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रघुपति सहाय फ़िराक़’ गोरखपुरी
By फ़ुरसतिया on June 13, 2006
फ़िराक़ गोरखपुरी बीसवीं
सदी के उर्दू के महान शायर थे। फ़िराक़ का जन्म २८ अगस्त १८९६ में गोरखपुर
में हुआ। बी.ए. में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद आई.सी.एस. में
चुने गये। १९२० में नौकरी छोड़ दी तथा स्वराज्य आंदोलन में कूद पड़े। डे़ढ
साल जेल में रहे। जेल से छूटने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने अखिल भारतीय
कांग्रेस के दफ्तर में ‘अण्डर सेक्रेटरी’ की जगह दिला दी। बाद में नेहरू जी
के यूरोप चले जाने के बाद कांग्रेस का ‘अण्डर सेक्रेटरी’ पद छोड़ दिया।
फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में १९३० से लेकर १९५९ तक अंग्रेजी के अध्यापक
रहे। १९७० में उनकी उर्दू काव्यकृति ‘गुले नग़्मा’ पर ज्ञानपीठ पुरुस्कार
मिला। सन् १९८२ में उनका देहावसान हुआ।
फ़िराक़ का व्यक्तित्व बहुत जटिल था। तद्भव के सातवें अंक में फ़िराक गोरखपुरी पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने बहुत विस्तार से संस्मरण लिखा है। फ़िराक़ के व्यक्तित्व के विविध पहलुओं के बारे में इस संस्मरणात्मक लेख में बताया गया। मेरे ख्याल में तद्भव आजकल की निकलने वाली हिंदी पत्रिकाओं में सबसे अच्छी पत्रिका है। नेट पर भी उपलब्ध है लेकिन कुछ कारणों से ‘अपडेट’ नहीं होती।
फ़िराक़ गोरखपुरी अपने विवाह को अपने जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना मानते थे। वे अपने दुखों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे। पत्नी को ताजिन्दगी कोसते रहे। ७५ वर्ष की अवस्था में उन्होंने लिखा:-
अब वह फ़िराक़ गोरखपुरी की वह नज्म यहाँ पेश है जिसके लिये यह पूरा लेख लिखा गया। सागर चंद नाहर ने फरमाइश की थी कि उनको फ़िराक़ गोरखपुरी की ‘माँ’ के बारे में लिखी नज्म पढ़वाई जाय। जानकारी के लिये बता दें कि यह लंबी नज्म फ़िराक़ गोरखपुरी ने बीस साल के नौजवान की भावनायें बताते हुये लिखी है जिसने अपनी माँ को पैदा होते ही खो दिया था। फ़िराक़ गोरखपुरी की माँ फ़िराक़ साहब के जन्म के बाद काफी दिन तक जीवित रहीं। यह नज्म काफी लंबी है। पूरे दस पेज टाइप करने के बाद इतनी शानदार,प्रभावी तथा सहज भाषा में लिखी नज्म पढ़कर टाइपिंग की सारी थकान दुर हो गयी। सागर जी का शुक्रिया
कि उनके बहाने हमने फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में फिर से काफी कुछ पढ़ लिया।
२.फ़िराक़ वार्ता-विश्वनाथ त्रिपाठी- तद्भव -अंक ७ अप्रैल,२००२
फ़िराक़ का व्यक्तित्व बहुत जटिल था। तद्भव के सातवें अंक में फ़िराक गोरखपुरी पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने बहुत विस्तार से संस्मरण लिखा है। फ़िराक़ के व्यक्तित्व के विविध पहलुओं के बारे में इस संस्मरणात्मक लेख में बताया गया। मेरे ख्याल में तद्भव आजकल की निकलने वाली हिंदी पत्रिकाओं में सबसे अच्छी पत्रिका है। नेट पर भी उपलब्ध है लेकिन कुछ कारणों से ‘अपडेट’ नहीं होती।
