http://web.archive.org/web/20110101192136/http://hindini.com/fursatiya/archives/187
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
[काफी दिनों से हम अपनी साइकिल यात्रा कथा को
सुनाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन कोई न कोई व्यवधान आता रहा। कभी फोटो
अपलोड नहीं कभी कम्प्यूटर ने समर्थन वापस ले लिया और कभी मियां-मूड नदारद।
एक बार तो पूरा लिखा हुआ मसाला हमारी बेवकूफी और कम्प्यूटर हजम कर गये
,जैसे जनता की गाढी़ कमाई को नेता-नौकरशाह-व्यापारी गठबंधन पचा जाता है(ऐसी
अफवाह है)। बहरहाल आज हम फिर पूरी तैयारी से लिखने बैठे हैं फिर से अपनी
साइकिल यात्रा के किस्से.जिन लोगों को पुराने किस्से पढ़ने हों वे यहां पढ़ सकते हैं]
हम जब कलकत्ता की तरफ बढ़ रहे थे तो मेरे मन में हावड़ा ब्रिज को देखने का कौतूहल था। यह मेरे जीवन की पहली कलकत्ता यात्रा थी । इसके पहले मैंने कलकत्ता को साहित्य के माध्यम से ही जाना था। विमल मित्र के उपन्यास ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ के दीपंकर के साथ-साथ मैंने कलकत्ता के गाड़ियाहाट और तमाम दूसरी जगहों की काल्पनिक यात्रायें की थीं। इसके बाद पढ़ा था कलकत्ता के बारे में । कालेज स्ट्रीट,ईडन गार्डन,विक्टोरिया मेमोरियल,विवेकानन्द आश्रम,कालीबाड़ी मंदिर,फेरी सर्विस,ट्राम,हाथ रिक्शा, सोनागाछी और न जाने क्या-क्या।
हावड़ा ब्रिज को देखने की थी उत्सुकता का यह था कि बचपन से मैंने इसके बारे में अनेकों कहानी-किस्से सुन रखे थे। दुनिया का सबसे बड़ा पुल है, चार घंटे में पूरा खुल जाता है,जहाज निकलने के लिये खुल जाता है आदि-इत्यादि।
बहरहाल जब हम पुल के पास पहुँचे तो मुँह बाये बहुत देर तक देखते रहे इसे। यह विश्व का व्यस्ततम पुल है। यह ‘प्राप्ड कैंटीलीवर टाइप’ (एक तरफ धंसा दूसरी तरफ टिका)पुल है।इसके बारे में तमाम जानकारियाँ उपलब्ध हैं तथा कवितायें भी लिखी हैं। मजे की बात है कि जो पुल १९३७ से १९४१ के बीच बना उसके बारे में लिखी कविता १९२५ की है।२६००० टन लोहे से बना यह पुल हावड़ा तथा कलकत्ता को जोड़ता है।
पुल पर पैदल,साइकिल,रिक्शा,बस,ट्राम का रेला गुजरता ही दिखा। इतनी भीड़ में वहाँ खड़े होना आफत। इसलिये पुल को आराम से देखने के लिये एक दिन हम रात को पुल पर आये।देखकर लौट गये। अब लगता है रात के सन्नाटे में पुल से बतियाते हुये एकाध कविता लिख लेते तो अच्छा रहता।
पुल पार करते ही स्ट्रैंड रोड आ जाता है जहाँ इन्द्र अवस्थी रहते थे। पहले रोड शुरू होते ही टकसाल थी(मिंट)जहाँ सिक्के ढलते थे। अब यह टकसाल अलीपुर चली गयी है तथा वहाँ सी.आर.पी.एफ. का आफिस खुल गया है।
वहीं मुझे दिखे तमाम बिहारी मजदूर जो सड़क के किनारे ,फुटपाथ पर अपना डेरा बनाये खाना बना रहे थे,बतिया रहे थे।इन बिहारी ,पूर्वी उत्तर प्रदेश के मेहनती मजदूरों से कलकत्ता निवासी चाहे जितना नाक भौं सिकोड़ें लेकिन इनके बिना कलकत्ता का काम भी नहीं चलता। अब तो बंगलादेशी घुसपैठियों के चलते ये बिहारी भाई भी अच्छी निगाहों से देखे जाने लगे हैं।
