम तो समाज के सेवक हैं,हमका दहेज बिलकुल न चही।
-काका बैसवारी
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फ़ुरसतिया
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इस तरह की बात पर लड़की के माता-पिता को उत्तर देना चाहिए कि यदि वे अपनी लड़की के लिए यह दे रहें हैं तो अपनी इच्छा और हैसियत के अनुसार देंगे, लड़के वाले कौन होते हैं माँगने वाले!!
अनूप जी, लड़के बिक रहे हैं क्यों कि खरीदने वाले मौजूद हैं। बाज़ार का नियम है कि कोई चीज़ तभी बिकती है जब खरीददार उपलब्ध हो। मैं यह समझता हूँ कि इसमें जितना दोष लड़कों और उनके माता-पिता का है, उतना ही लड़की के माता-पिता का भी है। मानसी जी से मैं सहमत हूँ, कई बार ऐसा भी होता है कि यदि लड़के के अभिवावक दहेज लेने से मना कर देते हैं तो लड़की वाले सोचने लग जाते हैं कि लड़के में ऐसा क्या ऐब है कि वे दहेज को मना कर रहे हैं या इसी प्रकार की शंकाएँ उनकी सोच को घेर लेती हैं।
ऐसी आम धारणा है कि अकेला चना क्या भाड़ फ़ोड़ेगा। पर यदि अपनी पर आ जाए तो अकेला चना भी भाड़ फ़ोड़ सकता है। हर कोई सोचता है कि हम अकेले क्या क्रांति लाएँगे, परन्तु यदि जब सभी अपना अपना प्रयास करें तो कैसे नहीं क्रांति आएगी? महात्मा गांधी अकेले चले थे, और उनको देख लोग उनके साथ होते गए। चूँकि लड़कियाँ लड़कों के अनुपात में कम हैं, तो लड़कियों के अभिवावकों को इस बात का लाभ उठाना चाहिए, अपनी बात पर अड़ जाना चाहिए कि दहेज नहीं देंगे, तो लड़के कहाँ जाएँगे, कुँवारें तो रहने से रहे, तो दहेज बिन ब्याह करना ही पड़ेगा, क्योंकि आऊटसोर्स तो करने से रहे!! साथ ही लड़कों को भी समझना चाहिए कि उन्हे दहेज किस बात का दिया जाए, यदि अच्छी पढ़ाई आदि हुई है और अच्छी नौकरी है तो उसका लाभ क्या केवल लड़की को मिलेगा?
और एक बात और, लड़कियाँ भी कुछ कम तेज़ नहीं होती, वह ज़माना गया जब नई नवेली दुल्हन चुप चाप घर आती थी और गृहस्थी में लग जाती थी। आजकल आधुनिकता की मारी लड़कियाँ आते ही सबसे पहले तो अपने मियाँ को सास-ससुर से अलग होने के लिए उकसाती हैं। कई तो ऐसी भोली गाय होती हैं कि शादी से पूर्व किसी और से नैन-मटक्का होने के बावजूद किसी और से शादी कर लेती हैं और बाद में अपने ग़रीब ससुराल वालों को दहेज प्रतारणा आदि के इल्ज़ाम में फ़ंसा के अपने माँ-बाप द्वारा दिए गए गहनों आदि के साथ ससुराल से मिले जेवरात को भी लेकर चलती बनती हैं(आँखों देखी घटना)।
यह सबसे लचर कुतर्क है इसे जायज ठहराने का।
लड़कियों की संख्या कम है तो लड़के शादी के लिये मज़बूर होंगे!