फ़िराक़ गोरखपुरी अपने विवाह को अपने जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना मानते थे। वे अपने दुखों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे। पत्नी को ताजिन्दगी कोसते रहे। ७५ वर्ष की अवस्था में उन्होंने लिखा:-
मेरी जिन्दादिली वह चादर है ,वह परदा है,जिसे मैं अपने दारुण जीवन पर डाले रहता हूँ। ब्याह को छप्पन बरस हो चुके हैं और इस लम्बे अरसे में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि मैं दाँत पीस-पीसकर न रह गया हूँ। मेरे सुख ही नहीं,मेरे दुख भी मेरे ब्याह ने मुझसे छीन लिये। पिता-माता,भाइयों-बहनों,दोस्तों- किसी की मौत पर मैं रो न सका।विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने फ़िराक़ के बारे में लिखते हुये जानकारी दी:-
मैं पापिन ऐसी जली कोयला भई न राख।
अहमद साहब फिराक के साहब के बहुत नजदीक थे। वे उनके व्यक्तित्व के इस आयाम के आलोचक थे। उन्होंने बताया कि फिराक साहब की बीबी अच्छी थीं। देखने सुनने में और वे कभी-कभी फिराक को कोसती भी थीं। फिराक साहब उन पर कभी-कभी जुल्म भी करते थे। जैसे, एक बार वे गोरखपुर से आयीं। आते ही जैसे ही सामान नीचे रखा तो फिराक साहब ने पूछा-मरिचा का आचार लायी हो? वे लाना भूल गयीं थीं। तो फिराक साहब ने उसी वक्त उनको लौटा दिया और कहा कि जाओ मरिचा का अचार लेकर तब आओ गोरखपुर से, भूल कैसे गयी तुम? और कभी-कभी जब वे गुस्से में आती थीं तो कहती थीं कि- तुम पहले अपना थोबड़ा तो देख लो कैसे हो? वे दबती नहीं थीं। कहने का मतलब ये है कि कल्पना में कोई रूपसी चाहते होंगे फिराक साहब जो उनको नहीं मिली। एक बार सबके बीच में फिराक साहब ने बडे़ जोर से कहा कि -I am not a born homosexual ,it is my wife ,who has made me homosexual तो मुझे लगता है कि अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिये वे अपनी बीबी को बलि का बकरा बनाते थे। उनकी पत्नी तो सबके सामने आकर बातें कह नहीं सकतीं थीं। इसलिये फिराक साहब अपने सारे दोषों के लिये अपनी बीबी को जिम्मेदार ठहराते थे।फिराक साहब मिलनसार थे,हाजिरजवाब थे और विटी थे। अपने बारे में तमाम उल्टी-सीधी बातें खुद करते थे। उनके यहाँ उनके द्वारा ही प्रचारित चुटकुले आत्मविज्ञापन प्रमुख हो गये । अपने दुख को बढ़ा-चढ़ाकर बताते थे। स्वाभिमानी हमेशा रहे। पहनावे में अजीब लापरवाही झलकती थी-
टोपी से बाहर झाँकते हुये बिखरे बाल,शेरवानी के खुलेबटन,ढीला-ढाला(और कभी-कभी बेहद गंदा और मुसा हुआ)पैजामा,लटकता हुआ इजारबंद,एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में घड़ी,गहरी-गहरी और गोल-गोल- डस लेने वाली-सी आँखों में उनके व्यक्तित्व का फक्कड़पन खूब जाहिर होता था।लेकिन बीसवीं सदी के इस महान शायर की गहन गंभीरता और विद्वता का अंदाज उनकी शायरी से ही पता चलता है।लेकिन बीसवीं सदी के इस महान शायर की गहन गंभीरता और विद्वता का अंदाज उनकी शायरी से ही पता चलता है। जब वे लिखते हैं :-
जाओ न तुम हमारी इस बेखबरी पर कि हमारेफिराक साहब की कविता में सौन्दर्य के बड़े कोमल और अछूते अनुभव व्यक्त हुये हैं। एक शेर है:-
