http://web.archive.org/web/20110101202456/http://hindini.com/fursatiya/archives/170
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
मेरी पिछली पोस्ट में छायाजी ने टिप्पणी की :-
लेख संक्षिप्त है इसके बारे में क्या कहें? कुछ ‘शीघ्र पठन’ रोग से पीड़ित साथी हमारी पोस्ट की लंबाई से त्रस्त होकर पढ़ते ही नहीं,ऊपर-नीचे पढ़कर छोड़ देते हैं। अब जब यह पोस्ट कुछ छोटी हो गयी तो साथी लोग बताते हैं कि साजिशन पोस्ट छोटी कर दी। हम समझ नहीं पा रहे हैं क्या कहें!
हमें मुगलेआजम सनीमा का संवाद याद रहा है जो कि अकबर जी अनारकली जी से बोलते हैं- "सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा ,हम तुम्हें जीने नहीं देंगे।"
हमारी पोस्टों के साथ भी कुछ ऐसा ही तो नहीं हो रहा है- "छोटी पोस्ट हम लिखने नहीं देंगे,बड़ी हम पढ़ेंगे नहीं।"
बहरहाल ,पिछली पोस्ट के बारे में बहाना यह है कि हमारे पास कलकत्ता पहुँचने तक के दौरान कोई ऐसी उल्लेखनीय घटना नहीं थी जिसे पेश करते। दूसरी बात उस दिन रात के ३ बज गये फोटो बावजूद तमाम प्रयासों के ‘अपलोड’ नहीं हो पायीं। फिर जैसा बना वैसा पोस्ट कर दिया गया।
प्रेमलताजी का उलाहना है:-
फिलहाल जब तक हम आगे कुछ लिखें तब तक हमारी इस यात्रा के कुछ और फोटो देखें।
पहली तस्वीर मैंने भी उतारी एक तस्वीर की तरह है। एक गाड़ीवान तपती धूप में अपने सर पर छाता लगाये हुये है। सड़क पर भी पेड़ का छाता लगा है।
दूसरी तस्वीर में वे स्थानीय आदिवासी हैं जिनसे हमारी बातचीत हुई जिसका जिक्र मैंने पिछली पोस्ट में किया। सबसे बांयी तरफ दिलीप गोलानी हैं तथा सबसे दायीं तरफ विनय अवस्थी।
तीसरे चित्र में हम नहा रहे हैं -धान के खेत में लगे पम्प पर।
चौथी तस्वीर में हम खड़े हैं अपनी घुटने में लगी चोट के साथ।
फिलहाल इतने से ही काम चलाया जाय। नेट का कनेक्शन बार-बार कट रहा है। इसलिये बाकी फोटो ‘अध-अपलोडी’ रह जा रही हैं। जो लोग इस दौरान हमसे बात कर रहे हैं उनके लिये भी हम बार-बार -‘कहाँ चले गये यार’ बन रहे हैं। क्या करें ! मजबूरी है!
आशीष,रवि रतलामी,जीतेंदर ने उनकी बात का समर्थन किया है। स्वामी जी ,‘बहुत आनंदित हुये प्रतिक्रियाएं देख कर!‘ऐसा लिखा जैसे बला टाली हो।
बहुत संक्षिप्त है, जल्दी समाप्त करने की, और लोगों की मांग को दबाने की साजिश नजर आती है।
लेख संक्षिप्त है इसके बारे में क्या कहें? कुछ ‘शीघ्र पठन’ रोग से पीड़ित साथी हमारी पोस्ट की लंबाई से त्रस्त होकर पढ़ते ही नहीं,ऊपर-नीचे पढ़कर छोड़ देते हैं। अब जब यह पोस्ट कुछ छोटी हो गयी तो साथी लोग बताते हैं कि साजिशन पोस्ट छोटी कर दी। हम समझ नहीं पा रहे हैं क्या कहें!
हमें मुगलेआजम सनीमा का संवाद याद रहा है जो कि अकबर जी अनारकली जी से बोलते हैं- "सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा ,हम तुम्हें जीने नहीं देंगे।"
हमारी पोस्टों के साथ भी कुछ ऐसा ही तो नहीं हो रहा है- "छोटी पोस्ट हम लिखने नहीं देंगे,बड़ी हम पढ़ेंगे नहीं।"
बहरहाल ,पिछली पोस्ट के बारे में बहाना यह है कि हमारे पास कलकत्ता पहुँचने तक के दौरान कोई ऐसी उल्लेखनीय घटना नहीं थी जिसे पेश करते। दूसरी बात उस दिन रात के ३ बज गये फोटो बावजूद तमाम प्रयासों के ‘अपलोड’ नहीं हो पायीं। फिर जैसा बना वैसा पोस्ट कर दिया गया।
प्रेमलताजी का उलाहना है:-
भाई,ये क्या कभी सिर फेंक देते हो कभी धड ज़रा पुराने से लिंक भी रहे तो !प्रेमलताजी ,अगर फिर से देखें तो पुरानी पोस्ट का लिंक दिया था। दूसरी बात ये सारे लेख ‘जिज्ञासु यायावार’ श्रेणी के अंतर्गत दिये गये है। आप उसे ‘क्लिक’ करें तथा सारे पुराने लेख पढ़ें।
फिलहाल जब तक हम आगे कुछ लिखें तब तक हमारी इस यात्रा के कुछ और फोटो देखें।
पहली तस्वीर मैंने भी उतारी एक तस्वीर की तरह है। एक गाड़ीवान तपती धूप में अपने सर पर छाता लगाये हुये है। सड़क पर भी पेड़ का छाता लगा है।
दूसरी तस्वीर में वे स्थानीय आदिवासी हैं जिनसे हमारी बातचीत हुई जिसका जिक्र मैंने पिछली पोस्ट में किया। सबसे बांयी तरफ दिलीप गोलानी हैं तथा सबसे दायीं तरफ विनय अवस्थी।
तीसरे चित्र में हम नहा रहे हैं -धान के खेत में लगे पम्प पर।
चौथी तस्वीर में हम खड़े हैं अपनी घुटने में लगी चोट के साथ।
फिलहाल इतने से ही काम चलाया जाय। नेट का कनेक्शन बार-बार कट रहा है। इसलिये बाकी फोटो ‘अध-अपलोडी’ रह जा रही हैं। जो लोग इस दौरान हमसे बात कर रहे हैं उनके लिये भी हम बार-बार -‘कहाँ चले गये यार’ बन रहे हैं। क्या करें ! मजबूरी है!
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 7 Responses
अब भी कुछ नही बिगड़ा, साइकिल उठाओ, और आगे की दौड़ लगाओ।
समीर लाल
अब फुरसतिया का कोई लेख देखता हूं तो बडी फुरसत से एक मघ्घा (अरे मग भर यार) भर काफी लेकर पढने बैठ जाता हूं, कोशिश करता हूं कि कोई व्यवधान ना आये।
लेकिन पिछली पोस्ट में अर्रर ये क्या?कमरा तो शुरू होते ही खतम हो गया।
बमुश्किल काफी शुरू हुई, लेख खत्म। नाइंसाफी हो गई ना।मजा किरकिरा।
आपका लेख खोलने पर आई ई का स्क्रोलबार बहुत छोटा देखने की आदत है।
शुभेच्छु
प्रेमलता