दुनिया में आज फास्ट फूड संस्कृति की आलोचना होती है। लेकिन बिहारियों और यू.पी. वालों का सत्तू एक ऐसा पदार्थ है जो दुनिया का ‘फास्टेस्ट फूड’ है और सबसे निरापद भी। भइया लोगों से नाक भौं सिकोड़ने वाले लोग भी अब इसकी शरण में आ गये हैं तथा सत्तू का घोल पीकर राजरोग(डायबिटीज) से बचने का उपाय करते हैं।बहरहाल यह तो ऐसे ही प्रसंगत:।
स्ट्रैंड रोड बडा़ बाजार में है। बडा़ बाजार के बारे में बताते हुये अवस्थी बोले- बडा़ बाजार कलकत्ता की शान है,सबसे बड़ा बाजार है,तमाम सामानों की थोक मंडी है,हजारों लोगों की रोजी-रोटी का सहारा है। और भी तमाम बातें बताईं लेकिन क्या फायदा उनको दोहराने से बस यह समझ लीजिये कि बड़ा बाजार बहुत बड़ा है।
इंद्र का परिवार जिस मकान में रहता था वहाँ मकान के सामने दुकाने थीं। कई किरायेदार रहते थे। इनका भी संयुक्त परिवार था। कुछ कमरों के घर में हम बिना पूछे धंस लिये थे। यह बचपना ही था कि हम बिना पूछे ,बिना घरवाले की परेशानी के बारे में सोचे, दोस्तों के यहाँ रुकते रहे। सोचते तो सोचते ही रह जाते आज ये लिख न रहे होते।
अवस्थी के पूरे परिवार में ठेलुहई के कीटाणु हैं किसी में कुछ कम किसी में कुछ ज्यादा। केवल माताजी इस बुराई से मुक्त हैं। माताजी के चलते ही सारे लोग निश्चिंत होकर ठेलुहई कर पाते हैं। माताजी ने हम लोगों को भी तीन दिन सहेजा और हमें यह अहसास ही नहीं हुआ कि हम अपने घर में नहीं हैं।
अवस्थी के साथ ही उनके बालसखा बिनोद भी थे । बिनोद हमारे हास्टल में हमारे कमरे के बगल वाले कमरे में ही रहते थे।हमारी विंग में ही रहने के कारण बिनोद से हमारा खास लगाव था । आज भी है। बिनोद वहीं ३६,ब्रजोदुलाल स्ट्रीट में अपने भइया-भाभी के साथ रहते थे। मां-पिता का निधन हो चुका था।एक दिन बिनोद् के घर भी गये। बाकी हमारा कैंप स्ट्रैंड रोड पर ही रहा ।बिनोद रोज आते और अवस्थी-बिनोद की जोडी़ यायावरों की तिकडी़ को गली-मोहल्ले,बाजार-सड़क,टहलाती रही ।
अवस्थी -बिनोद ने हमें जितना सम्भव हो सकता था कलकत्ता घुमाया। बाकी का बाद के लिये छोड़ दिया। हम विक्टोरिया मेमोरियल गये थे। सुना था कि यह मलिका-ए-विक्टोरिया के स्वागत-सम्मान में ताजमहल की तर्ज पर बना था। मजे की बात हमने ताजमहल बाद में देखा ,उसके तर्ज पर बने विक्टोरिया मेमोरियल को पहले।
कलकत्ते के हाथ-रिक्शे भी वहां की खासियत हैं। न जाने किन हालातों में इनका चलन शुरू हुआ होगा। लेकिन आज भी मारवाड़ी महिलायें तथा कुछ बंगाली बाबू इन पर सवारी करना पसंद करते हैं।
कलकत्ते में ही हमने ट्राम पहली बार देखी।मजे की बात सबेरे -सबेरे कभी-कभी देखा कि ट्राम चली जा रही है आगे कोई सांड़ खड़ा हो गया । अब कंडक्टर उतर कर सांड को हटा रहा है। सड़क के किनारे चारपाई बिछाये आदमी को झल्लाते हुये उठा रहा है। आगे लगा जाम हटा रहा है।हम कई बार ट्राम में घूमे।