हर ख़्वाब से इक अह्द की बुनियाद पड़ी है।
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी१९६२ की चीन की लड़ाई के समय फिराक साहब की यह गजल बहुत मशहूर हुई:-
ये हुस्नों इश्क धोखा है सब मगर फिर भी।
सुखन की शम्मां जलाओ बहुत उदास है रातशायद अपने जीवन के आखिरी दिनों में फिराक साहब ने लिखा:-
नवाए मीर सुनाओ बहुत उदास है रात
कोई कहे ये खयालों और ख्वाबों से
दिलों से दूर न जाओ बहुत उदास है रात
पड़े हो धुंधली फिजाओं में मुंह लपेटे हुये
सितारों सामने आओ बहुत उदास है रात।
अब तुमसे रुख़सत होता हूँ आओ सँभालो साजे़- गजल,अपने बारे में अपने खास अंदाज में लिखते हुये फिराक साहब ने लिखा था:-
नये तराने छेडो़,मेरे नग़्मों को नींद आती है।
आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअस्रोंफ़िराक़ के सारे लेखन को एक लेख में समेटना मुश्किल है। उनका कलाम यहाँ से पढ़ा जा सकता है।
जब ये ख्याल आयेगा उनको,तुमने फ़िराक़ को देखा था।
अब वह फ़िराक़ गोरखपुरी की वह नज्म यहाँ पेश है जिसके लिये यह पूरा लेख लिखा गया। सागर चंद नाहर ने फरमाइश की थी कि उनको फ़िराक़ गोरखपुरी की ‘माँ’ के बारे में लिखी नज्म पढ़वाई जाय। जानकारी के लिये बता दें कि यह लंबी नज्म फ़िराक़ गोरखपुरी ने बीस साल के नौजवान की भावनायें बताते हुये लिखी है जिसने अपनी माँ को पैदा होते ही खो दिया था। फ़िराक़ गोरखपुरी की माँ फ़िराक़ साहब के जन्म के बाद काफी दिन तक जीवित रहीं। यह नज्म काफी लंबी है। पूरे दस पेज टाइप करने के बाद इतनी शानदार,प्रभावी तथा सहज भाषा में लिखी नज्म पढ़कर टाइपिंग की सारी थकान दुर हो गयी। सागर जी का शुक्रिया
कि उनके बहाने हमने फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में फिर से काफी कुछ पढ़ लिया।
जुगनूसंदर्भ- १.फ़िराक़ गोरखपुरी -ब़ज़्मे ज़िन्दगी: रंगे शायरी
(बीस बरस के उस नौजवान के जज्बात,जिसकी माँ उसी दिन मर गयी जिस दिन वह पैदा हुआ)
ये मस्त-मस्त घटा ये भरी-भरी बरसात
तमाम हद्दे-नजर तक घुलावटों का समाँ!
फ़जा-ए-शाम में डोरे-से पड़ते जाते हैं
जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है
दहक उठा है तरावट की आँच से आकाश
जे-फ़र्श-ता-फ़लक अँगड़ाइयों का आलम है
ये मद भरी हुई पुर्वाइयाँ सनकती हुई
झिंझोड़ती है हरी डालियों को सर्द हवा
ये शाख़सार के झूलों में पेंग पड़ते हुये
ये लाखों पत्तियों का नाचना ये रक्से-नबात( वनस्पतियों का नाच)
ये बेख़ुदी-ए-मसर्रत ये वालहाना रक्स
ये ताल-सम ये छमाछम-कि कान बजते हैं
हवा के दोश प कुछ ऊदी-ऊदी शक्लों की
नशे में चूर-सी परछाइयाँ थिरकती हुई
उफ़ुक़ प डूबते दिन की झपकती हैं आखें
ख़मोश सोजे़-दरूँ(हृदय की जलन) से सुलग रही है ये शाम!
मेरे मकान के आगे है एक सह्ने-वसीअ(विशाल दालान)
कभी वो हँसती नजर आती कभी वो उदास
उसी के बीच में है एक पेड़ पीपल का
सुना है मैंने बुजु़र्गों से ये कि उम्र इसकी
जो कुछ न होगी तो होगी कोई छियानवे साल
छिड़ी थी हिन्द में जब पहली जंगे-आजादी
जिसे दबाने के बाद उसको ग़द्र कहने लगे
ये अह्ले हिन्द भी होते हैं किस क़दर मासूम!