यह लिखते समय यह सोचना भी जरूरी है कि लड़कियों की संख्या कम क्यों है?लड़कियों को लोग गर्भ में ही मरवा देते हैं। दूसरे कारणों के अलावा दहेज ही सबसे बड़ा कारण है इसका।लड़कियों की संख्या कम होने पर दहेज कम होने की सोचना कुछ ऐसा ही जैसे यह मानना कि जीडीपी बढ़ने पर सबके पेट अपने आप भर जायेंगे।
लड़कियों के बारे में जो और बातें बताईं अमित ने वे अपवाद हैं। हमेशा होती रहेंगी। वे भी समाज की अंग हैं। समाज की सहज व्याप्त नकारात्मक बातें होंगी उनमें भी। अपनी औकात के अनुसार खुशी-खुशी लेनदेन होते ही रहते हैं। लेकिन यह सामाजिक बुराई है जो लड़की के घरवालों को सबसे ज्यादा परेशान करती है। इस सामाजिक बुराई की जड़ में तमाम बातों के अलावा झटके से बिना कुछ किये अमीर बन जाने की प्रवृत्ति है। मीडिया का हाथ है जो तमाम चकाचौंध दिखाता है जिसे आदमी हासिल करना चाहता है। बात लड़के या लड़की वालों की उतनी नहीं है। यह समाज का नकारात्मक पहलू है। यह सच है
कि हमारे समाज की बहुत बड़ी ताकत लड़कियों की शादी में जा रही है। तमाम बुराइयों का घालमेल है यह बुराई। अशिक्षा, जातिवाद, भष्टाचार ,हरामखोरी।जब तक शादी करने वाले लड़के-लड़कियां इस बारे में नहीं सोचेंगे तब तक कुछ नहीं होगा।
कहा जाता है न कि हज़ार मील की यात्रा में सबसे महत्त्वपूर्ण है ,पहला कदम !
प्रत्यक्षा
मुझे ज्ञात है कि लड़कियों की संख्या कम क्यों है(भारत में लड़के लड़कियों का लगभग १००/९४ का अनुपात है)। परन्तु मेरे कहने का तात्पर्य यह था कि यदि लड़कियों के माता-पिता दहेज देने से मना कर दें, तो लड़के कहाँ जाएँगे? ज़ाहिर है कि लड़कों के माँ-बाप उन्हें कुँवारा तो रखेंगे नहीं तो मजबूरन उन्हें बिना दहेज अपने लड़कों की शादी करनी ही पड़ेगी। परन्तु यह एकाध लड़कियों के माता-पिता के करने से नहीं होगा, वरन् एकजुट हो ऐसा कदम उठाना पड़ेगा, तभी कुछ बात बनेगी। परन्तु समस्या भी यहीं है, कि एकजुट हो काम करना तो हम लोगों ने सीखा ही नहीं, वरना भारत १९० वर्षों तक अंग्रेज़ों का गुलाम थोड़े न रहता!! तो यह सुझाव क्रियात्मक भी है और नहीं भी।
अनूप जी, यह कहना कि मीडिया का हाथ है जो तमाम चकाचौंध दिखलाता है जिसे लड़के पा लेना चाहते हैं, बिलकुल वैसा है कि सिगरेट तंबाकू के विज्ञापन टीवी आदि पर न आने से लोग धूम्रपान करना छोड़ देंगे!! अब टीवी पर सिगरेट-बीड़ी-तंबाकू-गुटखे आदि के विज्ञापन नहीं आते, और बाकी शहरों की तो नहीं जानता परन्तु दिल्ली में हर सिगरेट-तंबाकू बेचने वाले को यह घोषणा पत्र अपनी दुकान पर टांगना अनिवार्य हो गया है कि १८ वर्ष से कम की आयु वाले को यह बेचना अपराध है। तो क्या टीवी पर विज्ञापन न आने से सिगरेट-तंबाकू आदि की बिक्री कम हो गई है? १८ वर्ष से कम की आयु वाले ये चीज़े बेचना गैरकानूनी करने से क्या उन बालकों ने इसे खरीदना और दुकानदारों बेचना बंद कर दिया है? क्या यह ठीक वैसे नहीं है जैसे शतुरमुर्ग रेत में अपनी गर्दन छुपा के समझता है कि उसे अब कोई नहीं देख सकता? दिल्ली में कुछ समय सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करने पर प्रतिबंध लगा था, और परिवाहन निगम की बसों में तो आज भी है, तो क्या लोगों ने धूम्रपान करना बंद कर दिया? बसों के संवाहक स्वयं बीड़ी पीते नज़र आ जाते हैं। तो इसलिए मैं नहीं समझता कि मीडिया ऐशो-आराम के नए उत्पादों की चकाचौंध दिखाने के कारण दहेज प्रथा को बढ़ावा देने वालों में से है।