आफिस के घंटों में कलकत्ते का सड़क का ट्रफिक रेंगता हुआ चलता है। गाड़ियाँ साम्राज्यवाद और आतंकवाद की जुगलबंदी की तरह सटी-सटी चलती हैं।उन दिनों हमारे पास समय इफरात में था। समय की कीमत का अंदाजा नहीं था।लेकिन अब जब कभी कलकत्ता जाता हूँ तो लगता है कि कितने रेंगते हुये वाहनों का बोझ रोज सहता है यह ’सिटी आफ ज्वाय।’
सिटी आफ ज्वाय डामनिक लैपियर की वह किताब है जिसे उन्होंने कलकत्ता के बारे में कलकत्ता में रहते हुये छह साल के अध्ययन के बाद लिखीं। मैं कुल तीन दिन रहा वहाँ।२३ साल पहली की इतनी ही यादे हैं मेरे दिमाग में वहाँ की। बाकी की अवस्थी कभी शायद लिखें अपने आलस्य का त्याग करके।
तीन दिन कलकत्ता रहने के बाद हम वहाँ से आगे खड़कपुर के लिये चल दिये। वापसी में अवस्थी,बिनोद और उनके साथ के लोग हमें हावड़ा पुल तक छोड़ने आये। वहाँ हम काफी देर तक खड़े गपियाते रहे।फोटो-सोटो भी हुये काफी। आज हम बहुत् देर तक उन तस्वीर्रो को निहारते रहे। अवस्थी-बिनोद के सर के उड़ते बाल गार्ड की झंडी की तरह फहरा रहे थे। हम उन लोगों को विदा लेकर आगे बढ़ गये। बाद के दिनों में सर के बालों ने भी इनका साथ छोड़ दिया।
मेरी पसंद
आज की मेरी पसंद की कविता कलकत्ता पर केंद्रित है। ८ अप्रैल,१९७४ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में जन्मे जितेंद्र श्रीवास्तव की यह कविता (तद्भव,अक्टूबर २००५ में प्रकाशित) इस वर्ष के भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिये चुनी गयी है। पुरस्कार के निर्णायक व प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह का कहना है कि इसके केंद्र में गालिब की प्रसिद्ध कलकत्ता यात्रा कीस्मृति है,पूरी कविता इस स्मृति के साथ की जाने वाली एक सर्जनात्मक यात्रा है। इस यात्रा के प्रति एक काव्यांजलि है ,जिसकी सार्थकता राजनीति-सामाजिक संदर्भ में आर बढ़ जाती है।
हम जब कलकत्ता की तरफ बढ़ रहे थे तो मेरे मन में हावड़ा ब्रिज को देखने का कौतूहल था। यह मेरे जीवन की पहली कलकत्ता यात्रा थी । इसके पहले मैंने कलकत्ता को साहित्य के माध्यम से ही जाना था। विमल मित्र के उपन्यास ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ के दीपंकर के साथ-साथ मैंने कलकत्ता के गाड़ियाहाट और तमाम दूसरी जगहों की काल्पनिक यात्रायें की थीं। इसके बाद पढ़ा था कलकत्ता के बारे में । कालेज स्ट्रीट,ईडन गार्डन,विक्टोरिया मेमोरियल,विवेकानन्द आश्रम,कालीबाड़ी मंदिर,फेरी सर्विस,ट्राम,हाथ रिक्शा, सोनागाछी और न जाने क्या-क्या।
हावड़ा ब्रिज को देखने की थी उत्सुकता का यह था कि बचपन से मैंने इसके बारे में अनेकों कहानी-किस्से सुन रखे थे। दुनिया का सबसे बड़ा पुल है, चार घंटे में पूरा खुल जाता है,जहाज निकलने के लिये खुल जाता है आदि-इत्यादि।