वो दारो-गीर वो आजा़दी-ए-वतन की जंग
वतन से थी कि ग़नीमे-वतन (देश के दुश्मन)से ग़द्दारी
बिफर गये थे हमारे वतन के पीरो-जवाँ(बूढ़े-जवान)
दयारे-हिन्द में रन पड़ गया चार तरफ़
उसी ज़माने में ,कहते हैं,मेरे दादा ने
जब अरजे़-हिन्द सिंची ख़ून से ‘सपूतों’ के
मियाने-सह्न लगाया था ला के इक पौदा
जो आबो-आतशो-ख़ाको-हवा से पलता हुआ
ख़ुद अपने क़द से बजोशे-नुमूँ निकलता हुआ
फ़ुसूने-रूहे-नबाती रगों में चलता हुआ
निगाहे-शौक़ के साँचों में रोज़ ढलता हुआ
सुना है रावियों से दीदनी(देखने योग्य) थी उसकी उठान
हर-इक के देखते ही देखते चढ़ा पर्वान
वही है आज ये छतनार पेड़ पीपल का
वही है आज ये छतनार पेड़ पीपल का
वो टहनियों के कमण्डल लिये,जटाधारी
ज़माना देखे हुये है ये पेड़ बचपन से
रही है इसके लिये दाख़िली कशिश मुझमें
रहा हूँ देखता चुपचाप देर तक उसको
मैं खो गया हूँ कई बार इस नजारे में
वो उसकी गहरी जड़ें थीं कि जिन्दगी की जड़ें
पसे-सुकूने-शजर कोई दिल धड़कता था
मैं देखता था कभी इसमें जिन्दगी का उभार
मैं देखता था उसे हस्ती-ए-बशर की तरह
कभी उदास,कभी शादमा,कभी गम्भीर!
फ़जा का सुरमई रंग और हो चला गहरा
धुला-धुला-सा फ़लक है धुआँ-धुआँ-सी है शाम
है झुटपुटा की कोई अज़दहा है मायले-ख्वाब
सुकूते-शाम में दरमान्दगी(थकन) का का आलम है
रुकी-रुकी सी किसी सोच में है मौजे़-सबा
रुकी-रुकी सी सफ़ें मलगजी घटाओं की
उतार पर है सरे-सह्न रक्स पीपल का
वो कुछ नहीं है अब इक जुंबिशे-ख़फी के सिवा
ख़ुद अपनी कैफ़ियत-नीलगूँ में हर लह्जा
ये शाम डूबती जाती है छिपती जाती है
हिजाबे-वक़्त सिरे से है बेहिसो-हरकत
रुकी-रुकी दिले-फ़ितरत की धड़कनें यकलख़्त
ये रंगे-शाम कि गर्दिश हो आसमाँ में नहीं
बस एक वक़्फ़ा-ए-तारीक,लम्हा-ए-शह्ला
समा में जुंबिशे-मुबहम-सी कुछ हुई ,फौ़रन
तुली घटा के तले भीगे-भीगे पत्तों से
हरी-हरी कई चिंगारियाँ-सी फूट पड़ीं
कि जैसे खुलती-झपकती हों बेशुमार आँखें
अजब ये आँख-मिचौली थी नूरो-जु़लमत (अँधेरा-रोशनी)की
सुहानी नर्म लवें देते अनगिनत जुगनू
घनी सियाह खु़नक पत्तियों के झुरमुट से
मिसाले-चादरे-शबताब जगमगाने लगे
कि थरथराते हुए आँसुओं से साग़रे-शाम
छलक-छलक पड़े जैसे बग़ैर सान-गुमान
बतूने-शाम में इन जिन्दा क़ुमक़ुमों की चमक
किसी की सोयी हुई याद को जगाती थी-
वो बेपनाह घटा वो भरी-भरी बरसात
वो सीन देख के आँखें मेरी भर आती थीं
मेरी हयात ने देखीं हैं बीस बरसातें
मेरे जनम ही के दिन मर गयी थी माँ मेरी
वो माँ कि शक्ल भी जिस माँ कि मैं न देख सका
जो आँख भर के मुझे देख भी सकी न ,वो माँ
मैं वो पिसर हूँ जो समझा नहीं कि माँ क्या है
मुझे खिलाइयों और दाइयों ने पाला था
वो मुझसे कहती थीं जब घिर के आती थी बरसात
जब आसमान में हरसू(चारों तरफ) घटाएँ छाती थीं
बवक़्ते-शाम जब उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू
दिये दिखाते हैं ये भूली भटकी रूहों को!