बहरहाल जब हम पुल के पास पहुँचे तो मुँह बाये बहुत देर तक देखते रहे इसे। यह विश्व का व्यस्ततम पुल है। यह ‘प्राप्ड कैंटीलीवर टाइप’ (एक तरफ धंसा दूसरी तरफ टिका)पुल है।इसके बारे में तमाम जानकारियाँ उपलब्ध हैं तथा कवितायें भी लिखी हैं। मजे की बात है कि जो पुल १९३७ से १९४१ के बीच बना उसके बारे में लिखी कविता १९२५ की है।२६००० टन लोहे से बना यह पुल हावड़ा तथा कलकत्ता को जोड़ता है।
पुल पर पैदल,साइकिल,रिक्शा,बस,ट्राम का रेला गुजरता ही दिखा। इतनी भीड़ में वहाँ खड़े होना आफत। इसलिये पुल को आराम से देखने के लिये एक दिन हम रात को पुल पर आये।देखकर लौट गये। अब लगता है रात के सन्नाटे में पुल से बतियाते हुये एकाध कविता लिख लेते तो अच्छा रहता।
पुल पार करते ही स्ट्रैंड रोड आ जाता है जहाँ इन्द्र अवस्थी रहते थे। पहले रोड शुरू होते ही टकसाल थी(मिंट)जहाँ सिक्के ढलते थे। अब यह टकसाल अलीपुर चली गयी है तथा वहाँ सी.आर.पी.एफ. का आफिस खुल गया है।
वहीं मुझे दिखे तमाम बिहारी मजदूर जो सड़क के किनारे ,फुटपाथ पर अपना डेरा बनाये खाना बना रहे थे,बतिया रहे थे।इन बिहारी ,पूर्वी उत्तर प्रदेश के मेहनती मजदूरों से कलकत्ता निवासी चाहे जितना नाक भौं सिकोड़ें लेकिन इनके बिना कलकत्ता का काम भी नहीं चलता। अब तो बंगलादेशी घुसपैठियों के चलते ये बिहारी भाई भी अच्छी निगाहों से देखे जाने लगे हैं।
दुनिया में आज फास्ट फूड संस्कृति की आलोचना होती है। लेकिन बिहारियों और यू.पी. वालों का सत्तू एक ऐसा पदार्थ है जो दुनिया का ‘फास्टेस्ट फूड’ है और सबसे निरापद भी। भइया लोगों से नाक भौं सिकोड़ने वाले लोग भी अब इसकी शरण में आ गये हैं तथा सत्तू का घोल पीकर राजरोग(डायबिटीज) से बचने का उपाय करते हैं।बहरहाल यह तो ऐसे ही प्रसंगत:।
स्ट्रैंड रोड बडा़ बाजार में है। बडा़ बाजार के बारे में बताते हुये अवस्थी बोले- बडा़ बाजार कलकत्ता की शान है,सबसे बड़ा बाजार है,तमाम सामानों की थोक मंडी है,हजारों लोगों की रोजी-रोटी का सहारा है। और भी तमाम बातें बताईं लेकिन क्या फायदा उनको दोहराने से बस यह समझ लीजिये कि बड़ा बाजार बहुत बड़ा है।
इंद्र का परिवार जिस मकान में रहता था वहाँ मकान के सामने दुकाने थीं। कई किरायेदार रहते थे। इनका भी संयुक्त परिवार था। कुछ कमरों के घर में हम बिना पूछे धंस लिये थे। यह बचपना ही था कि हम बिना पूछे ,बिना घरवाले की परेशानी के बारे में सोचे, दोस्तों के यहाँ रुकते रहे। सोचते तो सोचते ही रह जाते आज ये लिख न रहे होते।
अवस्थी के पूरे परिवार में ठेलुहई के कीटाणु हैं किसी में कुछ कम किसी में कुछ ज्यादा। केवल माताजी इस बुराई से मुक्त हैं। माताजी के चलते ही सारे लोग निश्चिंत होकर ठेलुहई कर पाते हैं। माताजी ने हम लोगों को भी तीन दिन सहेजा और हमें यह अहसास ही नहीं हुआ कि हम अपने घर में नहीं हैं।