मजा़ भी आता था मुझको कुछ उनकी बातों में
मैं उनकी बातों में रह-रह के खो भी जाता था
पर उनकी बातों में रह-रह के दिल में कसक-सी होती थी
कभी-कभी ये कसक हूक बन के उठती थी
यतीम दिल को मेरे ये ख़याल होता था
ये शाम मुझको बना देती काश! इक जुगनू
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह
कहाँ-कहाँ वो बिचारी भटक रही होगी!
ये सोच कर मेरी हालत अजीब हो जाती
पलक की ओट से जुगनू चमकने लगते थे
कभी-कभी तो मेरी हिचकियाँ -सी बँध जातीं
कि माँ के पास किसी तरह मैं पहुँच जाऊँ
और उसको राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ
दिखाऊँ अपने खिलौने दिखाऊँ अपनी किताब
कहूँ कि पढ़ के सुना तू मेरी किताब मुझे
फिर उसके बाद दिखाऊँ उसे मैं वो कापी
कि टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनी थीं कुछ जिसमें
ये हर्फ़ थे जिन्हें लिक्खा था मैंने पहले-पहल
दिखाऊँ फिर उसे आँगन में वो गुलाब की बेल
सुना है जिसको उसी ने कभी लगाया था
ये जब की बात है जब मेरी उम्र ही क्या थी
नज़र से गुज़री थीं कुल चार-पाँच बरसातें!
गुज़र रहे थे महो-साल और मौसम पर
हमारे शहर में आती थी घिर के जब बरसात
जब आसमान में उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू
हवा की मौ-रवाँ पर दिये जलाये हुये
फ़जा में रात गये जब दरख्त पीपल का
हज़ारों जुगनुओं से कोहे-तूर(रोशनी का पहाड़) बनता था
हजारों वादी-ए-ऐमन थीं जिसकी शाखों में
ये देखकर मेरे दिल में ये हूक उठती थी
कि मैं भी होता इन्हीं जुगनुओं में इक जुगनू
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह
वो माँ ,मैं जिसकी महब्बत के फूल चुन न सका
वो माँ,मैं जिसकी महब्बत के बोल सुन न सका
वो माँ,कि भींच के जिसको कभी मैं सो न सका
मैं जिसके आँचलों में मुँह छिपा के रो न सका
वो माँ,कि सीने में जिसके कभी चिमट न सका
हुमक के गोद में जिसकी कभी मैं चढ़ न सका
मैं जेरे-साया-ए-उम्मीद(आशा की छाया में) बढ़ न सका
वो माँ,मैं जिससे शरारत की दाद पा न सका
मैं जिसके हाथों महब्बत की मार खा न सका
सँवारा जिसने न मेरे झंडूले बालों को
बसा सकी न जो होंठों से मेरे गालों को
जो मेरी आँखों में आँखें कभी न डाल सकी
न अपने हाथों से मुझको कभी उछाल सकी
वो माँ,जो कोई कहानी मुझे सुना न सकी
मुझे सुलाने को जो लोरियाँ भी गा न सकी
वो माँ,जो दूध भी अपना मुझे पिला न सकी
वो माँ,जो अपने हाथ से मुझे खिला न सकी
वो माँ, गले से जो अपने मुझे लगा न सकी
वो माँ ,जो देखते ही मुझको मुस्करा न सकी
कभी जो मुझसे मिठाई छिपा के रख न सकी
कभी जो मुझसे दही भी बचा के रख न सकी
मैं जिसके हाथ में कुछ देखकर डहक न सका
पटक-पटक के कभी पाँव मैं ठुनक न सका
कभी न खींचा शरारत से जिसका आँचल भी
रचा सकी न मेरी आँखों में जो काजल भी
वो माँ,जो मेरे लिए तितलियाँ पकड़ न सकी
जो भागते हुए बाजू मेरे जकड़ न सकी
बढा़या प्यार कभी करके प्यार में न कमी
जो मुँह बना के किसी दिन न मुझसे रूठ सकी
जो ये भी कह न सकी-जा न बोलूँगी तुझसे!
जो एक बार ख़फा़ भी न हो सकी मुझसे
वो जिसको जूठा लगा मुँह कभी दिखा न सका
कसाफ़तों(गन्दगी) प मेरी जिसको प्यार आ न सका
जो मिट्टी खाने प मुझको कभी न पीट सकी
न हाथ थाम के मुझको कभी घसीट सकी
वो माँ जो गुफ्तगू की रौ में सुन के मेरी बड़
कभी जो प्यार से मुझको न कह सकी घामड़!
शरारतों से मेरी जो कभी उलझ न सकी
हिमाक़तों का मेरी फ़लस़फ़ा(दर्शन) समझ न सकी
वो माँ जिसे कभी चौंकाने को मैं लुक न सका
मैं राह छेंकने को जिसके आगे रुक न सका
जो अपने हाथ से वह रूप मेरा भर न सकी
जो अपनी आँखों को आईना मेरा कर न सकी
गले में डाली न बाहों की पुष्पमाला भी
न दिल में लौहे-जबीं(ललाट) से किया उजाला भी
वो माँ,कभी जो मुझे बद्धियाँ पिन्हा न सकी
कभी मुझे नये कपडों से जो सजा न सकीं
वो माँ ,न जिससे लड़कपन के झूठ बोल सका
न जिसके दिल के दर इन कुंजियों से खोल सका
वो माँ मैं पैसे भी जिसके कभी चुरा न सका
सजा़ से बचने को झूठी कसम भी खा न सका
वो माँ कि ‘हाँ’ से भी होती है बढ़के जिसकी ‘नहीं’
दमे- इताब जो बनती फ़रिश्ता रहमत का
जो राग छेड़ती झुँझला के भी महब्बत का
वो माँ,कि घुड़कियाँ भी जिसकी गीत बन जायें
वो माँ,कि झिड़कियाँ भी जिसकी फूल बरसायें
वो माँ,हम उससे जो दम भर को दुश्मनी कर लें
तो ये न कह सके-अब आओ दोस्ती कर लें !
कभी जो सुन न सकी मेरी तूतली बातें
जो दे न सकी कभी थप्पडों की सौगा़तें
वो माँ,बहुत से खिलौने जो मुझको दे न सकी
ख़िराजे़-सरखु़शी-ए-सरमदी (हमेशा रहने वाली मस्ती का लगाव)जो ले न सकी
वो माँ,लड़ाई न जिससे कभी मैं ठान सका
वो माँ,मैं जिस प कभी मुठ्ठियाँ न तान सका
वो मेरी माँ, कभी मैं जिसकी पीठ पर न चढ़ा
वो मेरी माँ,कभी कुछ जिसके कान में न कहा
वो माँ, कभी जो मुझे करधनी पिन्हा न सकी
जो ताल हाथ से देकर मुझे नचा न सकी
जो मेरे हाथ से इक दिन दवा भी पी न सकी
कि मुझको जिन्दगी देने में जान ही दे दी
वो माँ,न देख सका जिन्दगी में जिसकी चाह
उसी की भटकी हुई रूह को दिखाता राह!