अवस्थी के साथ ही उनके बालसखा बिनोद भी थे । बिनोद हमारे हास्टल में हमारे कमरे के बगल वाले कमरे में ही रहते थे।हमारी विंग में ही रहने के कारण बिनोद से हमारा खास लगाव था । आज भी है। बिनोद वहीं ३६,ब्रजोदुलाल स्ट्रीट में अपने भइया-भाभी के साथ रहते थे। मां-पिता का निधन हो चुका था।एक दिन बिनोद् के घर भी गये। बाकी हमारा कैंप स्ट्रैंड रोड पर ही रहा ।बिनोद रोज आते और अवस्थी-बिनोद की जोडी़ यायावरों की तिकडी़ को गली-मोहल्ले,बाजार-सड़क,टहलाती रही ।
अवस्थी -बिनोद ने हमें जितना सम्भव हो सकता था कलकत्ता घुमाया। बाकी का बाद के लिये छोड़ दिया। हम विक्टोरिया मेमोरियल गये थे। सुना था कि यह मलिका-ए-विक्टोरिया के स्वागत-सम्मान में ताजमहल की तर्ज पर बना था। मजे की बात हमने ताजमहल बाद में देखा ,उसके तर्ज पर बने विक्टोरिया मेमोरियल को पहले।
कलकत्ते के हाथ-रिक्शे भी वहां की खासियत हैं। न जाने किन हालातों में इनका चलन शुरू हुआ होगा। लेकिन आज भी मारवाड़ी महिलायें तथा कुछ बंगाली बाबू इन पर सवारी करना पसंद करते हैं।
कलकत्ते में ही हमने ट्राम पहली बार देखी।मजे की बात सबेरे -सबेरे कभी-कभी देखा कि ट्राम चली जा रही है आगे कोई सांड़ खड़ा हो गया । अब कंडक्टर उतर कर सांड को हटा रहा है। सड़क के किनारे चारपाई बिछाये आदमी को झल्लाते हुये उठा रहा है। आगे लगा जाम हटा रहा है।हम कई बार ट्राम में घूमे।
आफिस के घंटों में कलकत्ते का सड़क का ट्रफिक रेंगता हुआ चलता है। गाड़ियाँ साम्राज्यवाद और आतंकवाद की जुगलबंदी की तरह सटी-सटी चलती हैं।उन दिनों हमारे पास समय इफरात में था। समय की कीमत का अंदाजा नहीं था।लेकिन अब जब कभी कलकत्ता जाता हूँ तो लगता है कि कितने रेंगते हुये वाहनों का बोझ रोज सहता है यह ’सिटी आफ ज्वाय।’
सिटी आफ ज्वाय डामनिक लैपियर की वह किताब है जिसे उन्होंने कलकत्ता के बारे में कलकत्ता में रहते हुये छह साल के अध्ययन के बाद लिखीं। मैं कुल तीन दिन रहा वहाँ।२३ साल पहली की इतनी ही यादे हैं मेरे दिमाग में वहाँ की। बाकी की अवस्थी कभी शायद लिखें अपने आलस्य का त्याग करके।
तीन दिन कलकत्ता रहने के बाद हम वहाँ से आगे खड़कपुर के लिये चल दिये। वापसी में अवस्थी,बिनोद और उनके साथ के लोग हमें हावड़ा पुल तक छोड़ने आये। वहाँ हम काफी देर तक खड़े गपियाते रहे।फोटो-सोटो भी हुये काफी। आज हम बहुत् देर तक उन तस्वीर्रो को निहारते रहे। अवस्थी-बिनोद के सर के उड़ते बाल गार्ड की झंडी की तरह फहरा रहे थे। हम उन लोगों को विदा लेकर आगे बढ़ गये। बाद के दिनों में सर के बालों ने भी इनका साथ छोड़ दिया।
मेरी पसंद