ये सोच-सोच के आँखें मेरी भर आती थीं
तो जा के सूने बिछौने प लेट रहता था
किसी से घर में न राज अपने दिल के कहता था
यतीम थी मेरी दुनिया यतीम मेरी हयात
यतीम शामों-सहर थी यतीम थे शबो-रोज़
यतीम मेरी पढ़ाई थी मेरे खेल यतीम
यतीम मेरी मसर्रत थी मेरा गम़ भी यतीम
यतीम आँसुओं से तकिया भीग जाता था
किसी से घर में न कहता था अपने दिल के भेद
हर-इक से दूर अकेला उदास रहता था
किसी शमायले-नादीदा(अनदेखी आकृति) को मैं ताका करता था
मैं एक वहसते-बेनाम से हुड़कता था
गुज़र रहे थे महो-साल और मौसम पर
इसी तरह कई बरसात आयीं और गयीं
मैं रफ़्ता-रफ़्ता पहुँचने लगा बसिन्ने-शऊर
तो जुगनुओं की हकीकत समझ में आने लगी
अब उन खिलाइयों और दाइयों की बातों पर
मेरा यक़ीं न रहा मुझ प हो गया ज़ाहिर
कि भटकी रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़
वो मन-गढ़ंत-सी कहानी थी इक फ़साना था
वो बेपढ़ी-लिखी कुछ औरतों की थी बकवास
भटकती रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़
ये खुल गया -मेरे बहलाने को थी सारी बातें
मेरा यकीं न रहा इन फ़ुजू़ल किस्सों पर–
हमारे शह्र में आती हैं अब भी बरसातें
हमारे शह्र प अब भी घटाएँ छाती हैं
हनोज़ भीगी हुई सुरमई फ़जाओं में
खु़तूते-नूर(रोशनी की लकीरें) बनाती हैं जुगनुओं की सफें
फ़जा-ए-तीराँ(अँधेरा वातावरण) में उड़ती हुई ये कन्दीलें
मगर मैं जान चुका हूँ इसे बड़ा होकर
किसी की रूह को जुगनू नहीं दिखाते राह
कहा गया था जो बचपन में मुझसे झूठ था सब!
मगर कभी-कभी हसरत से दिल में कहता हूँ
ये जानते हुए,जुगनू नहीं दिखाते चराग!
किसी की भटकी हुई रूह को -मगर फिर भी
वो झूठ ही सही कितना हसीन झूठ था वो
जो मुझसे छीन लिया उम्र के तका़जे़ ने
मैं क्या बताऊँ वो कितनी हसीन दुनिया थी
जो बढ़ती उम्र के हाथों ने छीन ली मुझसे
समझ सके कोई ऐ काश! अह्दे-तिफ़ली(बाल्यकाल) को
जहान देखना मिट्टी के एक रेजे को
नुमूदे-लाला-ए-ख़ुदरौ (फूलों का बढ़ना-फैलना)में देखना जन्नत
करे नज़ारा-ए-कौनेन(विश्व दर्शन) इक घिरौंदे में
उठा के रख ले ख़ुदाई को जो हथेली पर
करे दवाम को जो कैद एक लमहे में
सुना? वो का़दिरे-मुतलक़(ईश्वर) है एक नन्हीं सी जान
खु़दा भी सजदे में झुक जाये सामने उसके
ये अक़्लो-फ़ह्म (बुद्दि-ज्ञान) बड़ी चीज है मुझे तसलीम(स्वीकार)
मगर लगा नहीं सकते हम इसका अन्दाजा़
कि आदमी को ये पड़ती है किस क़दर महँगी
इक-एक कर के वो तिफ़ली(बालपन) के हर ख़याल की मौत
बुलूगे-सिन में सदमें नये ख़यालों के
नये ख़याल का धक्का नये ख़यालों की टीस
नये तसव्वुरों का कर्ब़(यातना),अलअमाँ(खुदा पनाह दे) ,कि हयात
तमाम ज़ख़्मे-निहाँ(छिपा घाव) हैं तमाम नशतर हैं
ये चोट खा के सँभलना मुहाल होता है
सुकून रात का जिस वक़्त छेड़ता है सितार
कभी-कभी तेरी पायल से आती है झंकार
तो मेरी आँखों से आँसू बरसने लगते हैं
मैं जुगनू बन के तो तुम तक पहुँच नहीं सकता
जो तुमसे हो सके ऐ माँ! वो तरीका बता
तू जिसको पाले वो काग़ज़ उछाल दूँ कैसे
ये नज़्म मैं तेरे कदमों में डाल दूँ कैसे
नवाँ-ए- दर्द(दर्द की आवाज) से कुछ जी तो हो गया हलका
मगर जब आती है बरसात क्या करूँ इसको
जब आसमान प उड़ते हैं हर तरफ़ जुगनू
शराबे-नूर लिये सब्ज़ आबगीनों(प्यालों) में
कँवल ज़लाते हुये जु़लमतों के सीनों में
जब उनकी ताबिशे-बेसाख़्ता से पीपल का
दरख़्त सरवे-चरागाँ को मात करता है
न जाने किस लिए आँखें मेरी भर आती हैं!