आज की मेरी पसंद की कविता कलकत्ता पर केंद्रित है। ८ अप्रैल,१९७४ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में जन्मे जितेंद्र श्रीवास्तव की यह कविता (तद्भव,अक्टूबर २००५ में प्रकाशित) इस वर्ष के भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिये चुनी गयी है। पुरस्कार के निर्णायक व प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह का कहना है कि इसके केंद्र में गालिब की प्रसिद्ध कलकत्ता यात्रा कीस्मृति है,पूरी कविता इस स्मृति के साथ की जाने वाली एक सर्जनात्मक यात्रा है। इस यात्रा के प्रति एक काव्यांजलि है ,जिसकी सार्थकता राजनीति-सामाजिक संदर्भ में आर बढ़ जाती है।
अभी और कितनी दूर है कलकत्ताजितेंद्र श्रीवास्तव
वही कलकत्ता
जहाँ पहुँचे थे कभी अपने मिर्जा गालिब
और लौटे थे जेहन में आधुनिकता लेकर।
मैंने कितनी कितनी बार दुहराया है
वह शेर
किसी सबक की तरह
जिसमें दुविधा के बीच
जीवन की राह तलाशता है शायर।
वहाँ सवाल ईमान और कुफ्र का नहीं
वहाँ सवाल धर्मी और विधर्मी का नहीं
वहाँ सवाल एक नयी रोशनी का है।
गालिब की यात्रा के सैकड़ों सालों बाद
मैं हिंदी का एक अदना-सा कवि
जा रहा हूँ कलकत्ता।
मन में गहरी बेचैनी है
इधर बदल गये हैं हमारे शहर
वहाँ अदृश्य हो रहे हैं आत्मा के वृक्ष
अब कोई आँधी नहीं आती
जो उड़ा दे भ्रम की चादर।
यह जादुई विज्ञापनों का समय है
यह विस्मरण का समय है।
इस समय रिश्तों पर बात करना
प्रागैतिहासिक काल पर बात करने जैसा हो गया है।
हमारे शहर बदल गये हैं
कलकत्ता भी बदल गया
पर अभी कितनी दूर है वह
बैठ-बैठे पिरा रही है कमर
बढ़ती जा रही है हसरत।
कितना समय लगा होगा गालिब को
वहाँ पहुँचने में
महज देह नहीं
आत्मा भी दुखी होगी उनकी।
उनके लिये कलकत्ता महज एक शहर नहीं था
उनकी यात्रा किसी सैलानी की यात्रा न थी।
जब हम देखते हैं किसी शहर को
वह शहर भी देखता है हमको
कलकत्ते ने देखा होगा हमारे महाकवि को
उसके आंसुओं को
उसके दुख को।
क्या कलकत्ते ने देखा होगा
हमारे महाकवि की आत्मा को
उसके भीतर की अजस्र कविता को।
मैं कलकत्ते में
कैसे पहचानूँगा उस पत्थर को
जिस पर समय से दो हाथ करता
कुछ पल सुस्ताने के लिये बैठा होगा
हमारी कविता का मस्तक
रेख्ते का वह उस्ताद।
मैं जी भर देखना चाहता हूँ कलकत्ता
इसलिये चाहे जितना पिराये कमर
चाहे जितनी सताये थकान
मैं लौटूँगा नहीं दिल्ली
जरूर जाऊँगा कलकत्ता।
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 13 Responses
ज़िक्र कलकत्ते का तूने किया जो ज़ालिम
इक तीर मेरे दिल में वो मारा के हाय हाय
समथिंग सब्ज़ा (हरियाली)समथिंग अबाऊट ब्यूटिफ़ुल विमेन
समथिं उनका इशारा के हाय हाय (सीरियल देख कर फ़िर से लिखूंगा पूरा इधर)
अब मैंने शेष लेख पढ़ लिया है…
मैंने भी अपनी याद में कलकत्ता के सामाजिक जीवन का वर्णन इसी उपन्यास के द्वारा जाना था।
चलिये, इस सन्दर्भ में शेष चर्चा फिर कभी…
पूरे उपन्यास मे कलकत्ते को एक विदेशी की नजर से देखा गया वर्णन लगता है। जाने अन्जाने मे लेपियर ने मिशनरीज को भी कुछ हद तक महीमा मंडीत करने की कोशीश की है।
kafi sundar post hai aur khas kar tasveeren bahut achchi hain.