-फ़िराक़ गोरखपुरी
२.फ़िराक़ वार्ता-विश्वनाथ त्रिपाठी- तद्भव -अंक ७ अप्रैल,२००२
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दरख़्त सरवे-चरागाँ को मात करता है
न जाने किस लिए आँखें मेरी भर आती हैं!”
बहुत खूब !
–मानसी
प्रेमलता
किन लफ़्जों में आपका शुक्रिया अदा करूँ यह समझ में नहीं आ रहा, जब १० वर्ष की उम्र में यह कविता पढ़ी तब भी रोना आया था(जिन दिनों “फ़िराक़ गोरखपुरी ” का निधन हुआ था, आज २३ वर्ष के बाद जब यह कविता पढ़ रहा हुँ तब भी आँखे नम हो गयी है। आप को कितनी तकलीफ़ हुई इसका अन्दाजा तो मैं लगा भी नहीं सकता हुँ।
एक बार और धन्यवाद
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हम यूं ही कभू लब खोले हैं
पहले फ़िराक़ को देखा होगा अब तो बहोत कम बोले हैं.
सुकूते-शाम मिटाओ बहुत अंधेरा है
सुखन की शम्मा जलाओ बहुत अंधेरा है
दयारे-ग़म में दिले-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूँढने जाओ बहुत अंधेरा है
ये रात वो है जहाँ सूझे नहीं हाथ को हाथ
खयालों! दूर न जाओ बहुत अंधेरा है
http://rachanakar.blogspot.com/2006/06/blog-post_14.html
पर देखें
वैसे तो फ़िराक साहब के हजारों अच्छे शेर हैं , पर एक शेर याद आता है जिसे एक बार आई के गुजराल जो समय प्रधानमंत्री थे ने संसद में सुनाया था
“तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो ,
तुमको देखूँ कि तुमसे बात करुँ ”
मुझे अगर ये पूरी नज्म अगर मिल सके तो बड़ी मेहरबानी होगी |
हर ख़्वाब से इक अह्द की बुनियाद पड़ी है।
सधन्यवाद,
आपका – रजनीश त्रिपाठी
आज पढा आपका यह लेख. फिराक साहब पर मेरे लिखे एक लेख पर सागर चंद नहर जी ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए अपके लेख का जिक्र किया. अच्छा लेख लगा. खास तौर से नज्म पढवाने के लिए शुक्रिया. मैने इसका लिंक भी इयत्ता पर दे दिया है.
zmein zindadili han.unki ek shair hai Ek muddat se teri yad na aayee mujhe main tujhe bhula diya ye pata bhee nahi.
मौत का भी इलाज हो शायद,
ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं.
यूं आपस में गुंथे हुए हैं, कायनात के बिखरे टुकड़े,
किसी फूल को जुम्बिश दोगे, कोई तारा कांप उठेगा.
और वह रुबाई, जिसकी अंतिम पंक्ति है
” है गोद में नन्हा सा हुमकता हुआ बालक.”
आदि आदि अनेकों शेरों और रुबाइयों को इसमें सम्मिलित न किया जाय.
और माना ये कि नासमझी में अक्सर ही गंवाया है
अरे तूं तो सयानी थी कदम गिन गिन के रखती थी
मगर ऐ जिंदगी ये तो बता, तूने क्या पाया है